सिने संगीत आस्वाद : गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है

शशांक दुबे

Update: 2025-10-01 01:30 GMT

 रेल से इंसान का रिश्ता सदैव रूमानी रहा है। जब इसकी आवाजाही चंद पटरियों तक सीमित थी, तब इससे अनभिज्ञ ग्रामीण जनता पर रेल को ले-लेकर नए चुट्कुले गढ़े जाते थे और जब इसकी पहुँच बहुत व्यापक हो गई, तो मुसाफिरों के किस्से रस ले-लेकर कहे जाने लगे। कहानी, कविता और उपन्यास जैसे सृजन के लिखित माध्यमों से लगाकर लोक गीतों और लोक कथाओं सरीखे स्मृति-आधारित माध्यमों में जब कभी रेल का प्रयोग हुआ है, इसने प्रेक्षक के अन्तर्मन को छुआ है। अब जब रेल हमारे जीवन में इस कदर छाई हुई हो, तो इसे अपनाने में हमारा सिनेमा कैसे पीछे रहे? चाहे चालीस के दशक में नैरो गेज़ पटरी पर चल रही रेल में बैठे-बैठे पंकज मलिक द्वारा गया ‘आई बहार’ (डॉक्टर) हो या पचास के दशक में सुरैया और तलत द्वारा गाया और उन्हीं पर फिल्माया फ़िल्म `वारिस’ का ‘राही मतवाले, तू छेड़ इक बार मन का सितार’; चाहे कवि प्रदीप की तीखी आवाज़ में देशभक्ति का पाठ पढ़ाता ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की’ (जागृति) हो या देव आनंद द्वारा माउथ ऑर्गन बजाते हुए ‘है अपना दिल तो आवारा, न जाने किस पे आएगा?’ (बात एक रात की) की मस्ती हो, रेल पर फिल्माया हर गीत दर्शकों पर विशेष छाप छोडता रहा है।

`जब प्यार किसी से होता है’ में जिस रेलगाड़ी में मिकी माऊस आशा पारेख सफर कर रही होती हैं, उसी के समानान्तर अपनी जीप दौड़ाते हुए देव आनंद ‘जिया हो, जिया हो जिया कुछ बोल दो’ गाने लगते हैं। इसी दृश्य की फोटोस्टेट मारते हुए जब राजेश खन्ना ‘मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू’ गाते हैं, तो फिल्माकाश पर एक नए सितारे का उदय हो जाता है। और ‘छुक-छुक छुक-छुक रेलगाड़ी’ (आशीर्वाद) में दादामुनी की हांफनी का तो कहना ही क्या! यूँ रेल पर फिल्माए गीतों में ‘धन्नो की आँखों में’ (किताब) और ‘चल छैयां छैयां छैयां’ (दिल से) सरीखे प्रयोग भी हैं और ‘चील चील चील चिल्ला के कजरी सुनाए’(हाफ टिकट) सरीखा लड़कपन भी। रेल ने सिनेमा में कितना माधुर्य बिखेरा है, यह जानना हो तो कभी रात में `काला बाज़ार’ का गीत ‘अपनी तो हर आह इक तूफान है’ सुन लीजिए, गीत के दरमियाँ बजनेवाली भाप के इंजिन की सीटी हमें मेलोडी के एक ऐसे अतीन्द्रीय लोक में ले जाती है, जहाँ से तुरत लौटने की कतई इच्छा नहीं होती।

रेल पर फ़िल्माए इन तमाम गीतों के समूह में `दोस्त’ का ‘गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है’ बिलकुल अलहदा है। ज़िंदगी के फलसफे को बड़ी सरलता से बयां करने वाले छः अंतरे के इस गीत में जितना चमत्कार आनंद बक्शी ने अपनी कलम से किया है, उससे कई गुना लक्ष्मी-प्यारे ने अपने संगीत से। गाने की शुरुआत चर्च के घंटे और कोयले के इंजिन की छुक-छुक से होती है और फिर सीटी, माउथ ऑर्गन, और सामूहिक वायलिन की ध्वनियाँ मेलडी की ऐसी अलौकिक रचना करती है कि सामान्य संगीतप्रेमी श्रोता के भी रोंगटे खड़े हो जाएं। संभवतः यह फिल्म संगीत के इतिहास के उन बिरले गीतों में से एक है, जिनमें ताल का काम रेल की छुक-छुक और कोंगों की युगलबंदी से किया गया है।

कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद मानव (धर्मेन्द्र) फादर फ्रांसिस (अभि भट्टाचार्य) के पास वापस लौट रहा है। पहाड़ों का सीना चीरती हुई रेल सरपट भाग रही है और वह खिड़की से सर टिकाए फादर की चिट्ठी पढ़ रहा है। सीटी बजती है, रेल की रफ्तार थोड़ी और तेज़ होती है और शुरू हो जाती है मानव की नई जीवन यात्रा:

गाड़ी बुला रही है सीटी बजा रही है

चलना ही ज़िंदगी है, चलती ही जा रही है

देखो वो रेल, बच्चों का खेल, सीखो सबक जवानों

सर पे है बोझ, सीने में आग, लब पे धुआँ है जानो

फिर भी ये गा रही है, नगमें सुना रही है

गाड़ी बुला रही है सीटी बजा रही है

अचानक मौसम खुशगवार हो उठता है। पहले रिमझिम और फिर मूसलाधार बारिश शुरू हो जाती है। फिज़ाओं में ठंडक, उमंग और उत्फुल्लता पसर जाती है। मानव दरवाज़े से लटक कर नज़ारा देखने लगता है:

आगे तूफान, पीछे बरसात, ऊपर गगन से बिजली

सोचे ना बात, दिन हो के रात, सिग्नल हुआ के निकली

देखो वो आ रही है, देखो वो जा रही है

गाड़ी बुला रही है सीटी बजा रही है

तारादेवी स्टेशन उतरकर मानव सीधे ही चर्च की ओर दौड़ लगाता है। लेकिन पादरी के भेष में फादर फ्रांसिस के बदले फादर रिबेलो (सत्येन कप्पू) को देख चौंक पड़ता है। रिबेलो उसे बताते हैं कि फादर फ्रांसिस का निधन तो एक साल पहले हो गया था, लेकिन उसकी पढ़ाई में व्यतिक्रम न आए, इसके लिए उन्होंने न सिर्फ यह ख़बर छिपा कर रखी, बल्कि फादर द्वारा पहले से ही उसके नाम लिखे गए खतों को हर हफ्ते भेजते रहे। व्यथित मन से मानव फादर की कब्र पर पहुँचकर शॉल चढ़ाता है:

आते हैं लोग, जाते हैं लोग, पानी में जैसे रेले

जाने के बाद आते हैं याद, गुज़रे हुए वो मेले

यादें मिटा रही है, यादें बना रही है

गाड़ी बुला रही है सीटी बजा रही है

दुनिया से विदा लेने से पहले फादर मानव के नाम एक बक्सा छोड़ जाते हैं, जिसमें ज्ञान और शिक्षा की ढेरों किताबें भरी होती हैं। मानव के सामने बचपन के वे दृश्य एक बार फिर कोलाज़ के रूप में उभर कर आते हैं, जब फादर ने उसे गोद में उठाकर जीवन गीत सिखाया था, उसे अंगुली पकड़कर चलना सिखाया था, पढ़ना सिखाया था, जीना सिखाया था:

