अयोध्या: शहरीकरण और जातीयता लील रही है गांव की सभ्यता और इलाकाई पहचान को

अब ये जनपद अपने विस्तार के साथ स्वयं और गांवों की पहचान को लील रहे हैं।

Update: 2021-04-11 11:27 GMT

अयोध्या (ओम प्रकाश सिंह): अधाधुंध शहरीकरण और जातीयता का ज्वार गांवों की सभ्यता और इलाकाई पहचान को लील रहा है। गांवों का सामाजिक तानाबाना छिन्न भिन्न हो रहा है। हर चार कदम पर एक नई कालोनी के नामकरण का बोर्ड टंगा दिखाई पड़ जाएगा। पाश कालोनियों का नामकरण भी पेशागत हो रहा है। गांव के टोलों के साथ शख्श भी सामाजिकता से बंटे दिखाई पड़ रहे हैं।



कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वानी जैसी पहचान वाला देश भारत सिर्फ इन भाषाओं को ही नहीं खो रहा है, बल्कि इनके साथ जुड़ी अपनी पहचान से भी दूर होता जा रहा है। भारत के ज्ञात इतिहास में जनपद शायद सबसे पुरानी लेकिन व्यवस्थित शासन व्यवस्थाओं में से एक रहे हैं।



जनपद इस मामले में भी अनूठे हैं कि यह प्रशासनिक इकाई आज के समय में भी कायम है। बीते समय में जनपदों का महा हो जाना उनकी व्यापकता और विराटता का परिचय था, और आज जनपदीय संरचनाएं लोकतान्त्रिक शासन की धमनियां हैं।

अब ये जनपद अपने विस्तार के साथ स्वयं और गांवों की पहचान को लील रहे हैं। शहरों से निकले गंदे नाले, नदियों को प्रदूषित कर रहे हैं तो संस्कृति गांवों की आबोहवा को दूषित कर रही है।शहरीकरण के विस्तार में गांव की जमीन पर बनने वाल मकानों की पहचान उस गांव से ना होकर नए नामकरण से हो रही है।



शहरों की पाश कालोनियों के नाम पेशागत भी पत्रकार कालोनी, जजेज कालोनी, आफिसर कालोनी आदि रखे गए हैं। यही नहीं शहरी विस्तार में जाति और नेताओं के नाम पर भी वर्मा कालोनी, यादवनगर, अंबेडकर कालोनी, मुलायम नगर आदि नामकरण हैं। जिसने भी जमीन खरीदकर पहले घर बनवा लिया वो अपने किसी परिजन या जाति के नाम का बोर्ड लगा दे रहा है। शहर की इस दूषित संस्कृति का दंश अब गांवों में सामाजिकता को डस रहा है।

गांवों की प्राचीन बसावट में लगभग सभी जातियों का बसेरा था। सम्पूर्ण ग्राम सभा का नाम यदि टोनिया बिहारीपुर था तो इसमें कुर्मीपुरवा, लोहरनपुरवा, पंडितपुरवा जैसे जातिय नामों के पुरवे होते थे। ये आज भी हैं लेकिन अब इनमें जातियता का दूसरा रुप सामने आ रहा है। इन गांवो में बसने वाली कुछ जातियों ने अपने टोलों का नामकरण अपनी जाति के नाम पर करना शुरू कर दिया है।

शहर में एक अजब सी उदासी, तिरस्कार व नैराश्य है। वहां चार बार डोरबेल बजाने पर दरवाजा खुलता है। यह गंवई प्रवृत्ति के व्यक्ति के लिए एकदम विपरीत है। गांव तो अपनी तरफ घूमने वाली एक-एक गाड़ियों और पथिकों का हिसाब रखता है। वह सबको उत्साह से ही देखता है। यह निरीक्षण व्यवहार का है, प्रवृत्ति का है, स्वरूप का है। दार्शनिक व्याख्या और सामाजिक अध्ययन का नहीं है।

स्थितियां ऐसी बन रही हैं कि ग्राम-सभ्यता के ढहने का उत्सव हर दिन कहीं न कहीं दिख जाता है। जो नगरीय सीमा में नहीं आये वह रो रहे हैं, तंत्र को कोस रहे हैं। उन्हें हर साल में सबको तालाब मुक्त, बागमुक्त, खेत खलिहान मुक्त, आंगन और दुआर मुक्त परिवेश चाहिए नगर चाहिए। लेकिन, याद रहना चाहिए कि मानवीय इतिहास में सभ्यताओं के नगरीय हो जाना ही उनके विनाश का कारण बना था। हमारे देवराज इंद्र भी पुरों को ध्वंस करने वाले पुरंदर हैं।

भारत तब तक भारत है जब तक वह ग्रामा-अभिरामा है। आज फिर दुविधा का कुरुक्षेत्र सजा है, केशव अर्जुन से कहते हैं कि आज जो तुम अपने बांधवों से सामने हथियार लेकर खड़े हो, यह तुम्हारे पुरखों के 'इन निर्णयों' का परिणाम है। आज जो तुम निर्णय लोगे, उसकी परिणतियां 'यह' होंगी। जो पूर्व के निर्णय हैं उन्हें तो भोगना है लेकिन वर्तमान पर हमारा अधिकार है। भावी संकट से बचने को आज खड़ा होना पड़ेगा। हमें गांवों के साथ खड़ा होना पड़ेगा।

गांव के आपसी सौहार्द भावना को बांटने वाली जातीयता की लकीर को और गाढ़ा कर दिया है पंचायत चुनाव और दिल्ली उत्तर प्रदेश की सियासत ने। उत्तर प्रदेश में हो रहे त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के प्रचार में प्रत्याशियों के वाहन के ब्रेक गांव में पहले वहीं लगते हैं जहां पर उनकी जाति के लोगों का बसेरा रहता है।

राजनीतिक दलों ने अधिकांश जिला पंचायत क्षेत्र में जातीय मतों का आंकलन करके ही प्रत्याशियों को उतारा है। गांवों में बोई जा रही जहर की इस खेती का खात्मा करना होगा। गांवों को जीवित करना होगा। भारतीयता को बचाना है तो लोक कलाओं के साथ धान के खेतों में रोपाई के गीत गाने होगें।

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