वीर सावरकर – देश के नायक या...

गिरीश जोशी, संस्कृति अध्येता एवं अकादमिक प्रशासक

Update: 2022-05-28 00:45 GMT

देश में जब भी वीर सावरकर का नाम सामने आता है तो दो प्रकार के विमर्श हमें सावरकर के पक्ष और विपक्ष खड़े दिखाई देते हैं। एक लगातार यही कहता रहता है कि उन्होंने अंग्रेजों से क्षमा याचना की थी। ये पक्ष इसके आगे कुछ सोचना - समझना नही चाहता। दूसरा विमर्श उनके कट्टर हिंदुत्व वाली छवि को देखता है लेकिन ये पक्ष भी उसके आगे कुछ देख नही पाता। लेकिन क्या ये दोनों ही विमर्श सावरकर के जीवन के सभी पहलुओं को उजागर कर पाते हैं?

इन दोनों बातों से परे हट कर एक अलग दृष्टिकोण से सावरकर की ओर देखने का प्रयास करते हैं। सावरकर को क्रांतिसूर्य कहा जाता है। सावरकर ने स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वाले क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों को प्रेरणा की रोशनी से चमकाया। जिस समय देश के युवा को देश की स्वाधीनता के लिए अपना योगदान देने के लिए प्रेरित करने की बड़ी जरूरत थी तब सावरकर इंग्लैंड गए,वहाँ उच्च अध्ययन कर रहे भारतीय युवाओं को स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेने के लिए जागरूक और प्रेरित करने के अनेक काम शुरू किए। 1857 के स्वतंत्र संग्राम की अंग्रेजों ने छुपाई हुई हकीकत को सामने लाने के लिए बड़ी जोख़िम उठाकर उन्होने "1857 का स्वतन्त्रता संग्राम" पुस्तक लिखी।

ये पुस्तक साहित्य की दुनिया के इतिहास की पहली पुस्तक है जिसे प्रकाशन से पहले प्रतिबंधित कर दिया गया था। लेकिन सावरकर की कुशल योजना के कारण वह पुस्तक छपी भी और भारत में पहुंचकर बंटी भी । उस समय इस पुस्तक की लोकप्रियता का आलम युवाओं में ये था की इस पुस्तक की एक –एक प्रति तीन-तीन सौ रुपयों में बिकी थी ।

इस पुस्तक की लोकप्रियता और उपयोगिता को दो प्रसंगों से जाना जा सकता है। जब सरदार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को अंग्रेजों ने गिरफ्तार किया था तब उनके पास बरामद हुई आपत्तिजनक सामग्री की पुलिस ने सूची बनाई थी उसमें सबसे पहले नंबर पर सावरकर की लिखी पुस्तक "1857 का स्वतन्त्रता संग्राम" थी। आजाद हिंद फौज के सैनिकों की ट्रेनिंग के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जो तरीके बनाए थे उसमें सैनिकों को सैद्धांतिक प्रशिक्षण देने के लिए सिलेबस के रूप में इसी पुस्तक का ही उपयोग किया जाता था।

वीर सावरकर पहले स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी होने के बाद अंग्रेजों की शर्त पर बैरिस्टर की डिग्री लेने से ही मना कर दिया था। उन्होने अंग्रेजों से कहा की तुम लोग मुझे भले ही अपनी डिग्री न दो तो भी अब तुम मेरा कानून का ज्ञान मुझसे छीन नही सकते। सावरकर इंग्लैंड में जिस घर में रहते थे उस घर के सामने ही अंग्रेजों ने उनकी गतिविधियों पर निगाह रखने के लिए पुलिस चौकी बनाई थी ये काम अंग्रेजों ने किसी स्वतन्त्रता संग्राम सैनानी के लिए पहली बार किया था।

स्वाधीनता संग्राम में विदेशी वस्त्रों की होली सबसे पहले सावरकर ने ही जलाई थी। हम जानते है की स्वाधीन भारत का ध्वज सबसे पहले मैडम कामा ने फहराया था,उनको इस काम की प्रेरणा देने वाले सावरकर ही थे । सावरकर को जब जहाज में कैद कर समुद्री रास्ते से इंग्लैंड से भारत ले जाया जा रहा था तब फ्रांस की धरती पर पहुंचने से पहले उन्होने समुद्र में छलांग लगा दी थी। उनकी ये छलांग विश्व प्रसिद्ध है।इस केस में फ्रांस और इंग्लैंड के बीच सावरकर को लेकर मुकदमा चला। सावरकर ऐसे पहले स्वाधीनता सेनानी थे जिनके लिए अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में ये मुकदमा लड़ा गया था।

