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एकात्मता ही है आदि शंकराचार्य के दर्शन का मूल

बीरेंद्र पांडेय

Update: 2022-05-06 12:51 GMT

प्रसंग/वेब डेस्क। गंगा स्नान से लौटते समय मार्ग में खड़े डोम को देख आदि शंकराचार्य के शिष्यों ने कहा, देखते नहीं शंकराचार्य जी महाराज आ रहे मार्ग से हट जाओ! इस बात पर डोम ने हटने कारण पूछा? शिष्यों ने कहा क्योंकि तुम अछूत हो ! डोम तनकर आदि शंकर की राह में खड़ा हो पूछता है - कौन है अछूत ? आप किसे अछूत कहेंगें, मेरा शरीर जो नश्वर है या मेरी आत्मा जो अजर,अमर और अविनाशी है। आत्मा तो परमात्मा का अंश है। "ईश्वर अंश जीव अविनाशी"। तो क्या मुझमें जो परमात्मा है वो आपके भीतर के परमात्मा से भिन्न है ? क्या वह छोटा है ? क्या वह कुरूप है? कुछ अलग है ? और यदि हम दोनों में वो एक ही परमात्मा का अंश है, जो मेरे और आपके भीतर है तो फिर अछूत कौन है ?

"आदि शंकराचार्य के अद्वैत के सैद्धांतिक दर्शन की ये व्यवहारिक व्याख्या थी" आदि शंकर ने काशी में तथाकथित अछूत डोम के आगे नतमस्तक हो उन्हें वैसे ही अपना गुरु माना जैसे की गोविन्दपाद को ! क्योंकि दोनों ही गुरुओं ने उन्हें सत्य का साक्षात्कार करवाया था। आदि शंकर के दर्शन का मूल एकात्मता है। उनके द्वारा रचित समस्त ग्रंथो का मर्म एकात्मता है आदि शंकर की दिग्विजय यात्रा का उद्देश्य किसी समुदाय के विरुद्ध विद्वेष नहीं था । बल्कि भारतीय मतों,संप्रदायो,धर्मो में आयी विकृतियों का समूल विनाश करना था । आदि शंकराचार्य ने शक्तिहीन,खंडित होते राष्ट्र को युगनानुकल,वैज्ञानिक आध्यात्म दर्शन के आधार पर पुनर्जीवित किया ।

आदि शंकराचार्य द्वारा लिखित एक सुंदर रचना है, जिसमें ज्ञान की स्थिति, परमार्थिक सत्य को बहुत ही खूबसूरती के साथ वर्णन किया गया है। निर्वाण षट्कम में आदि गुरु शंकराचार्य जी बताते हैं की जीव क्या है और क्या नहीं है। मूल भाव है की आत्मा जिसे जीव भी कहा जा सकता है वह किसी बंधन, आकार और मनः स्थिति में नहीं है। वह ना तो जन्म लेते है और ना ही उसका अंत होता है। वह शिव है।

अहं निर्विकल्पॊ निराकार रूपॊ विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्

न चासंगतं नैव मुक्तिर्न मेय: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम्

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