NDA में पेशवा बाजीराव की प्रतिमा: बड़े-बड़े साम्राज्यों को झुकाने वाला योद्धा, कुशल रणनीतिकार

Peshwa Bajirao statue: केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने शुक्रवार (4 जुलाई, 2025) को महाराष्ट्र के पुणे स्थित NDA (राष्ट्रीय रक्षा अकादमी) के परिसर में बाजीराव प्रथम की प्रतिमा का अनावरण किया।

Update: 2025-07-04 14:26 GMT

Peshwa Bajirao statue: केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने शुक्रवार (4 जुलाई, 2025) को महाराष्ट्र के पुणे स्थित NDA (राष्ट्रीय रक्षा अकादमी) के परिसर में बाजीराव प्रथम की प्रतिमा का अनावरण किया। जैसा कि आजकल एक चलन सा बन गया है, इसे लेकर भी राजनीतिक वाद-विवाद शुरू हो गया। महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी महाराज और पेशवा बाजीराव से लेकर ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, बाल गंगाधर तिलक, वीर विनायक दामोदर सावरकर और बाबासाहब डॉ भीमराव आंबेडकर जैसी ऐतिहासिक हस्तियाँ आज आइकन हैं। इन सबके नाम पर राजनीति भी खूब की जाती है। इनके समर्थकों व आलोचकों के अपने-अपने समूह हैं।

प्रतिमा अनावरण से पहले ही पुणे रेलवे स्टेशन का नाम भी पेशवा बाजीराव के नाम पर रखने की माँग भी ज़ोर पकड़ चुकी थी। भाजपा की राज्यसभा सांसद मेधा कुलकर्णी ने भी ये माँग रखी। पुणे रेलवे स्टेशन के बाहर कुछ संगठनों ने इस माँग के खिलाफ विरोध प्रदर्शन भी किया। NCP (SP) के मुखिया शरद पवार ने कह दिया कि मेधा कुलकर्णी अपने वरिष्ठों के आदेश का पालन कर रही हैं। स्टेशन का नाम छत्रपति शिवाजी महाराज की माँ जीजाबाई या समाज सुधारक सावित्रीबाई फुले के नाम पर रखने की माँग की गई। कुल मिलाकर देखें तो अब पेशवा बाजीराव के चेहरे के इर्दगिर्द विवाद खड़ा करने की कोशिश हो रही है।

हमने ये भी देखा है कि कैसे 'बाजीराव मस्तानी' (2015) फिल्म के जरिए एक सफल योद्धा को सनकी आशिक के रूप में आज की पीढ़ी के दिल-ओ-दिमाग़ में स्थापित कर दिया गया। यही कारण है कि जब बजीराव की बात आती है तो स्वतः ही मन एवं मस्तिष्क में मस्तानी के साथ उनकी प्रेम कहानी आने लगती है। उनकी राजनीति, कूटनीति व युद्धनीति के विवरण न तो फिल्मों में दिखाए गए और न ही वे हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा रहे। अधिकतर भारतीय महापुरुषों को लेकर कुछ ऐसा ही कुचक्र रचा गया।

पिता से विरासत में मिला रणनीतिक कौशल

बाजीराव के पिता बालाजी विश्वनाथ भट्ट को नवंबर 1713 में मराठा साम्राज्य के पेशवा के रूप में नियुक्त किया गया था। अप्रैल 1720 में अपने निधन तक वो इस पद पर रहे। उनकी प्रोन्नति अचानक नहीं हुई थी। असल में छत्रपति शिवाजी महाराज के निधन के बाद का समय काफी उथल-पुथल भरा था। राजस्व एक ऐसे क्षेत्र में वसूला जाना था, जो लगातार युद्ध की चपेट में था। एक ऐसा समझदार व्यक्ति चाहिए था जो स्थानीय किसानों एवं कारोबारियों से भी समन्वय बनाकर रखे और मुगलों से भी लोहा ले सके। ऐसे में बालाजी विश्वनाथ का उदय हुआ।

पहले वो पुणे के सभासद बने, फिर 'सर सूबेदार' के रूप में कार्यरत रहे, धनाजी जाधव के साथ सिंहगढ़ की रक्षा की, फिर दौलताबाद के 'सर सूबेदार' बने, तत्पश्चात सेनापति के दीवान बने, उसके बाद 'सेनाकर्ते' के रूप में प्रोन्नत किए गए। संकट की स्थिति में वो छत्रपति शाहूजी महाराज की भी लगातार सहायता करते रहे, जिस कारण राजा का भी उनपर विश्वास रहा। भट्ट के निधन के बाद उनके बेटे बाजीराव प्रथम को पेशवा नियुक्त किया गया। कूटनीति एवं युद्धनीति में पिता से प्रशिक्षित बाजीराव ने मैसूर और आर्कोट के शासकों को मराठा राज्य को चौथ व सरदेशमुखी देने के लिए मजबूर किया।

निजाम को झुकाया, सिद्दियों की शक्ति नष्ट की

ये पेशवा बाजीराव की रणनीतियों का कमाल ही था कि हैदराबाद का निजाम भी मराठों के सामने झुकने को विवश हुआ। मार्च 1728 में निजाम के साथ हुए हुए मुंगी शेवगाँव के समझौते में मराठों को डेक्कन के 6 सूबों से चौथ व सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार हासिल हुआ। निजाम ने शाहूजी को मराठा साम्राज्य का राजा स्वीकार किया। ये कैसे संभव हुआ, ये अपने-आप में सैन्य क्षेत्र में जाने वाले छात्रों के लिए अध्ययन व सीखने का विषय है। पेशवा बाजीराव ने निजाम को मराठा क्षेत्र में भीतर घुसने दिया और फिर उसकी रसद आपूर्ति को ध्वस्त कर दिया। मजबूरी में वहाँ फँसे निजाम को समझौता करना पड़ा।