सावरकर स्वाधीनता संग्राम के ऐसे पहले सेनानी थे जिन्हें दो आजन्म कारावास की सजा मिली थी। उस सजा के दौरान सेल्यूलर जेल में उन्हें ग्यारह वर्ष तक जो यातनाएँ दी गई वो सब इतिहास में दर्ज है। जिस माफीनामे का जिक्र बार-बार किया जाता है उसके बाद यदि अंग्रेज सावरकर को छोड़ देते तो यह बात कुछ हद तक सही साबित होती। सावरकर ने अंग्रेजों के कानून की पढ़ाई की थी वो अंग्रेजों के बनाए एक कानून के बारे में जानते थे जिसमें कैदियों को ये अधिकार दिया गया था कि वो कैद से छूटने के लिए उनको जमानत पर छोड़ने का आवेदन कर सकते थे। सावरकर ने अनेक कैदियों को इस कानून का लाभ दिलाकर कैद से छुडवाया था। माफीनामा का जिक्र तो किया जाता है लेकिन यह नहीं बताया जाता कि अंग्रेजों ने उनके आवेदन के कारण नहीं बल्कि जेल में उनकी भूख हड़ताल से डर कर उनके जीवन को खतरे में डालने के जोखिम से बचने के लिए उन्हें कालापानी से हटाने का निर्णय इस डर से लिया था की यदि सावरकर को कुछ हो गया तो देश में आक्रोश पैदा होगा और फिर अंग्रेजों के खिलाफ बड़ा विद्रोह खड़ा हो सकता है।

अंग्रेजों ने सावरकर को सेल्यूलर जेल से निकाल कर पहले कुछ समय कलकत्ता के अलीपुर जेल में फिर कुछ वर्ष मुंबई जेल मे कैद कर रखा था और आखिरी में रत्नागिरी के घर में नजरबंद कर के रखा गया। ग्यारह वर्ष सेल्युलर जेल में रखने के बाद भी 16 वर्षों तक अंग्रेजों ने उनको छोड़ा नही था। सावरकर कुल 27 वर्षों तक अंग्रेजो की कैद में रहे थे।उस समय कॉंग्रेस और गांधीजी ने भी सावरकर को जमानत पर छोड़ने के लिए चले अभियान में सहयोग किया था, ये तथ्य इतिहास में दर्ज है । अंग्रेजों की कैद मुक्त होने के बाद सावरकर ने सामाजिक उत्थान के क्षेत्र में अनेक कार्य किए हैं।

उन्होने तत्कालीन समय में हिन्दू समाज में प्रचलित कुरीतियां को दूर करने का काम किया। सावरकर ने प्रमुख रूप से सात सामाजिक बुराइयों की बेड़ियों से हिन्दू समाज को मुक्त करने का अभियान चलाया। पहली थी 'स्पर्श बंदी' यानि छुआछूत की कुरीति इसे मिटाने के लिए सावरकर ने 1931 में 'पतित पावन मंदिर' की स्थापना की। दूसरी थी 'रोटी बंदी', समाज के हर वर्ग के बंधु भागींनी एक साथ मिल कर बिना किसी भेदभाव के भोजन करे इसकी पहल सावरकर ने की थी।

तीसरी बेड़ी थी 'बेटीबंदी' की,इसे खोलने के लिए सावरकर ने समाज में जागरूकता बढ़ाई। एक और बंदी सावरकर ने तोड़ने का काम किया था वो थी 'व्यवसाय बंदी'। उस समय कुछ व्यवसाय समाज विशेष तक ही सीमित कर दिए गए थे लेकिन सावरकर ने उन व्यवसायों को सामाजिक दायरे से बाहर निकालकर रुची,कुशलता और योग्यता के आधार पर व्यवसाय को अपनाने के लिए समाज को जागरूक और प्रेरित किया। तत्कालीन समय में हिन्दू समाज में व्याप्त एक रूढी के बारे में हम जानते है इसे 'सिंधु बंदी' कहा जाता जाता था। समाज में यह धारणा जम गई थी कि यदि हम समुद्र पार करते हैं तो हमारा धर्म भ्रष्ट हो जाएगा लेकिन सावरकर ने इस अवधारणा को तोड़कर समाज को इस बंदी से मुक्त कराया।

