लाॅकडाउन के हिमायतियों स्वीडन से सीख लो

जनता और निरीह प्राणियों को तरसा-तरसा कर मत मारो, वर्ना भुगतोगे अपनी करनी का फल

Update: 2020-05-05 15:58 GMT

विजय कुमार गुप्ता

मथुरा। लाॅकडाउन के हिमायतियों को स्वीडन से सीख लेकर जनता और निरीह प्राणियों को तरसा-तरसा कर नहीं मारना चाहिये। कोरोना से बचाने के नाम पर लोगों के साथ जो क्रूरता हो रही है वह अत्यंत शर्मनाक है। यही नहीं इस समय न सिर्फ इन्सान अपितु निरीह पशुओं के साथ भूखे मारने के जो अन्याय अत्याचार हो रहे हैं, वह शर्मनाक ही नहीं अपितु जघन्य अपराध की श्रेणी में आते हैं।

स्वीडन में न लाॅकडाउन है और ना ही कोई खास बंदिश, इसके बावजूद कोरोना वहां शांत होकर चुपचाप बैठा है। सिर्फ लोग हल्का-फुल्का बचाव कर रहे हैं, जैसे मास्क पहनना और सामाजिक दूरी बनाऐ रखना वगैरा। स्वीडन के अलावा और भी कई देश इस प्रकार के हैं। मुख्य बात यह है कि वहां के वैज्ञानिकों का कथन है कि कोरोना के वैक्टीरीया धीरे-धीरे इंसानों में फैलेंगे तो उससे लोगों के शरीर के अंदर प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न होगी और धीरे-धीरे करके इसके विषाणु शरीर के अंदर अपना तालमेल बना लेंगे।

वैज्ञानिकों का तर्क बिल्कुल सही है। इस बात को पहले भी कई बार लिख चुका हूं। उदाहरण के लिए बताना चाहूंगा कि जब चेचक से बचाव के लिये टीके लगाऐ जाते हैं तो उनमें चेचक की बीमारी के जीवाणु होते हैं। जब यह जीवाणु विषाणु या वैक्टीरीया कुछ भी कह लो, खून में घुल मिल जाते हैं और शरीर में प्रतिरोधक क्षमता आ जाती है। यही स्थिति कुत्तों के काटने वाले रेबीज के इंजेक्शनों की है।

पुरानी कहावत को याद रखो कि जहर को जहर मारता है और लोहे को लोहा काटता है, लेकिन कौन समझाऐ लाॅकडाउन के हिमायती इन लोगों को जिनको घुट-घुट कर मरना थोड़े ही पड़ रहा है। यह तो मौज में है। यह तो निश्चित है कि अब जब यह महामारी आई है, तो बलिदान लेकर ही जायगी। पुरानी कहावत है कि गोबर गिरता है तो साथ में मिट्टी लेकर ही उठता है और जिसकी आई है उसे कोई माई का लाल नहीं रोक सकता। यह भी याद रखो कि जाको राखे सांइयां मार सके ना कोय। कुछ लोगों का बलिदान तो अवश्यम्भावी है लेकिन बाकी के पूरे समाज को जीते जी क्यों मारा जा रहा है। समाज तो समाज निरीह प्राणियों पर क्या गुजर रही है।

हम लोगों के घरों की अवैतनिक पहरेदारी करने वाले कुत्ते भूख के मारे बेहाल हो रहे हैं। रात में कभी-कभी इनके रोने की आवाज भी सुनाई दे जाती है। बंदरों की दुर्दशा देखी नहीं जा रही। यही स्थिति अन्य प्राणियों की हो रही है। यही स्थिति चलती रही तो क्या होगा। ये निरीह प्राणी भूख से तड़प-तड़प कर मरेंगे और उनकी लाशों की सड़न से और भी ज्यादा बीमारियां फैलेंगी।

इस त्रासदी के लिए जो लोग भी उत्तरदायी होंगे, वह सभी ईश्वर के दरबार में कठघरों में खड़े होकर अपनी करनी के लिए पछताऐंगे और दंड भुगतेंगे। चाहे केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें हो अथवा प्रशासनिक अधिकारी हों। भले ही मैं खुद ही क्यों न होऊं। सभी को अपनी-अपनी करनी का फल भुगतना ही पड़ेगा। करनी करे तो क्यों करें और करके क्यों पछताय, काम बिगारे आपनों और जग में होय हंसाय।

शराबियों को छूट देकर सरकार ने अपना धर्म निभाया

लाॅकडाउन की इस बेला में सरकार ने शराबियों को छूट देकर अपना सही धर्म निभाया है। भले ही खान-पान की आवश्यक वस्तुओं की दुकानों पर ताले पड़े हों। इसके लिए सरकार बधाई की पात्र है।

आखिर यह धर्मार्थ कार्य हो भी क्यों नहीं। मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, अधिकारियों यहां तक कि लोकतंत्र के चारों स्तम्भों में पियक्कड़ों की गहरी घुसपैठ जो ठहरी। इस सबके बाद शराब माफियाओं का दबाव अलग। इसके चलते शासन का झुकना लाजमी तो था ही। 

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