हाईकोर्ट के आदेश को ठेंगा: सरकारी स्कूलों में पढ़ना नहीं चाहते अफ़सर, नेता...
अजय सिंह चौहान, लखनऊ। सूबे जनप्रतिनिधि एवं नौकरशाह हाईकोर्ट के आदेश को खुलेआम ठेंगा दिखा रहे हैं।कोर्ट के सख्त आदेश के बावजूद यूपी के मंत्री, विधायक व अफसर आज की तारीख में अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाने को हरगिज तैयार नहीं हैं। सरकारी स्कूलों में शिक्षा की दुर्दशा को सुधारने के लिए हाईकोर्ट ने 18 अगस्त 2015 को आदेश दिया था,और अपने आदेश में कहा था कि जब तक इसमें सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों व राजनेताओं के बच्चे नहीं पढ़ेंगे, तो सरकारी स्कूलों की दशा में कोई सुधार नहीं होगा।
हाईकोर्ट ने अपने आदेशों का छह माह के भीतर अक्षरश: अनुपालन सुनिश्चित करने को सूबे के मुख्य सचिव को आदेश दिया था,कि सरकारी, अर्ध सरकारी सेवकों, स्थानीय निकायों के जनप्रतिनिधियों, न्यायपालिका एवं सरकारी खजाने से वेतन, मानदेय या धन प्राप्त करने वाले लोगों के बच्चे अनिवार्य रूप से बेसिक शिक्षा परिषद के स्कूलों में पढ़ें। ऐसा न करने वालों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की जाए।
यदि कोई कॉन्वेंट स्कूल में अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए भेजे तो उस स्कूल में दी जाने वाली फीस के बराबर धनराशि उससे प्रतिमाह सरकारी खजाने में जमा कराई जाए। ऐसे लोगों की वेतनवृद्धि व प्रोन्नति कुछ समय के लिए रोकने की व्यवस्था हो।
कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को अगले शिक्षा सत्र से इस व्यवस्था को लागू करने को कहा था।लेकिन सूबे में "दफ्तरशाही" हावी होने के चलते कोर्ट द्वारा जारी आदेशों का 10 साल का एक लंबा समय बीत जाने के बाद भी अनुपालन नहीं हो पाया।
अगर हाईकोर्ट के आदेश का शासन में बैठे शीर्ष अफसरों द्वारा अक्षरश: अनुपालन कराया जाता तो आज करोड़ों खर्च के बावजूद सूबे में शिक्षा की ऐसी दुर्दशा न होती, और न ही वर्षो से संचालित हो रहे इन सरकारी स्कूलों को पास के कंपोजिट स्कूलों में मर्जर (विलय) करने की आवश्यकता होती।
गौरतलब हो कि ग्रामीण क्षेत्रों में पहले से ही सरकारी स्कूलों तक पहुंचने एक बड़ी चुनौती है। क्योंकि अधिकतर बच्चों को पैदल ही स्कूल जाना पड़ता है। मर्जर (विलय) के बाद जब स्कूल 2-3 किलोमीटर दूर होंगे, तो छोटे बच्चों के लिए नियमित उपस्थिति कठिन हो जाएगी। वहीं लड़कियों की शिक्षा पर यह कदम बड़ा असर डाल सकता है। दूर-दराज़ स्कूल भेजने को लेकर माता-पिता की चिंता,परिवहन की कमी और सामाजिक सुरक्षा की चिंता के चलते वे लड़कियों की पढ़ाई ही छुड़वा सकते, जबकि गरीब परिवारों के पास न तो परिवहन की सुविधा होती है और न ही वे ट्यूशन या प्राइवेट स्कूल का खर्च उठा सकते हैं।
सरकारी स्कूल ही उनका एकमात्र सहारा होते हैं, जिनकी संख्या अब घटाई जा रही है। छोटे स्कूल अक्सर स्थानीय संस्कृति और समुदाय से जुड़े होते हैं। इन स्कूल का बंद होना बच्चों के मनोबल और स्थानीय भागीदारी को प्रभावित कर सकता है। इस मुद्दे पर विशेषज्ञों का मानना है,कि शिक्षा केवल भवन का खेल नहीं है, यह बच्चों की पहुंच और सुविधा से जुड़ी है। यदि बच्चों को स्कूल तक पहुंचने में दिक्कत होगी, तो ड्रॉप आउट बढ़ना तय है।
इसीलिए जानकारों और सामाजिक संगठनों का कहना कि जमीनी सच्चाइयों को छुपाते हुए एवं इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा पूर्व में पारित आदेशों का अनुपालन न कराकर हाईकोर्ट लखनऊ खंडपीठ एवं सरकार द्वारा लिया गया,यह निर्णय शिक्षा में सुधार की बजाय, एक नई समस्या को जन्म दे सकता है।
क्योंकि सूबे में अफसरशाही हावी होने के कारण जनसरोकार से जुड़ी योजना आम आदमी के पहुंच से बाहर है।ऐसे में आंदोलन के माध्यम से गरीबों को जगाते हुए सूबे की विफलता का पर्दाफाश करेंगे।