कर्नाटक में कुर्सी की लड़ाई से कांग्रेस की कमजोरी उजागर

Update: 2025-11-27 04:57 GMT

कर्नाटक की राजनीति एक बार फिर सत्ता संतुलन के संकट से गुजर रही है। कांग्रेस सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री पद को लेकर सिद्धारमैया और डी. के. शिवकुमार के बीच जो तनातनी समय-समय पर उभरती रही, वह अब खुलकर सामने दिखने लगी है। यह तनाव केवल दो नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा का मामला नहीं है, बल्कि राज्य के शासन, विकास और कांग्रेस पार्टी की संरचनात्मक कमजोरियों को भी उजागर करता है।

सिद्धारमैया कर्नाटक के अनुभवी और लोकप्रिय नेता हैं। वे सामाजिक न्याय और वंचित वर्गों की राजनीति का प्रतिनिधित्व करते आए हैं। प्रशासनिक अनुभव और राजनीतिक पकड़ उनके पक्ष में है। दूसरी ओर, डी. के. शिवकुमार संगठन संभालने में सक्षम, संसाधन-सम्पन्न और सशक्त जातीय आधार वाले नेता हैं, जिनका पार्टी को सत्ता में लाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। चुनाव प्रचार से लेकर विधायकों को एकजुट रखने और संगठन को मजबूत करने तक उनकी भूमिका निर्णायक रही। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि वे स्वयं को ‘पावर शेयरिंग’ के वैध दावेदार के रूप में प्रस्तुत करते रहे हैं।

लेकिन राजनीति में स्वाभाविक दावेदारी अक्सर संघर्ष का आधार बन जाती है, और यही कर्नाटक में हो रहा है। सत्ता हस्तांतरण के अनकहे समझौते, दोनों नेताओं के समर्थक समूहों के टकराव और ‘वन मैन शो बनाम कलेक्टिव लीडरशिप’ की बहस अब शासन को प्रभावित करने लगी है। प्रशासनिक फैसले धीमे पड़ रहे हैं, नीति संबंधी निर्णयों में अस्पष्टता बढ़ रही है और मंत्रिमंडल में खींचतान का माहौल दिखाई देता है।

यह स्थिति कांग्रेस नेतृत्व की कमजोरी भी दर्शाती है। पार्टी में स्पष्ट शक्ति-संतुलन का ढांचा न होने से क्षेत्रीय नेतृत्व अक्सर अपने-अपने गुट खड़े कर लेता है। हिमाचल प्रदेश में सरकार गठन से लेकर राजस्थान में गहलोत–पायलट विवाद तक, कांग्रेस जितनी बार सत्ता में आती है, उतनी बार आंतरिक कलह सुर्खियों में आ जाती है। कर्नाटक भी इसका अपवाद नहीं है। पार्टी नेतृत्व ने शुरुआत में ‘रोटेशनल सीएम’ के फॉर्मूले के संकेत दिए थे, लेकिन बाद में इस पर अस्पष्ट रुख बनाए रखा, जिससे टकराव और तीखा हो गया।

सबसे बड़ी चिंता यह है कि यह कुर्सी की लड़ाई सीधे राज्य के जनहित को प्रभावित कर रही है। कर्नाटक, आईटी और स्टार्टअप निवेश का केंद्र होने के बावजूद इस समय कई चुनौतियों का सामना कर रहा है-कृषि संकट, बेरोजगारी, बेंगलुरु की बुनियादी समस्याएँ, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सुधार की जरूरत। जनता इन मुद्दों पर केंद्रित, स्थिर और सहयोगी नेतृत्व चाहती है। लेकिन सरकार की ऊर्जा आंतरिक संघर्षों में खर्च हो रही है। विभागीय समन्वय कमजोर पड़ रहा है और अफसरशाही भी नेतृत्व की अनिश्चितता से उलझन में है।

ऐसा नहीं है कि गठबंधन या बहुदलीय लोकतंत्र में नेतृत्व विवाद असामान्य हैं। लेकिन जिम्मेदार दल वे हैं जो मतभेदों को संस्थागत संवाद, समयबद्ध निर्णय और स्पष्ट शक्ति-संतुलन के माध्यम से हल करते हैं। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार को भी यही करना होगा।

सिद्धारमैया और डी. के. शिवकुमार, दोनों ही अपने-अपने ढंग से प्रभावशाली नेता हैं। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा राजनीति का स्वाभाविक तत्व है, लेकिन जब यह शासन को प्रभावित करने लगे, तब उसे रोकना और नियंत्रित करना पार्टी नेतृत्व की जिम्मेदारी बन जाती है। कर्नाटक के मतदाताओं ने कांग्रेस को इसलिए वोट दिया था कि वह स्थिरता, सामाजिक न्याय और विकास का वादा पूरा करे। यदि सरकार आंतरिक खींचतान में उलझी रहती है, तो इसका राजनीतिक नुकसान केवल कांग्रेस को ही नहीं होगा, बल्कि पूरे राज्य की विकास यात्रा को भी प्रभावित करेगा।

कर्नाटक को ‘दो केंद्रों वाली राजनीति’ नहीं, बल्कि एकजुट और भरोसेमंद शासन की आवश्यकता है। यह समय सिद्धारमैया और डी. के. शिवकुमार-दोनों के लिए आत्ममंथन का है-कुर्सी की लड़ाई से ऊपर उठकर सहयोग का रास्ता चुनने का। अगर वे ऐसा नहीं करते, तो सबसे बड़ा घाटा कर्नाटक की जनता को होगा, और यह किसी भी राजनीतिक दल के लिए सबसे बड़ी विफलता होगी।

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