आतंकवाद के आगे बेबस यूरोप, भारत से ले सबक

बलबीर पुंज

Update: 2025-12-24 04:56 GMT

सभी पाठकों को क्रिसमस की असीम शुभकामनाएँ। यह उत्सव अब किसी एक मजहब तक सीमित नहीं रहा है। चाहे ईसाई हों या गैर-ईसाई, सब इस पर्व का हिस्सा बनते हैं। लेकिन मेरा आज का कॉलम न तो मजहबी आस्था-सिद्धांतों पर केंद्रित है और न ही इस वैश्विक उत्सव की उत्पत्ति पर असहज प्रश्न उठाने के लिए लिखा गया है। यह लेख फ्रांस सहित कई यूरोपीय देशों में घट रही उन चिंताजनक घटनाओं पर आधारित है, जो पूरी दुनिया के लिए एक गंभीर चेतावनी हैं।

पेरिस, जो दशकों से प्रेम, भीड़ और बेफिक्र आनंद का प्रतीक रहा है, उसकी चमक फीकी पड़ती जा रही है। इस नववर्ष की पूर्वसंध्या पर प्रसिद्ध चैंप्स-एलिसीज़ पर कोई सार्वजनिक आयोजन नहीं होगा। पिछले साठ वर्षों से आधी रात को उमड़ने वाली भीड़ की जगह टीवी पर पहले से रिकॉर्ड किए गए कार्यक्रम का प्रसारण होगा, जिसका आनंद लोग अपने घरों में सुरक्षित रहते हुए उठाएँगे। गत वर्ष इस संगीत समारोह में करीब दस लाख लोग जुटे थे।

फ्रांसीसी मीडिया द्वारा उद्धृत एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के अनुसार, बीते नववर्ष पर आप्रवासी उपद्रवियों ने जिस तरह एक हजार गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया था, जिसके आरोप में 420 लोगों को हिरासत में लिया गया था, वैसी ही अराजकता की आशंका इस बार भी है।

इसी तरह जर्मनी के दूसरे सबसे बड़े सार्वजनिक प्रसारणकर्ता जेडडीएफ के अनुसार, देश में क्रिसमस पर लगने वाले बाजारों में आयोजक अतिरिक्त सुरक्षा बढ़ा रहे हैं और जो समूह आतंकवाद-रोधी नियमों की अवहेलना कर रहे हैं, उनका पंजीकरण तत्काल प्रभाव से रद्द किया जा रहा है।

ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में भी नववर्ष की आतिशबाजी का कार्यक्रम बॉन्डी बीच पर हुए भीषण आतंकवादी हमले के बाद रद्द कर दिया गया, जिसमें 15 निर्दोष लोगों की जान चली गई थी।

प्रश्न उठता है कि यूरोप में क्रिसमस और नववर्ष के आयोजन सीमित या रद्द क्यों किए जा रहे हैं? आखिर भय का माहौल कौन बना रहा है? फ्रांसीसी मीडिया में मॉनिटर इंस्टीट्यूट के आप्रवासन विशेषज्ञ डेनियल डी मार्टिनो के हवाले से कहा गया है,“स्पष्ट है कि यह यूरोप में बिना समुचित जाँच के बड़े पैमाने पर हुए मुस्लिम प्रवासन का परिणाम है।”

यह घटनाक्रम एक ऐसे गहरे संकट को उजागर करता है, जिसमें तथाकथित ‘उदार समाज’ स्वयं ही अपने विनाश की पटकथा लिख रहा है। भारत इस कड़वे अनुभव का साक्षी रहा है। अपने कई पूर्ववर्ती लेखों में मैंने भारत के इस्लाम से सदियों पुराने संपर्क, देश के रक्तरंजित विभाजन और पाकिस्तान-बांग्लादेश से मिली चुनौतियों का विस्तार से उल्लेख किया है।

संक्षेप में कहें तो भारतीय अनुभव यह स्थापित करता है कि आतंकवाद और मजहबी कट्टरता के सामने झुकने से स्थायी शांति नहीं मिलती, बल्कि इससे उनकी हिंसा की भूख और बढ़ जाती है। दुर्भाग्य से, और शायद भारी कीमत चुकाकर, देर-सवेर फ्रांस और शेष यूरोप को भी यह सबक सीखना पड़ेगा।

