राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ:स्थापना से शताब्दी तक

अखिलेश श्रीवास्तव

Update: 2025-12-30 03:48 GMT

जब किसी संगठन की यात्रा सौ वर्षों तक निरंतर चलती है, तो वह केवल एक संस्था नहीं रह जाता, बल्कि समाज की चेतना का हिस्सा बन जाता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज ऐसे ही एक ऐतिहासिक पड़ाव-शताब्दी वर्ष-में प्रवेश कर चुका है। यह अवसर केवल उत्सव का नहीं, बल्कि आत्ममंथन और समझ का भी है कि संघ कैसे बना, किन परिस्थितियों में पला-बढ़ा और कैसे समाज के साथ उसकी जड़ें गहराती चली गईं।

विजयादशमी 1925: एक बीज, जो वटवृक्ष बना

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 27 सितंबर 1925 को विजयादशमी के पावन दिन विक्रम संवत 1982 में हुई। नागपुर में डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने बाल और तरुण युवकों को साथ लेकर संघ की शुरुआत की। यह कोई अचानक लिया गया निर्णय नहीं था। इससे पहले ही वे सामाजिक और राष्ट्रीय गतिविधियों में सक्रिय थे। अप्पाजी जोशी जैसे समर्पित कार्यकर्ता उनके साथ थे, जिन्होंने जीवन भर संघ कार्य को अपना ध्येय बनाया।

संघ का मूल उद्देश्य स्पष्ट था-सम्पूर्ण हिन्दू समाज का संगठन। शाखा प्रणाली के माध्यम से दैनिक जीवन में अनुशासन, सेवा और राष्ट्रभाव को केंद्र में रखकर कार्य शुरू हुआ। धीरे-धीरे यह प्रयास एक व्यापक सामाजिक आंदोलन में बदल गया।

प्रारंभिक भारत और संघ की आवश्यकता

आज का संघ 1925 जैसा नहीं दिखता, और यह स्वाभाविक भी है। देश और समाज की परिस्थितियाँ तब बिल्कुल अलग थीं। उस समय कांग्रेस एक देशव्यापी संगठन बन चुकी थी और महात्मा गांधी उसके केंद्र में थे। स्वतंत्रता आंदोलन, अहिंसा और हिंदू-मुस्लिम एकता जैसे मुद्दे राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा थे।

लेकिन डॉ. हेडगेवार का अनुभव इससे कहीं व्यापक था। वे केवल राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं, बल्कि सामाजिक संगठन और आत्मबल को भी उतना ही आवश्यक मानते थे। यही दृष्टि आगे चलकर संघ की आधारशिला बनी।

क्रांतिकारी पृष्ठभूमि: डॉ. हेडगेवार का संघर्ष

डॉ. हेडगेवार का जीवन केवल संगठनकर्ता का नहीं, बल्कि एक सक्रिय क्रांतिकारी का भी रहा। 1911 से 1913 के बीच कोलकाता में डॉक्टरी की पढ़ाई के दौरान उनका संपर्क प्रसिद्ध क्रांतिकारी पुलिन बिहारी दास और अनुशीलन समिति से हुआ। त्रिलोक्यनाथ चक्रवर्ती जैसे नेताओं के मार्गदर्शन में वे गुप्त क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न रहे।

शांति निकेतन से नागपुर तक

वे शांति निकेतन में रहते हुए नागपुर के युवाओं तक क्रांतिकारी साहित्य पहुँचाते थे। 1920 में उन्होंने पांडिचेरी जाकर श्री अरविंद घोष से मुलाकात की और नागपुर कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्ष बनने का आग्रह किया। यही नहीं, कांग्रेस के उसी अधिवेशन में उन्होंने गांधीजी से पूर्ण स्वतंत्रता को लक्ष्य बनाने का प्रस्ताव रखने का निवेदन भी किया।

असहयोग आंदोलन और जेल यात्रा

गांधीजी के असहयोग आंदोलन में डॉ. हेडगेवार पूरी शक्ति से जुड़े। मध्य प्रांत के गांव-गांव में सभाएँ कर आंदोलन का प्रचार किया। अंग्रेज़ सरकार ने इसे गंभीर चुनौती के रूप में लिया। फरवरी 1921 में उन पर धारा 144 के तहत भाषण देने पर प्रतिबंध लगाया गया, लेकिन उन्होंने पीछे हटने से इंकार कर दिया।

परिणामस्वरूप मई 1921 में उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला। अदालत में भी उन्होंने निर्भीक होकर पूर्ण स्वतंत्रता की बात कही। जमानत और शर्तों को अस्वीकार करते हुए उन्होंने एक वर्ष का सश्रम कारावास स्वीकार किया। यह वही दृढ़ता थी, जो आगे चलकर संघ की कार्यसंस्कृति में दिखाई देती है।

शताब्दी का अर्थ: संगठन से समाज तक

आज संघ की 100 वर्ष की यात्रा समाज में स्वाभाविक जिज्ञासा पैदा कर रही है। शाखाओं से लेकर सेवा कार्यों तक, संघ का प्रभाव केवल संगठन तक सीमित नहीं रहा। बालक, युवा और प्रौढ़-तीनों स्तरों पर व्यक्तित्व निर्माण और सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना ने संघ को व्यापक स्वीकार्यता दिलाई है।

निष्कर्ष: समय की कसौटी पर खरा संगठन

संघ की शताब्दी केवल अतीत को याद करने का अवसर नहीं, बल्कि भविष्य की दिशा तय करने का क्षण है। स्थापना से लेकर आज तक संघ का मूल भाव-राष्ट्र, समाज और संस्कार-अडिग रहा है। बदलते समय के साथ उसके स्वरूप में परिवर्तन आया, लेकिन उद्देश्य वही रहा। शायद यही कारण है कि सौ वर्षों बाद भी संघ भारतीय समाज के विमर्श में एक प्रभावी उपस्थिति बना हुआ है।

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