अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस: 140 करोड़ भारतीयों के संकल्प का समय

डॉ राघवेंद्र शर्मा

Update: 2025-12-08 14:30 GMT

​भ्रष्टाचार किसी भी राष्ट्र की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा और समाज की जड़ों को खोखला करने वाली एक लाइलाज बीमारी के समान है। हर साल 9 दिसंबर को 'अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस' मनाया जाता है, जो हमें याद दिलाता है कि एक पारदर्शी और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण केवल सरकारी नीतियों से नहीं, बल्कि सामूहिक नागरिक चेतना से ही संभव है। इस वर्ष का यह दिवस न केवल भ्रष्टाचार के खिलाफ वैश्विक एकजुटता का प्रतीक है, बल्कि भारत के संदर्भ में यह आत्म-मंथन का भी समय है कि हमने इस "सामाजिक बुराई" से निपटने में कितनी दूरी तय की है और अभी कितनी राह बाकी है।

​भारतीय राजनीति और प्रशासन के इतिहास में एक दौर वह भी था, जब भ्रष्टाचार को व्यवस्था का हिस्सा मान लिया गया था। देश के एक पूर्व प्रधानमंत्री ने स्वयं स्वीकार किया था कि केंद्र सरकार जब दिल्ली से 1 रुपया भेजती है, तो गरीब की जेब तक केवल 15 पैसे ही पहुँचते हैं। वह 85 पैसों का 'लीकेज' बिचौलियों, भ्रष्ट अधिकारियों और पारदर्शी तंत्र के अभाव की भेंट चढ़ जाता था। यह केवल आर्थिक हानि नहीं थी, बल्कि करोड़ों देशवासियों के भरोसे की हत्या थी। संसाधनों का यह असमान वितरण और संस्थागत भ्रष्टाचार ही वह कारण था, जिसने दशकों तक भारत के विकास की गति को थामे रखा।

​​वर्तमान परिदृश्य में, विशेषकर पिछले दशक में, भारत ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध तकनीकी प्रहार किया है। मोदी सरकार की वर्तमान कार्य प्रणाली और 'डिजिटल इंडिया' अभियान ने शासन में अभूतपूर्व पारदर्शिता का संचार किया है। डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर की नीति ने उन बिचौलियों को व्यवस्था से बाहर कर दिया है जो गरीबों का हक मारते थे। आज जब केंद्र से पैसा चलता है, तो वह सीधे लाभार्थी के बैंक खाते में बिना किसी कटौती के पहुँचता है। ​भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में कुछ प्रमुख कारकों ने बड़ी भूमिका निभाई है। सरकारी सेवाओं का डिजिटलीकरण होने से मानवीय हस्तक्षेप कम हुआ है, जिससे 'सुविधा शुल्क' या रिश्वत की गुंजाइश घटी है। जीएसटी जैसी एकीकृत कर प्रणाली ने कर चोरी को कठिन बना दिया है और व्यापारिक लेन-देन में पारदर्शिता बढ़ाई है। बेनामी संपत्ति अधिनियम और भगोड़े आर्थिक अपराधी कानून जैसे कदमों ने भ्रष्टाचारियों के मन में कानून का भय पैदा किया है।​

भ्रष्टाचार केवल फाइलों या दफ्तरों तक सीमित नहीं है। यह एक मानसिक प्रवृत्ति भी है। अक्सर हम तंत्र को दोष देते हैं, लेकिन अपनी सुविधा के लिए शॉर्टकट खोजने से नहीं चूकते। यहाँ यह नारा अत्यंत प्रासंगिक हो जाता है  "सुधार की शुरुआत स्वयं से करनी होगी।" यदि समाज भ्रष्टाचार को सामाजिक रूप से बहिष्कृत करना शुरू कर दे और नागरिक 'लेने' और 'देने' दोनों से इनकार कर दें, तो कोई भी भ्रष्ट तंत्र अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता। ​"हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा" का मंत्र हमें यह सिखाता है कि ईमानदारी एक व्यक्तिगत विकल्प है जो आगे चलकर एक सामाजिक क्रांति का रूप ले लेती है। जब प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्यक्षेत्र में सत्यनिष्ठा अपनाता है, तो भ्रष्टाचार की जड़ें अपने आप कमजोर होने लगती हैं। ​कानून और तकनीक भ्रष्टाचार को कम तो कर सकते हैं, लेकिन इसे जड़ से मिटाने के लिए सामाजिक चेतना और जागरूकता अनिवार्य है।

जब तक समाज में भ्रष्टाचार के प्रति 'जीरो टॉलरेंस' (शून्य सहनशीलता) का भाव पैदा नहीं होगा, तब तक इस बुराई का पूर्ण उन्मूलन संभव नहीं है। ​आगामी समय में हमें निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।

​नैतिक शिक्षा: स्कूलों और परिवारों में ईमानदारी को सर्वोच्च मूल्य के रूप में स्थापित करना।

​व्हिसलब्लोअर का संरक्षण: उन साहसी लोगों को सुरक्षा प्रदान करना जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाते हैं।

​प्रशासनिक जवाबदेही: लोक सेवकों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाना ताकि वे स्वयं को 'स्वामी' नहीं बल्कि 'सेवक' समझें।

​निष्कर्ष यह कि ​9 दिसंबर का यह दिन केवल एक औपचारिक दिवस नहीं, बल्कि एक प्रतिज्ञा का दिन है। भारत आज विश्व पटल पर एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है। इस गौरवशाली यात्रा में भ्रष्टाचार की बेड़ियाँ हमारे पैरों में नहीं पड़नी चाहिए। सरकार ने नीतिगत स्तर पर पारदर्शिता का जो ढांचा तैयार किया है, उसे सशक्त बनाने की जिम्मेदारी अब समाज की है। ​भ्रष्टाचार मुक्त भारत का सपना तभी साकार होगा जब 140 करोड़ भारतीय यह ठान लेंगे कि वे न तो भ्रष्टाचार का हिस्सा बनेंगे और न ही इसे मूकदर्शक बनकर सहेंगे। आइए, इस अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस पर हम स्वयं से सुधार का संकल्प लें, क्योंकि पारदर्शी भारत ही समृद्ध भारत की नींव है।

 



 











लेखक डॉ राघवेंद्र शर्मा मध्य प्रदेश बाल कल्याण आयोग के पूर्व अध्यक्ष हैं

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