फ्रांस में वर्तमान में मुस्लिम आबादी लगभग 70 लाख है (अधिकांश शरणार्थी हैं), जो कुल जनसंख्या का लगभग 10 प्रतिशत है। इतिहास साक्षी है कि जब मुसलमान नए क्षेत्रों में आक्रामक, ‘अतिथि’, प्रवासी या शरणार्थी के रूप में आते हैं, तो समय के साथ उनका एक वर्ग मेजबान समाज को अपनी मजहबी अवधारणाओं के अनुरूप बदलने की कोशिश करता है। वे स्थानीय संस्कृति, पारंपरिक सामाजिक मानदंडों और उदार मानवाधिकारों का विरोध करते हैं। कई अवसरों पर शरीयत को सर्वोपरि ढाँचे के रूप में स्थापित करने के प्रयास भी किए जाते हैं। यूरोप के कई देशों में ऐसा ही परिदृश्य देखने को मिल रहा है।

ब्रिटेन का रोदरहैम कांड, जिसे ‘ग्रूमिंग गैंग स्कैंडल’ के नाम से जाना जाता है, इसी संस्थागत विफलता का भयावह रूप है। इसमें प्रवासी मुस्लिमों ने 1500 से अधिक गैर-मुस्लिम लड़कियों (अधिकांश श्वेत) को यौन उत्पीड़न का शिकार बनाया।

फ्रांस सहित कई यूरोपीय देश लंबे समय से इस्लामी आतंकवाद का सामना कर रहे हैं। मई 2014 में सीरिया से आए फ्रांसीसी जिहादी मेहदी नेमूश ने ब्रुसेल्स के यहूदी संग्रहालय में चार लोगों की हत्या कर दी। जनवरी 2015 में शरीफ और सईद जिहादियों ने पेरिस में चार्ली हेब्दो कार्यालय पर हमला कर 12 लोगों की जान ले ली। सबसे घातक हमला 13 नवंबर 2015 को हुआ, जब अब्देलहमीद और सलाह सहित आतंकियों ने पेरिस में एक साथ गोलीबारी और विस्फोट कर 130 निर्दोषों की हत्या कर दी।

14 जुलाई 2016 को मोहम्मद लाहौऐज-बुहलेल ने नीस में ट्रक से कुचलकर 86 लोगों को मार डाला। 16 अक्टूबर 2020 को पेरिस में एक 18 वर्षीय शरणार्थी ने एक शिक्षक की गला रेतकर हत्या कर दी। ऐसी जिहादी घटनाओं की एक लंबी सूची है, जो केवल फ्रांस तक सीमित नहीं है।

जर्मनी के मैगडेबर्ग में सऊदी मूल के डॉक्टर तालिब अब्दुल ने क्रिसमस पर खरीदारी कर रही भीड़ पर अपनी बीएमडब्ल्यू चढ़ा दी। इस हमले में पाँच लोगों (एक बच्चे सहित) की मौत हुई और करीब 200 लोग घायल हुए। इसी वर्ष 2 अक्टूबर को ब्रिटिश नागरिक जिहाद अल-शाबी ने हीटन पार्क सिनेगॉग के पास पैदल चल रहे लोगों पर गाड़ी चढ़ाई और एक व्यक्ति को चाकू मार दिया, जिसमें दो लोगों की मौत हो गई।

तीन वर्ष पहले ब्रिटेन के लेस्टर और बर्मिंघम में स्थानीय मुस्लिम समूहों ने हिंदू घरों और मंदिरों पर योजनाबद्ध हमले किए थे। यह मजहबी हिंसा यूरोप तक सीमित नहीं है; अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया भी इसकी कीमत चुका रहे हैं।

इस पृष्ठभूमि में पेरिस प्रशासन द्वारा अपने पारंपरिक आयोजनों से समझौता करना जिहादियों के सामने घुटने टेकने जैसा है। इस्लाम के नाम पर बार-बार आतंकवाद क्यों होता है? इस प्रश्न पर जिहादियों के समर्थक आमतौर पर दो तर्क देते हैं—पहला, पश्चिमी नीतियाँ; दूसरा, कथित अन्याय का प्रतिशोध। लेकिन ये दोनों तर्क तथ्यों की कसौटी पर खरे नहीं उतरते।

सच यह है कि इस्लामी आतंकवाद की जड़ें उस विकृत मानसिकता में हैं, जिसमें इसे मजहबी वैधता प्राप्त होने का दावा किया जाता है। जब भी इस पर ईमानदार चर्चा होती है, उसे ‘इस्लामोफोबिया’ कहकर खारिज कर दिया जाता है। ऐसे पूर्वाग्रह-ग्रस्त माहौल में क्या आतंकवाद से लड़ने का कोई भी प्रयास सफल हो सकता है?

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