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गांधीजी ने दिखाया जातिवाद से मुक्ति का मार्ग

ई. राजेश पाठक

Update: 2018-10-02 07:32 GMT

गीता में एक श्लोक आता है-चातुर्वण मया सृष्टम गुणकर्मविभागश: जिसका अर्थ है कि ये चार वर्ण मेरे द्वारा गुण और कर्म के आधार पर सर्जित किये गये हैं। जन्म को लेकर ऊँच-नीच की धारणा को निर्मूल करने वाले इस मन्त्र को अपने जीवन का मंत्र बनाते हुए गाँधीजी ने अस्पृश्यता निवारण के लिए जो-जो उपाय हो सकते हैं वो सब किये। जात-पांत की भावना का तोड़ जिस एक चीज में उन्हें सर्वाधिक दिखा वो था अंतर्जातीय विवाह। 9 मई,1945 को एक समाजसेवक को लिखे अपने पत्र में वे कहते हैं-विवाह उसी जाति में हो रहा हो तो मुझसे आशीर्वाद मत मांगो. लड़की दूसरी जाति की होगी तो में अवश्य आशीर्वाद दूंगा। आगे आने वाले दिनों में इस क्रम में एक कदम आगे बढ़ते हुए हरिजन सेवक संघ के एक कार्यकर्त्ता द्वारा पूछे प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था-मुझे ऐसा लगता है कि विचार निरंतर विकसित होते रहते हैं। आगे बढ़ते समय सबको उस वेग से बढ़ना संभव नहीं होता। यदि तुम्हारी लड़की अविवाहित हो और सात्विक धर्मभावना से प्रेरित होकर तुम उसके लिए हरिजन वर ला सकते हो, तो मैं प्रसन्नतापूर्वक वधु-वर का अभिनन्दन करूँगा। सन 1945 को महाराष्ट्र में नवले और करपे दो परिवारों की संतानों का अन्तर्जातीय विवाह हुआ। समाज के जिन प्रतिष्ठित जनों ने वर-वधु को आशीर्वाद भेजे उनमें प्रमुख थे- स्वातंत्र्यवीर सावरकर, जगद्गुरु शंकराचार्य, डॉ.कुर्तकोटी, रा.स्व.सेवक संघ के गुरु गोलवलकर और साथ ही गांधीजी.[ उपरोक्त सभी के लिए देखें - सामाजिक क्रांति की यात्रा-दात्तोपंत ठेंगरी]

अस्पृश्यता के अपमान का सबसे बड़ा भुक्तभोगी समाज स्वच्छता के कार्य में लगा वाल्मीकि समाज है. इसके निवारण के लिए स्वच्छता के कार्य को समाज में प्रतिष्ठा दिलाने के उन्होंने भरसक प्रयास किये. इसकी शुरूआत उन्होंने सावरमती आश्रम से की। आश्रम की स्वच्छता के लिए अलग से स्वच्छताकर्मी न रखते हुए उन्होंने ये नियम बनाया कि वहाँ रहने वाले कार्यकर्त्ता ही स्वयं इसकी देखभाल करें। वो कहा करते थे-हर व्यक्ति को स्वयं का सफाईकर्मी होना चाहिये।


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