ममता और माया की राह में पवार का अड़ंगा
न तो वाममार्गी हैं और न ही दक्षिणमार्गी। कांग्रेस की तरह ही मध्यमार्गी राजनीति पवार की मुख्य राजनीति रही है।
- डॉ. कविता सारस्वत
अब लगभग यह बात तय हो चुकी है कि 2019 के आम चुनाव में विपक्ष अपनी ओर से किसी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं करेगा। राहुल गांधी, ममता बनर्जी और मायावती के समीकरण से आगे बढ़ते हुए अब 2004 की तरह ही बिना किसी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के ही चुनाव लड़ने की तय की जा रही है। इसके साथ ही पूरे चुनाव का प्रबंधन किसी वरिष्ठ विपक्षी नेता के हाथ देने की बात सोची जा रही है, जो कि चुनाव में सूत्रधार की भूमिका निभाये।
हाल के दिनों में शरद पवार और राहुल गांधी के बीच इस मसले को लेकर तीन बार मुलाकात हो चुकी है और माना जा रहा है कि उसके बाद ही राहुल गांधी ने भी इस बात पर सहमति जतायी है कि विपक्ष बिना किसी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के ही चुनाव लड़ेगा। खुद शरद पवार ने भी शुक्रवार को साफ-साफ कहा की विपक्षी दलों के बीच लोकसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री पद को लेकर अब चर्चा नहीं होगी। इससे एक बात और साफ हो गयी है कि शरद पवार ने महज एक बयान देकर ही ममता बनर्जी और मायावती दोनों के ही प्रधानमंत्री बनने के सपने में अड़ंगा लगा दिया है।
विपक्षी दलों का महागठबंधन तैयार करने के लिए ममता बनर्जी जिस तरह से पिछले कुछ महीनों से कोशिश कर रही हैं, उसके आधार पर उनको लगने लगा था कि 2019 के चुनाव के बाद वे खुद भी विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद की दावेदार हो सकती हैं। पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा ने भी विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में ममता बनर्जी के नाम का खुलेआम समर्थन किया था। लेकिन उनकी एक बड़ी परेशानी कांग्रेस के साथ उनके संबंधों की कड़वाहट भी है। ममता बनर्जी हर हालत में वामपंथी दलों से दूरी बनाकर रखना चाहती हैं, जबकि कांग्रेस वामपंथी दलों को लेकर सॉफ्ट बनी हुई है। कांग्रेस की कोशिश विपक्षी महागठबंधन से वामपंथियों को भी जोड़ने की है। लेकिन ये बात ममता बनर्जी को किसी भी हालत में मंजूर नहीं है।
दूसरी ओर बीएसपी प्रमुख मायावती की कोशिश भी हर हालत में 50 से अधिक सीट हासिल करके एक मजबूत राजनीतिक शक्ति बनने की है। मायावती ने विपक्षी महागठबंधन को लेकर चल रही बातचीत के दौरान यह स्पष्ट कर दिया है कि अगर उन्हें सम्मानजनक संख्या में सीटें मिलेंगी, तभी बीएसपी इस प्रस्तावित महागठबंधन में शामिल होगी। माना जा रहा है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश तथा पंजाब को मिलाकर कुल 98 सीटों पर लोकसभा चुनाव के दौरान दावेदारी करने का मन बनाया है। मायावती को उम्मीद है कि अगर इन 58 सीटों पर उसको चुनाव लड़ने का मौका मिल जाये तो विपक्षी गठबंधन के सहयोग से बीएसपी कम से कम 50 सीटें जीत लेगी। ऐसा होने पर मायावती खुद भी विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद की दावेदार बन सकती हैं। लेकिन शरद पवार के एक बयान ने उनके सपने पर भी पानी फेरने का काम किया है।
शरद पवार ने स्पष्ट कर दिया है कि चुनाव के पहले प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को लेकर कोई भी बात नहीं की जायेगी और विपक्षी एकजुटता बनाए रखने के लिए वह खुद समन्वय का काम करेंगे। स्पष्ट है कि पवार खुद उसी भूमिका को निभायेंगे, जो 2004 के चुनाव में वरिष्ठ वामपंथी नेता हरकिशन सिंह सुरजीत ने निभायी थी। माना जा रहा है कि विपक्ष के महागठबंधन में तमाम क्षेत्रीय क्षत्रपों को साधना आसान बात नहीं होने वाली है। ममता और मायावती की बात छोड़ भी दी जाये तो अखिलेश यादव, चंद्रबाबू नायडू, के. चंद्रशेखर राव, स्टालिन, कुमार स्वामी जैसे लोगों को एक साथ अंतिम समय तक बनाये रखना तभी संभव हो सकता है, जबकि उनके बीचे समन्वय करने का काम कोई अनुभवी राजनेता कर रहा हो।