गाड़ी को देख, कैसी है नेक, अच्छा बुरा ना देखे

सब हैं सवार, दुश्मन के यार, सबको चली ये लेके

जीना सीखा रही है, मरना सीखा रही है

गाड़ी बुला रही है सीटी बजा रही है

फादर की दी हुई शिक्षा और बक्से को सम्हालकर मानव जीवन का नया सफर शुरू करता है। उसके रेल में सवार होते समय पास ही खड़ा चोर गोपी (शत्रुध्न सिन्हा) बक्सा देख लेता है। वह बक्सा पार कर लेता है, लेकिन जैसे ही बक्से में किताबें देखता है, अपना सर पटक लेता है। जब उसे पता चलता है कि मानव बेरोजगार है और नौकरी की तलाश में बंबई (अब मुंबई) जा रहा है, तो वह उसे अपने पास ठहरने का ऑफर देता है। मानव इस उम्मीद से यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेता है कि हो सकता है उसके साथ रहकर गोपी सुधर जाए, दूसरी ओर गोपी यह सोचकर उसको अपने साथ ले जाता है कि यदि इतना हट्टा कट्ठा आदमी उसके दल में शामिल हो जाएगा तो उसके वारे-न्यारे हो जाएंगे। मानव गोपी के घर की बालकनी से खड़े-खड़े दूर गुजरती रेल को देखता है:

सुन ये पैगाम, ये है संग्राम, जीवन नहीं है सपना

दरिया को फाँद, पर्वत को चीर, काम है ये उसका अपना

नींदें उड़ा रही है, जागो जगा रही है

गाड़ी बुला रही है सीटी बजा रही है

गोपी मानव के सामने शर्त लगता है कि वे दोनों पंद्रह दिन तक नौकरी तलाशेंगे। यदि दोनों में से एक को मिल गई, तो गोपी हमेशा के लिए सच्चाई के रास्ते पर चलेगा, यदि किसी को भी नौकरी नहीं मिली, तो मानव को भी गोपी के ही रास्ते पर चलना होगा। पहले तो मानव मना करता है, लेकिन जब गोपी कहता है कि क्या तुम्हें अपने भगवान पर इतना भी भरोसा नहीं तो वह शर्त स्वीकार कर लेता है। एक दिन, दो दिन, तीन दिन। धीमे-धीमे चौदह दिन बीत जाते हैं। शर्त का आखिरी दिन होता है, दोनों अपने-अपने भगवान से अपनी-अपनी मुरादें मांगते हैं। शाम को मानव खाली हाथ लौटता है। गोपी कहता है, ‘क्यूँ हार गए शर्त! अब चलो जहां मैं कहता हूँ।’ मानव अनुरोध करता है, ‘आज की रात माफ कर दो गोपी, कल जिस नर्क में कहोगे चला चलूँगा।’ आधी रात को जैसे ही गोपी की नींद खुलती है, वह मानव को बिस्तर से गायब पाता है। तभी उसे रेल की ओर दौड़ती एक आकृति दिखाई देती है और वह उधर ही सरपट दौड़ लगा देता है। रेल के सामने पहुँचते ही मानव को महसूस होता है कि फादर हाथ में केंडल थामे यह गुनगुना रहे हैं:

गाड़ी का नाम, ना कर बदनाम, पटड़ी (पटरी) पे सर के रख को

हिम्मत ना हार, कर इंतज़ार, आ लौट जाएँ घर को

ये रात जा रही है, वो सुबहा आ रही है

गाड़ी बुला रही है सीटी बजा रही है

वह आत्महत्या का इरादा त्याग देता है। गोपी कहता है, ‘दोस्त, आज मैंने जाना कि तुम्हारे लिए सच्चाई के रास्ते को छोडकर चलना मौत के समान है। मैं जीता नहीं, हार गया दोस्त। वादा करता हूँ, आज के बाद हमेशा सच्चाई के रास्ते पर ही चलूँगा।’ इसी के साथ फ़िल्म का प्रेरक, मानवीय, भावनात्मक अंश समाप्त होता है। आज अपने प्रदर्शन के 51 वर्ष बाद भी यह फिल्म याद की जाती है तो सिर्फ इस गीत की वजह से, जिसमें अलौकिक संगीत के संग जीवन का संदेश छुपा हुआ है।

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