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पहले खांसी का छौंक फिर बचने की अपील

Update: 2020-04-08 03:36 GMT


रिपोर्टः- विजय कुमार गुप्ता

मथुरा। मोबाइल उठाकर कान में लगाते ही पहले खांसी का छौंक लगता है और फिर खांसी वालों से कम से कम एक मीटर दूर रहने की नसीहत दी जाती है, ऐसा क्यों? लोगों का कहना है कि शासन यह दोहरी नीति क्यों अपना रहा है? क्या कान में बगैर खांसी ठूंसे खांसी वालों से दूर रहने की अपील नहीं की जा सकती? कान में खांसी का तड़का लगाकर खांसी वालों से दूर रहने की अपील का यह तरीका एकदम गलत है। इसे तुरन्त बंद कर देना चाहिए।

कुछ लोग हसेंगे और तर्क देंगे कि भला कोई मोबाइल में होकर कोरोना के वायरस थोड़े ही आ जाएंगे? इससे क्या फर्क पड़ता है आदि-आदि। इस बात का उत्तर यह है कि कोई किसी को चांटा मार दे तो बहुत बुरा लगता है और आपस में दोनों की मारपीट होने लगती है और जब कोई फोन पर किसी को कहे कि तुझ में चाटा मार दूंगा तो क्या सुनने वाला सामान्य रहेगा? वह भी जवाब में उससे कुछ न कुछ कहेगा और लड़ाई झगड़े की शुरुआत हो जाएगी।

एक ओर तो हम लोग खांसी वालों से दूर भागते हैं और फोन उठाते ही जब खांसी की आवाज कान में घुसती है। तब एक बार तो सुनने वाला मन ही मन असहज सा हो जाता होगा। इसका दुष्प्रभाव कोरोना का संक्रमण बढ़ने पर पड़ता हो या न हो, लेकिन मानसिक रूप से जरूर पड़ता होगा। मानसिक प्रभाव ज्यादा प्रभावी होता है।

दूसरा उदाहरण यह है कि जब कोई व्यक्ति फोन पर सम्मानजनक शब्दों का प्रयोग करता है तब कितना अच्छा लगता है और जब अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करता है तब कितनीं गुस्सा दिमाग में चढ़ जाती है और ब्लड प्रेशर हाई होने लगता है। आप ही सोचिए क्या यह बात फोन वाली खांसी पर लागू नहीं होती होगी? कोरोना के नाम से ही लोग कितने भयभीत हो जाते हैं और खांसी का यह तरीका आग में घी का काम नहीं करता होगा क्या?

तीसरा उदाहरण यह है कि जब दो अंजलि जल से करोड़ों मील दूर सूर्यनारायण को शीतलता प्रदान करने की कल्पना हम करते हैं तो क्या कान की खांसी कोरोना को आमंत्रण नहीं देगी?

अब खांसी से हटकर एक और रोचक बात यह है कि पशु-पक्षियों पर अन्याय और अत्याचार करने वाला इंसान तो अपने-अपने घरों में कैद हो चुका है और पशु-पक्षी स्वच्छंद विचरण कर रहे हैं। इन्हें न कोरोना की चिंता है और न उनका ब्लड प्रेशर हाई हो रहा है। ईश्वर रूपी प्रकृति का कितना प्यारा न्याय है। ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान इंसान से कह रहा है कि लो बेटा अब अपने किए का फल भुगतो। और खाओ इन निरीह प्राणियों को मार मार कर, अभी क्या है अभी तो शुरुआत है। देखो आगे-आगे होता है क्या? करनी करे तो क्यों करे, करके क्यों पछताय, काम बिगाड़े आपनो जग में होय हसाए। निर्बल को न सताइये जाकी मोटी हाय, मरी खाल की श्वांस सौ सार भसम हो जाए।

कोरोना के खौफ के ऐसे ऐसे तमाशे हो रहे हैं जो बड़े रोचक हैं। पहले जब वायु प्रदूषण बड़ा भयंकर था तब तो हजारों में एक भी इंसान मास्क लगाए नहीं दिखाई देता था और अब जब वायु प्रदूषण बिल्कुल नहीं है तब ज्यादातर मुंह पर मुचीका सा बांधे फिर रहे हैं। मुंह पर मास्क मुचीका का जैसा लगता है। मुचीका गाय भैंसों के बच्चे (बछिया-बछड़ा, पड्डा-पड़िया) के मुंह पर बांधा जाता है ताकि वे अपनी माँ का दूध न पी सकें। वाह रे इंसान यह बेचारे तो अपनी मां के दो घूंट दूध को भी तरसें और तू भर भर गिलास गुटक।

यही नहीं घी-मक्खन तरह-तरह की मिठाई और पकवानों का मजा ले। थोड़े दिन बाद जब इनकी पांसने के लिए जरूरत नहीं पड़े तब बछड़ों और पड्डों का क्या होता है इसे सभी जानते हैं। धिक्कार है हम इंसानों को। इसी का फल भोग रहे हैं अब हम सभी। कहते हैं कि गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाता है, जो दिखाई दे रहा है।

अंत में एक और रोचक बात और बताना चाहूंगा जो विगत दिवस देखने को मिली, जब कुत्तों ने पुलिसवालों को बुरी तरह छकाया। हुआ यूं कि नवल नलकूप के पास कुछ लोग सड़क पर खड़े थे। पुलिस वाले डंडा लेकर उनके पीछे भागे। पुलिस को आता देख वे लोग रेलवे लाइन की ओर जाने वाले रास्ते से होकर पटरी पार कर गए और बाल्मीकियों की बस्ती में अपनी जान बचाकर भागे। पुलिस वाले भी उनके पीछे-पीछे बस्ती में घुस गए, बस फिर क्या था बस्ती के कई खतरनाक कुत्तों ने पुलिसवालों को घेर लिया और उन पर टूट पड़े। पुलिस वालों की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई और उन्होंने बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचाई।

यदि उनके हाथ में डंडा नहीं होता तो वह खतरनाक कुत्ते उनकी क्या गति करते, यह बताने की जरूरत नहीं। खिसियाऐ पुलिस वाले जब बच-बचाकर रेल की पटरी तक वापस पहुंच गए, तब उन्होंने पटरी के पास पड़ी गिट्टीयों को कुत्तों की तरफ फेंक कर अपनी खीज मिटानी चाही किंतु कुत्ते उनसे भी ज्यादा शातिर निकले। गिट्टी फेंक कर जब वे वापस जाने लगे तो फिर कुत्ते उन पर टूट पड़े और उन्हें मुख्य सड़क तक खदेड़ कर ही उनका पीछा छोड़ा।

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