'वेदोक्त बंदी' से भी सावरकर ने समाज को बाहर निकाला। सावरकर ने समाज को 'शुद्ध बंदी' से मुक्त करने का एक महत्वपूर्ण अभियान और शुरू किया था। तत्कालीन समय जब किसी रिलीजन अथवा मजहब में कुटीलता अथवा क्रूरता का उपयोग कर किसी हिंदू का मतांतरण कर दिया जाता था तब ऐसे मतांतरित लोगों का वापस हिंदू धर्म में लौटने का रास्ता समाज में बंद हो जाता था। सावरकर ने मतांतरण कर चुके समाज के अनेक लोगों को उनका शुद्धीकरण कर वापस हिंदू धर्म में लाने का कार्य प्रारंभ किया था।

सावरकर की दूरदृष्टि एक प्रसंग से ध्यान में आती है जब 1939 - 45 की अवधि में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ और अंग्रेजों को अपनी सेना में नवयुवकों की आवश्यकता थी तब सावरकर ही थे जिन्होंने युवाओं को अंग्रेजों की सेना में भर्ती होने का आह्वान किया। अभी यह बात सतही तौर पर बड़ी अटपटी लग सकती है लेकिन इसके पीछे सावरकर की सोच ये थी कि जब अपना देश स्वाधीन हो जाएगा तब नव-स्वाधीन राष्ट्र की रक्षा के लिए हमें कुशल एवं अनुभवी सैनिकों की आवश्यकता होगी तब यही प्रशिक्षित सैनिक भारत की रक्षा के काम आएंगे। स्वतंत्रता के बाद कश्मीर पर कबालियों का हमला हुआ, उसके परिणाम स्वरूप कश्मीर का कुछ क्षेत्र पाकिस्तान अपने कब्जे में लेने में सफल रहा लेकिन पूरा कश्मीर वो हड़प न सका। सावरकर कितने दूरदृष्टा थे इस बात से ये साबित होता है।

सावरकर के साहित्यिक योगदान की बात करें तो उन्होंने दो कथा,दो उपन्यास, 3 आत्म चरित्र,10 लेख संग्रह,चार नाटक, चार महाकाव्य,हिंदुत्व पर तीन पुस्तकें मिलाकर कुल 31 ग्रंथों का लेखन किया है। इसमें से छः हजार पंक्तियों का महाकाव्य "कमला" उन्होने सेल्यूलर जेल में अमानवीय यातनाओं को सहते हुए लिखा था।

आज हम कुछ शब्दों का उपयोग अपने संवाद में करते हैं लेकिन ये नहीं जानते कि वो शब्द सावरकर की ही भारतीय साहित्य को एक महत्वपूर्ण देन है। वे शब्द हैं- बजट के लिए अर्थ संकल्प,अटेंडेंस के लिए उपस्थिति,नंबर के लिए क्रमांक,सिनेमा- चित्रपट,डायरेक्टर-दिग्दर्शक,तारीख-दिनांक, टेलीविजन-दूरदर्शन,टेलीफोन-दूरध्वनी,कोरम-गणसंख्या,नगरपालिका,महापौर,पर्यवेक्षक,मूल्य,शुल्क, विशेषांक, प्राचार्य, प्राध्यापक,परीक्षा, वेतन, सेवानिवृत्ति आदि अनेक शब्द सावरकर ने ही दिए हैं। अपने राष्ट्र ध्वज तिरंगे के केंद्र में 24 तीलियों वाला अशोक चक्र दिखाई देता है।हम में से बहुत कम लोग जानते हैं कि तिरंगे के बीच अशोक चक्र लगाने का सुझाव ध्वज समिति को वीर सावरकर ने ही दिया था।

सावरकर के जीवन की इन बातों को जानकर, उनके बारे में और अधिक जानकारी हासिल कर हम तय करें की वो वास्तव में देश के नायक थे या उनके विरोधियों ने गढ़ी छवि के अनुसार खलनायक थे या फिर सदियों में पैदा होने वाले एक महानायक थे । आज जब देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है तब ये जरूरी है की देश की स्वाधीनता के संग्राम में भाग लेने वाले सभी ज्ञात,अल्पज्ञात एवं अज्ञात सैनानियों के बारे मे हर प्रकार जानकारी खोजी जाए और नई पीढ़ी को बताई जाए। ये, सही मायनों में सभी स्वाधीनता संग्राम सैनानियों को देशवासियों की और से सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।

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