संघ कार्य ईश्वरीय है, इसलिए सतत रूप से चलता रहेगा : अवधेशानन्द गिरि
गोपाल लालवानी
सनातन पर चर्चा नहीं, आचरण की प्रतिबद्धता आवश्यक
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य समग्रता में ईश्वरीय कार्य है। यह सर्वकल्याणकारी प्रकल्प है, इसलिए जो सबके कल्याण के केंद्र पर टिका है, वह ईश्वरीय कार्य ही हो सकता है। जिस तरह ईश्वर सबका हित करते हैं, उसी तरह आधुनिक दौर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने ध्येय के लिए समर्पित है। यह बात जूनापीठाधीश्वर स्वामी अवधेशानन्द गिरि महाराज ने स्वदेश से विशेष बातचीत में कही।
महामंडलेश्वर जी इन दिनों भिंड के दंदरौआ धाम में भागवत कथा कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि यह ऐतिहासिक क्षण है, जब हम संघ के शताब्दी वर्ष के साक्षी बन रहे हैं। मैं दृढ़ता से दोहराता हूं कि यदि संघकार्य ईश्वरीय कार्य के समतुल्य न होता, तो शताब्दी की यह गौरवमयी यात्रा संभव ही नहीं थी।
स्वामी जी ने स्पष्टतापूर्वक कहा कि संघ ने वैश्विक कल्याण और समग्र मानवता के कल्याण के लिए समर्पित होकर कार्य किया है। जब मानवता के कल्याण की बात होती है, तो उसमें राष्ट्र और हमारे सभी समुदायों के कल्याण का भाव भी अंतर्निहित होता है। अवधेशानन्द जी ने कहा कि जैसे ईश्वर की सत्ता सर्वकालिक, शाश्वत और सतत है, वैसे ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य भी आने वाले समय में सातत्य के साथ चलता रहेगा। उन्होंने शताब्दी वर्ष पर संघ परिवार को शुभकामनाएं भी प्रेषित कीं।
चर्चा के दौरान उन्होंने चिंता जताई कि आजकल सनातन पर चर्चा का चलन बढ़ गया है, लेकिन अधिकतर लोग केवल बातें ही करते हैं। सनातन चर्चा का नहीं, बल्कि आचरण में ईमानदारी से अनुपालन का विषय है। आज हम देख रहे हैं कि लोग अपनी सनातनी पहचान से परहेज कर रहे हैं। हमारे पास अपनी विशिष्ट पहचान के लिए सूत्र, पोशाक, तिलक, बिंदी, शिखा, दर्शन—सब कुछ है, लेकिन कितने लोग इन्हें धारण करते हैं?
उन्होंने प्रश्न किया कि आपके व्यक्तित्व में ऊपर से नीचे तक कौन-सा सनातनी चिन्ह दिखाई देता है? यही संकोच की प्रवृत्ति हमारा संकट है। हर सनातनी के ललाट पर तिलक क्यों नहीं होना चाहिए? हर स्त्री और पुरुष को हमारे परम्परागत पहनावे से आखिर कौन रोक रहा है? आवश्यकता इस बात की है कि जब भी कोई आपसे मिले तो उसे प्रथम दृष्ट्या आपके बाहरी आवरण से ही लगना चाहिए कि वह किसी सनातनी से मिल रहा है।
पहनावे के वैशिष्ट्य पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि पोशाक से पता चल जाता है कि कौन पारसी है, कौन ईसाई, कौन सिख और कौन मुस्लिम; लेकिन किसी सनातनी को देखकर यह पता नहीं चलता कि वह कौन है। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है, क्योंकि जब आप बाहर से ही अपने मूल पर गर्व नहीं कर पा रहे हैं, तो अन्तस् से सनातनी होने पर गर्व कैसे अनुभूत कर सकते हैं? स्वामी जी ने कहा कि स्वयं को सनातनी कहने वाले सभी लोग अंग्रेज़ी, फारसी और दूसरी पहचान के साथ जीना बंद करें। सनातन के लिए यही उनका सबसे बड़ा योगदान होगा।
युवाओं को आगे आना होगा
आचार्य श्री ने सनातन धर्म के भविष्य को लेकर कहा कि भारत युवा जनसंख्या वाला देश है और वर्तमान परिस्थितियों में हमारे सामने इस युवा मन को सनातन के मूल से जोड़ने की बड़ी चुनौती है। समाज के हर चैतन्य व्यक्ति का यह दायित्व है कि वह अपने परिवार और समाज में सनातन के प्रति आत्मगौरव का भाव सुनिश्चित करे। उन्होंने जोड़ा कि यह कार्य केवल बातों से नहीं होगा; इसके लिए आचार, व्यवहार, मन, वचन और कर्म में सनातन के प्रति सत्यनिष्ठा अपनानी होगी।
दक्षिण भारतीयों से सीखने की आवश्यकता
आचार्य अवधेशानन्द जी ने कहा कि शेष भारत के हिंदुओं को दक्षिण भारतीय भाई-बहनों से सीखने की आवश्यकता है। वहाँ कलेक्टर से लेकर कंडक्टर, मंत्री से पंच तक प्रायः सभी लोग तिलक लगाते हैं और अपनी परंपरागत पोशाक पहनते हैं। लेकिन शेष भारत में लोग शिखा, सूत्र और परिधान से संकोच करते हैं। समाज का बड़ा वर्ग आधुनिकता की संकीर्ण और अधकचरी परिभाषा को मस्तिष्क में बिठा चुका है।