जल संकट विश्व व्यापी समस्या है, एक सामाजिक संकट है, इसका समाधान शीघ्र करने की आवश्यकता है। इस कार्य को एक सामाजिक अभियान बनाने का समय आ चुका है। इसमें जन-जन का सहयोग अपेक्षित है। समस्या के समाधान के लिये जल संरक्षण ही एक मात्र विकल्प रह जाता है जिससे जल की उपलब्धता की निरंतरता को सुनिश्चित किया जा सकता है।
वर्तमान में जल संकट की विकरालता लगातार बढ़ती जा रही है। इसके कारण जहां धरती अतृप्त है, वहीं मानव जीवन में भी पानी का अभाव स्पष्ट रुप से दिखाई देने लगा है। दुनिया भर के विशेषज्ञ बार-बार चेतावनी देते हुए समाज को सचेत करते हैं कि वर्षा जल का संरक्षण नहीं किया गया तो आने वाला कल और भी भयावह हो सकता है। क्योंकि पानी का संकट केवल एक देश की समस्या नहीं है, बल्कि विश्व के कई देश इस संकट का सामना कर रहे हैं। भारत में यह समस्या जिस गति से बढ़ती जा रही है, उसके कारण स्थायी विकास की गति बहुत धीमी होती जा रही है। यह बात सही है पानी के अभाव में जहां जमीन पर व्यापक प्रभाव पड़ता है, वहीं जनजीवन भी प्रभावित होता है।
पेयजल समस्या के चलते कई क्षेत्रों में जनजीवन अस्त व्यस्त हो रहा है, तो कहीं विवाद भी हो रहे हैं। उत्तरप्रदेश के कई क्षेत्रों की स्थिति बहुत ही खराब है। बुंदेलखंड में पेयजल संकट के कारण खेती नहीं हो पाती है, जिसके कारण हर साल पलायन की स्थिति बनती है। कुछ ऐसी ही स्थितियां अवध, कानपुर, हमीरपुर, इटावा में भी हैं। यह भयावह खतरे का संकेत है, क्योंकि जब-जब पानी का अत्यधिक दोहन होता है तब-तब जमीन के अंदर के पानी का उत्पलावन बल कम होने या समाप्त होने पर जमीन धँस जाती है तथा उसमें दरारें पड़ जाती हैं। यह तभी रोका जा सकता है जब भूजल के उत्पलावन बल को बरकरार रखा जाए। पानी समुचित मात्रा में रिचार्ज होता रहे। इसका एक मात्र उपाय यही है कि ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में भूजल के दोहन को नियंत्रित किया जाए। जल का संरक्षण तथा समुचित भंडारण हो, ताकि पानी जमीन के अंदर प्रवेश कर सके। भूजल के अंधाधुंध दोहन के लिये कौन जिम्मेदार है?
एक आंकड़े के अनुसार भूजल का 80 प्रतिशत से अधिक भाग कृषि क्षेत्र में उपयोग होता है। यदि विश्व बैंक की मानें तो भूजल का सर्वाधिक 92 प्रतिशत उपयोग और सतही जल का 89 प्रतिशत उपयोग कृषि में होता है जबकि 5 प्रतिशत सतही जल घरेलू उपयोग में लाया जाता है।
स्वतंत्रता के समय देश में प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 5000 क्यूबिक मीटर थी जबकि उस समय देश की आबादी 40 करोड़ थी। पानी की उपलब्धता धीरे-धीरे कम होती गई तथा आबादी बढ़ती गई। अनुमान है कि वर्ष 2025 में यह घटकर 1500 क्यूबिक मीटर रह जाएगी जबकि देश की आबादी लगभग 1.39 अरब हो जाएगी।
आज देश का 29 प्रतिशत क्षेत्र पानी की भीषण समस्या से जूझ रहा है। इसके लिये कृषि के साथ-साथ उद्योग भी जिम्मेदार हैं। औद्योगिक इकाइयाँ इतना पानी एक दिन में ही खींच लेती हैं जितना पानी एक गाँव पूरे महीने भी नहीं खींच पाता है। प्रश्न यह है कि जिस देश में पानी की उपलब्धता 2300 अरब घनमीटर है तथा जहाँ पर सदानीरा नदियों का जाल बिछा हुआ है वहाँ पर पानी का इतना भीषण संकट क्यों? इसका एक मात्र कारण यह है कि वर्षा से मिलने वाले कुल पानी का 47 प्रतिशत भाग नदियों के माध्यम से समुद्र के खारे पानी में मिल जाता है। इस जल को बचाया जा सकता है। इसके लिये वर्षा जल का संग्रहण, संरक्षण तथा समुचित प्रबंधन आवश्यक है। यही एक मात्र विकल्प भी है। यह तभी संभव है, जब पूरा समाज जोहड़ों, तालाबों को पुनर्जीवित करे, खेतों में सिंचाई के लिए पक्की नालियों का निर्माण हो, पीवीसी पाइपों का इस्तेमाल हो। बहाव क्षेत्र में पानी को संचित किया जा सकता है। इसके लिये बाँध बनाए जा सकते हैं ताकि यह पानी समुद्र में न जा सके। इसके साथ ही साथ बोरिंग, ट्यूबवेल पर नियंत्रण लगाया जाए। उन पर भारी कर लगाया जाए ताकि पानी की बर्बादी रोकी जा सके। जरूरी यह भी है कि पानी की उपलब्धता के गणित को समाज भी समझे। यह आमजन की जागरूकता तथा सहभागिता से ही सम्भव है। भूजल संरक्षण के लिये देशव्यापी अभियान चलाया जाना अति आवश्यक है, ताकि भूजल का समुचित नियमन हो सके।
यह सर्वविदित है कि भूजल की 80 प्रतिशत जलराशि हम पहले ही उपयोग में ला चुके हैं। तथापि शेष जल के दोहन का सिलसिला निरंतर चालू है। भविष्य में हमें इतना पानी नहीं मिल पाएगा जितना कि हमारी मांग होगी। अकेली सरकार इसमें कुछ नहीं कर सकती है। यह काम आम आदमी के सहयोग से संभव है। भारतीय संस्कृति में जल को जीवन का आधार माना जाता है। इसी कारण जल को संचित करने की परंपरा हमारे देश में शुरू से ही रही है। अत: समाज ही इस अभियान में सहयोग दे सकता है। अत: समाज के हर व्यक्ति को अपने-अपने स्तर व सामथ्र्य के अनुसार जल संरक्षण अभियान में सहयोग करना चाहिए।
इस प्रकार जल संरक्षण में पूरे समाज को अपनी ओर से नई पहल करनी चाहिए। केवल सरकारी सहायता पर निर्भर नहीं होना चाहिए क्योंकि सरकारें अपने पाले में गेंद न डालकर अपना कर्तव्य निभा लेती हैं। परंतु समय की मांग है कि पूरा समाज इस अभियान से जुड़े तथा पंरपरागत जल स्रोतों को पुनर्जीवित करने का प्रयास करे।