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तमिलनाडु - कौन भरेगा राजनीतिक शून्यता ?

करुणानिधि ने अपने रहते डीएमके को मजबूत रखते हुए पारिवारिक सदस्यों की महत्वाकांक्षा पर बखूबी नियंत्रण बनाए रखा। उन्होंने अपने एक पुत्र स्टालिन को पार्टी का कार्यकारी प्रमुख घोषित किया।

Update: 2018-08-10 08:50 GMT

पहले जयललिता और अब करुणानिधि। प्रायः हर नेता यह कह रहा है कि करुणानिधि की कमी पूरी नहीं की जा सकती। जयललिता भी कुछ इसी तरह की नेता थीं, जिनकी कमी उनकी पार्टी और राज्य, दोनों ही महसूस कर रहे हैं। दोनों नेताओं के बारे में एक साथ बात की जाए तो दोनों ही द्रविड़ राजनीति की उपज रहे और आज द्रविड़ राजनीति में कोई एक ऐसा बड़ा नाम नहीं है, जो इन दोनों की जगह लेता हुआ दिखाई दे। जयललिता की पार्टी एआइएडीएमके नेताओं की महत्वाकांक्षा और इसके साथ संगठन में बिखराव का सामना कर रही है। जयललिता की करीबी शशिकला ने पार्टी को अपने कब्जे में लेकर मुख्यमंत्री बनने की कोशिश की थी। हालांकि आय से अधिक संपत्ति के मामले में उन्हें पिछले ही साल जेल जाना पड़ा।

करुणानिधि ने अपने रहते डीएमके को मजबूत रखते हुए पारिवारिक सदस्यों की महत्वाकांक्षा पर बखूबी नियंत्रण बनाए रखा। उन्होंने अपने एक पुत्र स्टालिन को पार्टी का कार्यकारी प्रमुख घोषित किया। अलग बात है कि उनके नहीं रहने पर स्टालिन उस जगह की कितनी भरपाई कर पाते हैं। स्टालिन की अपने भाई एमके अलागिरी से नहीं बनती। राज्य में क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व है और दोनों ही तमिल अस्तित्व वाली पार्टियां अपने अंतर्द्वंद्व से गुजर रही हैं। राष्ट्रीय दल यहां इनके बिना कोई वजूद नहीं रखते। बीजेपी की यहां जगह नहीं बन पाई। कांग्रेस का 1967 में जो पराभव हुआ, उसके बाद वह खड़ी नहीं हो सकी।

दरअसल, आजादी से पूर्व दूसरे दशक में कांग्रेस के अंदर गैर ब्राह्मणों के साथ भेदभाव से खिन्न होकर जस्टिस पार्टी की स्थापना हुई। बाद में इसका नेतृत्व इरोड वेंकट नायकर रामासामी ने भी किया। उन्हें पेरियार कहा गया। तमिल में सम्मानित व्यक्ति को पेरियार कहा जाता है। असल में पेरियार के प्रयासों से ही राज्य में द्रविड़ अस्तित्व की तलाश शुरू हुई। पेरियार ने 1944 में राजनीतिक संगठन द्रविड़ कड़गम का गठन किया। बाद में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) ने भी पेरियार के विचारों को अपनाया। यह तथ्य है कि 1949 में पेरियार के बेहद करीबी सीएन अन्‍नादुरई का उनके साथ मतभेद हो गया। अन्‍नादुरै ने ही द्रविड़ मुनेत्र कडगम (डीएमके) की स्‍थापना की। एक बात जरूर है कि पेरियार ने द्रविड़ देश की मांग की थी, जबकि अन्‍नादुरे की मांग एक अलग राज्य भर की ही रही। बहरहाल, मूल में द्रविड़ अस्तित्व की धारा बनी रही। शुरू में तो करुणानिधि पेरियार के ही समर्थक बने रहे। साल 1969 में सीएन अन्‍नादुरई के निधन के बाद करुणानिधि ने डीएमके का नेतृत्व संभाला। वह तब से अपने जीवन के अंत तक करीब 50 साल तक इस संगठन के मुखिया रहे।

करीब-करीब करुणानिधि के ही समकालीन एमजीआर के नाम से विख्यात एम जी रामचंद्रन कांग्रेस से डीएमके में आये थे। अन्नादुरई के नहीं रहने पर उनका करुणानिधि से मतभेद रहने लगा। उन्होंने अपनी एक नई पार्टी ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (अन्नाद्रमुक) बना डाली। यहीं से द्रमुक के करुणानिधि और अन्नाद्रमुक के एमजीआर युग का आरंभ हुआ। पहले करुणानिधि मुख्यमंत्री बने, पर फिर एमजीआर के जीते-जी उन्हें इस पद पर आने का अवसर नहीं मिला। करुणानिधि के लिए बाकी के चार बार मुख्यमंत्री बनना एमजीआर के बाद ही मुनासिब हुआ। एमजीआर के बाद अन्नाद्रमुक की कमान जयललिता के हाथ आई। फिर जयललिता और करुणानिधि के बीच राजनीतिक मतभेद किस कदर व्यक्तिगत द्वेष तक जा पहुंचे, इसकी भी अलग कहानी है। करुणानिधि ने बार-बार राष्ट्रीय राजनीति में भी निर्णायक भूमिका निभाई। इस मायने में उन्होंने जयलिला से अधिक केंद्र में अपनी पार्टी को भागीदारी दिलाई। इन सबके बावजूद, एक बड़ी सच्चाई यह है कि तमिलनाडु की ये दोनों धाराएं नितांत क्षेत्रीय और उच्च जाति-वर्गीय विरोध के साथ ही आगे बढ़ीं।

लगता है कि जयललिता के निधन और करुणानिधि के अत्यधिक वृद्ध तथा अस्वस्थ होने की स्थिति को इन दोनों नेताओं की ही तरह फिल्म जगत से आने वालों ने पहचान लिया। तभी तमिल फिल्मों में कई अभिनेता राजनीति में सक्रिय होने लगे थे। इनमें से रजनीकांत और कमल हासन प्रमुख हैं। दोनों ने चुनाव लड़ने की घोषणा की है, परंतु अभी तक उनकी चुनावी संभावना का आकलन नहीं हो सका है। देखना है कि दोनों क्षेत्रीय अस्तित्व के साथ ही चुनावी मैदान में आते हैं अथवा बीजेपी-कांग्रेस के साथ हाथ मिलाकर मैदान जीतने की रणनीति पर काम करते हैं। दोनों ही हाल में एक बात स्पष्ट है। वह बात है क्षेत्रीयता का बरकरार रहना। अभी तो जयललिता के बाद करुणानिधि के भी चले जाने से राजनीतिक शून्यता बन ही गई है।  

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