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गीता का मर्म

अनिल तारे

Update: 2021-12-13 16:07 GMT

श्री भगवत गीता के शास्त्रानुसार इस जगल में प्रत्येक मनुष्य का पहला कर्तव्य यही है कि वह परमेश्वर के शुद्ध स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके उसके द्वारा अपनी बुद्धि को जितनी हो सके निर्मल और पवित्र करें।

महाभारत के युद्ध के प्रारंभ में इस कर्तव्य मोह में फंसे हुए अर्जुन अपने कर्तव्य का विस्मरण हो चुकने पर क्षत्रिय धर्म का पालन करने में असमर्थ है। क्योंकि युद्ध में कुलक्षय होने से पाप के डर से आत्मकल्याण का नाश होगा । अतः युद्ध करना या न करना अर्जुन के मन में दुविधा थी। मोह को दूर करने के लिये वेदान्त के आधार पर कर्म अकर्म एवं मोक्ष पर विचार कर निश्चय किया गया कि प्रत्येक मनुष्य के कर्म छूटते नहीं हैं और ना ही छोड़े जाने चाहिये। भगवत् गीता में भक्ति प्रदान कर्म योग का प्रतिपादन किया है कि कर्म करने पर कोई भी पाप नहीं लगता है। अंत में उसी से ही मोक्ष भी मिल जाता है । भगवत गीता में सन्यास मार्ग और कर्मयोग मार्ग में भेद बताकर अन्यान्य धर्ममत एवं गीता से तुलना करके व्यवहारिक कर्म इस प्रकार से किये जाने चाहिये, इस बात का उल्लेख किया है। किसी कर्म का भला बुरा मानने से पहले प्रश्न उपस्थित होता है कि कर्म करना चाहिये कि नहीं। इसका निवारण गीता में है। मोक्ष धर्म और नीति धर्म ये दोनों विषय अधिभौतिक ज्ञान से परे हैं। 

पश्चिमी विद्वान का मत है कि कर्म-अकर्म अथवा नीतिशास्त्र पहला नियमबद्ध ग्रन्थ आरिष्टोटल ने लिखा है परन्तु आरिष्टोटल से पहले महाभारत एवं गीता में अधिक व्यापक और सात्विक दृष्टि से विचार किया गया है इसके अलावा अभी तक कोई भी नीति तत्व नहीं है । "सन्यासियों के समान रहकर तत्वज्ञान के विचारों में शांति से आयु बिताना अच्छा है अथवा अनेक प्रकार के राजकीय उथल पुथल करना अच्छा है ।" इस विषय का स्पष्टीकरण गीता में है, क्योंकि गीता का सिद्धांत यह है कि ब्रह्म ज्ञान से बुद्धि के कम हो जाने पर फिर मनुष्य से कोई भी पाप नहीं हो सकता एपीक्यूरियन एवं स्टोईक पन्थों के यूनानी पंडित यह कथन गीता को ग्राहय है कि पूर्ण अवस्था में पहुँच हुए परम ज्ञानी पुरुष का व्यवहार नीति दृष्टि से सबके लिये आदर्श के समान हैं। परम ज्ञानी पुरूषों का जो वर्णन किया है वह गीता के स्थित प्रज्ञ के समान है स्पेन्सर और कान्ट का कथन है कि प्रत्येक मनुष्य के सारे मानव जाति के लिये हितार्थ ही काम करना चाहिये उनका विचार भगवत् गीता में वर्णित स्थित प्रज्ञ के " सर्व भूत हिते रतः" का समावेश किया गया है गीता में उनके विचारों से संतुष्ट होकर यह दिखलाया है कि मोक्ष, भक्ति और नीति धर्म के बीच में जिस विषय का विरोध है वह विरोध ठीक नहीं है ब्रह्म विद्या और भक्ति का जो मूल तत्व है वह नीति का और सत्कर्त का ही आधार है एवं इस बात का निर्णय किया गया कि ज्ञान, सन्यास, कर्म और भक्ति का मेल आयु व्यतीत करने के लिये किस कार्म को मनुष्य स्वीकार करे भगवत् गीता में कर्मयोग की प्रधानता है इसलिए "ब्रह्म विद्यातंर्गत (कर्म) योग शास्त्र" इस नाम से समस्त वैदिक ग्रन्थों में इस अग्र स्थान प्राप्त हुआ है। 

गीता के विषय में कहा गया है "गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः" अकेली गीता का पूरा अध्ययन कर लेना शेष शास्त्रों के विस्तार से क्या करना है। यह बात भी सही है। जिन लोगों को हिन्दू धर्म और नीति शास्त्र के मूल तत्व का परिचय करना है तो गीता का अध्ययन आवश्यक है, क्योंकि क्षर अक्षर-सृष्टि का और क्षेत्र क्षेत्रज्ञ ज्ञान का विचार करने वाले सांख्य न्याय, मिमांसा, उपनिषद और वेदान्त आदि प्राचीन शास्त्र एवं वैदिक धर्म में ज्ञान भक्ति प्रधानएवं कर्म योग प्रधान का अंतिम स्वरूप तथा वर्तमान काल में प्रचलित वैदिक धर्म का जो मूल है, गीता में प्रतिपादित विषय होने से यह कह सकते हैं कि वर्तमान कालीन हिन्दू धर्म के तत्वों को समझा देने वाला गीता के समान संस्कृत साहित्य में दूसरा ग्रन्थ नहीं है ।

भगवत गीता पाठकों से अपरिचित नहीं हैं। बहुत से लोग नित्य नियम से भगवत गीता का पाठ किया करते हैं और ऐसे लोग भी थोडे नहीं है जो इसका शास्त्रीय दृष्टि से अध्ययन कर चुके हैं और अध्ययन कर रहे हैं। अतः यहाँ इतना कहना आवश्यक है कि गीता ग्रंथ किसी व्यक्ति विशेष अथवा संप्रदाय के उद्देश्य से नहीं है । अर्जुन ने भगवान से स्पष्ट कहा था कि "मुझे दो चार मार्ग बतलाकर उलझन में न डालें, निश्चय पूर्वक ऐसा एकहीमार्ग बतलाईये जिससे कि मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ।"

संत तुकाराम संतों की उच्चिष्ट उक्ति है, मेरी बाणी सदा सर्वदा एकसा ही उपयोग होने वाला त्रिकाल अबाधिता जो ज्ञान है उसका निरूपण गीता जैसे ग्रंथ में किया गया है, जिससे मनुष्य को नवीन स्फूर्ति प्राप्त हो सके। 

वैदिक धर्म के राजगुय से इस पारस को कठोपनिषद के "उतिष्ठत! जागृत प्राप्य वरान्नि बोधत्" उठो जागो और भगवान के दिये हेतु वरदान को समझो, इसी में ही कर्म अकर्म का बीज है और परम भगवान् का यही निश्चयपूर्वक आश्वासन है कि इस सृष्टि के नियम का ध्यान देकर धर्म का स्वल्प आचरण बड़े विपत्ति से बचाता है। हमें केवल "निष्काम बुद्धि से कर्म करते रहना चाहिये ।" स्वार्थ परायण बुद्धि गृहस्थी चलाते चलाते जो हार गये हैं उनका समय बिताने के लिये अथवा संसार को छोड़ देने की तैयारी के लिये गीता नहीं है । भगवत् गीता के प्रवृत्ती इसलिए है कि मोक्ष दृष्टि से संसार के कर्म ही इस किस प्रकार किये जायें संसार में मनुष्य का सच्चा कर्तव्य क्या है निष्काम कर्म योग अपनाकर अपना जीवन सार्थक करें। 

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