शरद पवार इस भूमिका में पूरी तरह से फिट बैठते हैं। कांग्रेसी पृष्ठभूमि का नेता होने के साथ ही वे यूपीए के प्रमुख घटक दल एनसीपी के प्रमुख भी हैं। साथ ही राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति का भी उन्हें काफी अनुभव है। सबसे बड़ी बात तो ये है कि न तो वाममार्गी हैं और न ही दक्षिणमार्गी। कांग्रेस की तरह ही मध्यमार्गी राजनीति पवार की मुख्य राजनीति रही है। यही कारण है कि कांग्रेस भी चाहती है की विपक्षी दलों के महागठबंधन में सूत्रधार की भूमिका पवार के हाथ में ही रहे। कांग्रेस को भी इस बात का एहसास है कि अगर राहुल गांधी विपक्षी महागठबंधन की अगुवाई करने की जिद पर अड़े रहे तो क्षेत्रीय दलों के कई नेता बिदक जायेंगे और ऐसा होने पर महागठबंधन बनने के पहले ही बिखर जायेगा।
एक बात ये भी मानी जा रही है कि अगर पवार सूत्रधार की भूमिका निभाते हैं, तो कांग्रेसी पृष्ठभूमि होने के नाते वे कमोबेश उसी एजेंडा पर चलेंगे जो कांग्रेस तय करेगी। इसके साथ ही अगर महागठबंधन में शामिल क्षेत्रीय दलों की मदद से कांग्रेस घटक दलों के बीच सबसे अधिक सीट पाने वाली पार्टी बन जाती है, तो प्रधानमंत्री पद पर भी उसका दावा ज्यादा मजबूत होगा। सबसे बड़ी बात तो ये है कि विपक्ष को 2019 के चुनाव में नरेंद्र मोदी जैसे राजनीतिज्ञ का सामना करने के लिए एक ऐसा राजनीतिज्ञ चाहिए जो अपने मोदी को टक्कर दे सके। शरद पवार के सूत्रधार बनने पर किसी को इसलिए भी आपत्ति नहीं होगी, क्योंकि उन्हें राजनीति में सबके साथ तालमेल करके चलने वाला माना जाता है।
सबसे बड़ी बात तो ये है कि पवार प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी नहीं हैं। वे खुद भी स्वीकार कर चुके हैं कि प्रधानमंत्री पद को लेकर उनका कोई दावा नहीं है। उनका लक्ष्य सिर्फ लोकसभा चुनाव में बीजेपी को परास्त करना है, ताकि विपक्षी महागठबंधन की सरकार बन सके। पवार विपक्षी महागठबंधन के सूत्रधार की भूमिका निभाने के कुछ समय पहले ही एचडी देवगौड़ा और मायावती से मुलाकात भी कर चुके हैं। ममता बनर्जी से भी उनके संबंध अच्छे माने जाते हैं। साथ ही चंद्रबाबू नायडू से भी उनके अच्छे रिश्ते होने की बात कही जाती है। इसके अलावा वाईएसआर कांग्रेस प्रमुख जगनमोहन रेड्डी तथा बीजेडी प्रमुख नवीन पटनायक से भी उनके अच्छे संबंध होने की बात कही जाती है। ऐसे में अगर विपक्षी महागठबंधन के सूत्रधार की जिम्मेदारी पवार को मिलती है तो वे तुलनात्मक तौर पर कम मेहनत करके सभी क्षेत्रीय क्षत्रपों को एक साथ जोड़ने में कामयाब हो सकते हैं।
कांग्रेस की परेशानी ये है कि राहुल गांधी को नेता या अपना सूत्रधार मारने के लिए अधिकांश क्षेत्रीय दल तैयार नहीं हैं। ऐसे में अगर कांग्रेस अपने दिल्ली अधिवेशन के प्रस्ताव के मुताबिक राहुल गांधी के हाथ में ही विपक्षी महागठबंधन की अगुवाई देने की बात पर अड़ती है, तो क्षेत्रीय दल इसे माने से इनकार भी कर सकते हैं। ऐसा होने से बीजेपी को ही चुनाव में फायदा होगा। यही कारण है की विपक्षी महागठबंधन की अगुवाई करने की दिली इच्छा होने तथा प्रधानमंत्री बनने की चाहत जता चुकने के बाद भी अब राहुल गांधी इस बात के लिए तैयार हो गये हैं कि 2019 के चुनाव में किसी भी व्यक्ति को विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया जाये। ये काम चुनाव परिणाम आने के बाद ही किया जाये। कांग्रेस के लिए इस बात को मानना अब उसकी मजबूरी भी बन चुकी है।