अप्रैल 1731 में डभोई के युद्ध के जरिए उन्होंने गुजरात पर नियंत्रण स्थापित किया। अफ्रीका से पूर्वी तटों से आए सिद्दियों को मराठाओं के अधीनस्थ आने को मज़बूर किया। समुद्र में उनकी शक्ति क्षीण कर दी। अपने जीवन के अंतिम ढाई दशक डेक्कन में बिताकर भी मराठों को हराने में असफल रहने वाले औरंगजेब को शायद अंदाजा नहीं था कि उसकी मौत के बाद पेशवा बाजीराव के नेतृत्व में मराठा शक्ति उत्तर भारत में दस्तक देगी। बुंदेलखंड के छत्रसाल तबतक बूढ़े हो चुके थे। मुगल सरदार बंगश खान उन्हें लगातार परेशान कर रहा था। जब उनके पास कोई रास्ता नहीं बचा तो उन्होंने बाजीराव को बुलावा भेजा। जैतपुर में डेरा डाले बंगश खान को बाजीराव ने ऐसा घेरा कि उसे माफी माँगने को मजबूर होना पड़ा।

दिल्ली तक लहराया ‘स्वराज’ का परचम

महाराज छत्रसाल के लिए बाजीराव बेटे की तरह हो गए। उन्होंने कई जागीर उन्हें उपहार के रूप में दिए। मुगलों का बुंदेलखंड से नियंत्रण समाप्त हो गया। दिल्ली को काबू में रखने के लिए बाजीराव के पास एक अच्छा- ख़ासा क्षेत्र आ गया। पेशवा बाजीराव की सवारी सन् 1737 में दिल्ली पहुँची। मुगल दरबार में हड़कंप मच गया। बड़ी चालाकी से उन्होंने अपने साजोसामान वापस भिजवाकर मुगलों को धोखे में रखा। मुगलों को लगा कि पेशवा डरकर लौट गए हैं। इससे पहले कि उनका जश्न पूरा हो पाता, जाट और मेवात क्षेत्रों से होकर पेशवा दिल्ली में दस्तक दे चुके थे।

दिल्ली को तबाह करने का उनका कोई इरादा नहीं था। वो मुगलों को स्वराज की शक्ति दिखाना चाहते थे। इससे पहले कि मुगल सरदार हरकत में आते, पेशवा रेवाड़ी पहुँच चुके थे। पेशवा बाजीराव बिना लड़े युद्ध जीतने के लिए भी जाने जाते थे। दिल्ली से लौटकर उन्होंने भोपाल में डेरा डाला। वहाँ उनकी लड़ाई निजाम, मुगल, कोटा और अवध - 4 बड़ी ताकतों से थी। निजाम वहाँ के किले में घिर गया था। विरोधी फौजी भोजन तक के लिए तरस गए, उनके जानवरों तक के लिए चारा दुर्लभ हो गया। ये बाजीराव की रणनीतियों का कमाल था। आखिरकार समझौता हुआ और मराठों को पूरा मालवा मिला। नर्मदा से चंबल के बीच का पूरा क्षेत्र उनका हुआ। युद्ध के खर्च के रूप में मुगलों को 50 लाख रुपए भी देने पड़े। पेशवा ने इस युद्ध में मुगलों और निजाम का साथ देने वाले कुरवाई और कोटा के शासकों को भी सबक सिखाया। दोनों भाग खड़े हुए।

आज सबसे अधिक प्रासंगिक हैं पेशवा बाजीराव

स्वराज की नींव के ऊपर एक भव्य इमारत तैयार करने का श्रेय जिन पेशवा बाजीराव को जाता है, अगर उनकी प्रतिमा NDA परिसर में लग रही है तो इससे किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यहाँ से प्रशिक्षित होकर जवान तीनों सेनाओं में भर्ती होते हैं। पेशवा बाजीराव प्रथम द्वारा लड़े गए युद्धों के बारे में अगर वो जानेंगे, तो इससे न केवल उनके करियर में फायदा होगा बल्कि इस बुद्धिमत्ता का वो जब वो इस्तेमाल करेंगे तो इससे देश भी लाभान्वित होगा। अपनी सेना को थकाए बिना बड़े से बड़ा युद्ध जीत लेना, पेशवा बाजीराव की ये विशेषता आज छद्मयुद्ध के युग में सबसे अधिक प्रासंगिक है।

अगर 'बाजीराव मस्तानी' में पेशवा बाजीराव को एक 'आशिक' के रूप में दिखाने की बजाए उनकी वीरता और रणनीतिक कुशलता पर ध्यान केंद्रित किया होता, तो आज इतना कुछ नहीं बताना पड़ता। जिस तरह छत्रपति शिवाजी महाराज पूज्य हैं, उसी तरह पेशवा बाजीराव भी सम्मान के पात्र हैं। इन महापुरुषों के नाम पर समाज को आपस में लड़ाने वाली ताकतों को हराने के लिए जरूरी है कि आज की पीढ़ी इनके बारे में अधिक से अधिक पढ़े। प्रपंच के बाणों को ज्ञान रूपी ढालों से ही रोका जा सकता है।

लेखक परिचय: अनुपम K सिंह OpIndia में एसोसिएट एडिटर व रिसर्च हेड हैं। इससे पहले वो TFI मीडिया के संपादक रहे हैं। उन्हें उत्कृष्ट पत्रकारिता के लिए ’देवर्षि नारद’ सम्मान प्राप्त हो चुका है।

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