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आतंकियों के सम्मान और संरक्षण की राजनीति

2010 में अपनी जम्मू-कश्मीर यात्रा से पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने लश्कर-ए- तैयबा और हिज्बुल मुजाहिदीन के 25 आतंकियों को किस मजबूरी में छोड़ा था।

Update: 2019-03-13 11:43 GMT

- सियाराम पांडेय 'शांत'

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने सवाल पूछा है कि जैश-ए-मोहम्मद के मुखिया अजहर मसूद को कंधार छोड़ने कौन ले गया था? सवाल वाजिब है। इसका सीधा सा जवाब है कि भाजपा नेता। लेकिन उन आतंकवादियों को छोड़ने का दबाव किसका था, अच्छा होता कि राहुल गांधी इस पर भी रोशनी डालते। अगर वाजपेयी जी दबाव में न होते तो शायद कमांडो कार्रवाई का विचार करते। तीन आतंकियों को छोड़ने पर कांग्रेस का ऐतराज वाजिब है। लेकिन 2010 में अपनी जम्मू-कश्मीर यात्रा से पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने लश्कर-ए- तैयबा और हिज्बुल मुजाहिदीन के 25 आतंकियों को किस मजबूरी में छोड़ा था। लगे हाथ राहुल गांधी इस पर भी बात करते तो अच्छा होता। देश को यह भी बताया जाता कि इनमें से कितने सक्रिय हैं और भारत माता की छाती को अक्सर छलनी करते रहते हैं। इन छोड़े गए आतंकियों में शाहिद लतीफ, नूर मोहम्मद, अब्दुल राशिद, नजीर मोहम्मद, मोहम्मद शफी, करामात हुसैन आदि शामिल हैं। शाहिद लतीफ का नाम तो पठानकोट एयरबेस पर हुए हमले में भी सामने आया था। लतीफ जब छोड़ा गया था, उस समय वह 11 साल से भारतीय जेल में बंद था।

सवाल उठता है कि जब देश 2008 में मुंबई का बड़ा आतंकी हमला झेल चुका था तो कांग्रेस ने 25 खूंखार आतंकवादियों को किसके दबाव में छोड़ दिया? 1989 में तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती सईद की बेटी रुइया सईद का अपहरण हुआ था। वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बने जुमे-जुमे 4 दिन ही हुए थे। उस दौरान भी पांच खूंखार आतंकी छोड़े गए थे। भले ही कांग्रेस यह कहकर अपना पिंड छुड़ा सकती है कि उस वक्त उनकी सरकार नहीं थी।

राजनीति स्मृतियों का सुखद और दुखद अध्याय है। जब राजनीतिक दल उसे जनता के समक्ष अपनी सुविधा के हिसाब से परोसते हैं तो कोफ्त होता है। पुलवामा हमले के बाद से ही जैश-ए-मोहम्मद का सरगना मसूद अजहर चर्चा के केंद्र में है। सेना ने बालाकोट में लक्षित हमला कर उसके आतंकी किले को ढहाने का साहस दिखाया है। लेकिन कांग्रेस को यकीन नहीं हो पा रहा है। अभी तक वह सेना के पुरुषार्थ पर सवाल उठा रही थी। अब उसने मसूद अजहर की रिहाई के लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहरा दिया। उस समय देश में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। बहुत मजबूरी में उन्होंने तीन आतंकियों को छोड़ने का निर्णय लिया था। देश के भीतर और देश के बाहर से विमान में अपहृत सभी 150 लोगों को सुरक्षित छुड़ाने का दबाव बन रहा था। कांग्रेस तो विमान में अपहृत यात्रियों के परिजनों को लेकर सड़क पर ही उतर गई थी। माकपा नेता वृंदा करात सड़कों पर आंदोलन कर रही थीं। भाजपा को छोड़कर कोई भी दल ऐसा नहीं था जो आतंकियों की हर मांग पूरी करते हुए सभी यात्रियों को सुरक्षित कंधार से भारत लाने की मांग नहीं कर रहा था। उस विमान में भारत ही नहीं, 11 देशों के नागरिक सवार थे। यात्रियों की सुरक्षित रिहाई के लिए स्विट्जरलैंड और अमेरिका समेत कई देशों का भारत पर दबाव पड़ रहा था। आतंकी भारतीय जेलों में बंद अपने 36 कुख्यात साथियों की रिहाई और 13 अरब 94 करोड़ 27 लाख रुपये की फिरौती मांग रहे थे। कांग्रेस निरंतर इस बात का दबाव डाल रही थी कि आतंकवादियों की सारी मांगें पूरी कर दी जाएं। वह तो अटल बिहारी वाजपेयी का विवेक था कि उन्होंने 3 आतंकी छोड़कर देश के लगभग 14 अरब रुपये बचाए। कांग्रेस अध्यक्ष जिस मसूद अजहर को छोड़ने का आरोप लगा रहे हैं, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि उस विमान में मध्यप्रदेश के कांग्रेस के एक उद्योगपति सांसद भी सपरिवार सवार थे। उनका एक बड़ा अखबार भी था। इसलिए भी कांग्रेस जल्दी में थी। दूसरा बड़ा कारण विमान में बंधक बनाए गए इटली और स्विट्जरलैंड की नागरिकता वाले उद्योगपति रोबर्टो गिओरी थे। इसकी जानकारी न तो सरकार को थी और न ही अपहर्ताओं को। लेकिन सोनिया गांधी को इसकी जानकारी थी। मतलब कांग्रेस की चिंता अन्य भारतीय नागरिकों को बचाने की नहीं थी। वह तो अपने सांसद के परिवार और रोबर्टो गिओरी की सुरक्षा को लेकर चिंतित थी। मध्यप्रदेश के लोग जानते हैं कि वह सांसद कौन थे लेकिन कांग्रेस ने कभी उनका नाम उजागर नहीं होने दिया।

सवाल तो यह भी है कि जब अमृतसर में विमान को रोका गया था, उसमें तेल नहीं डाला जा रहा था तो उसमें तेल डालने वाला सी लाल कौन था? कांग्रेस अगर इस पर रोशनी डालती तो इस देश का ज्यादा मार्गदर्शन होता। वह फोन कथित तौर भारत के रक्षा मंत्रालय की ओर से किया गया था लेकिन फोन आया किसी यूरोपीय देश से था। 1999 में जब काठमांडू से उड़ान भरने वाले भारतीय विमान आईसी 814 का अपहरण किया गया था तो उसमें 178 यात्री सवार थे। 27 महिलाओं और बच्चों को दुबई में आतंकियों ने रिहा कर दिया था। एक यात्री की हत्या कर दी थी। शेष 150 यात्रियों को छुड़ाने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी ने कठिन समय में कठिन निर्णय लिया था। जिस इटली में पैदा हुए रोबर्टो गिओरी को छुड़ाने के लिए कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पर दबाव बनाया था, उसका स्विट्जरलैंड में प्रिंटिंग प्रेस है। वर्ष 1999 में उसकी प्रेस में दुनिया के लगभग 150 देशों की मुद्रा छपा करती थी। जिस समय कंधार विमान अपहरण कांड हुआ, उस दौरान गिओरी की कंपनी डे ला रुई गिओरी अमेरिकी डॉलर के नवीनतम प्रारूप, रूसी रूबल, जर्मन मार्क आदि अनेक यूरोपीय मुद्राओं पर काम कर रही थी।

अमेरिकी पत्रिका टाइम की तत्कालीन रिपोर्ट पर विचार करें तो उस समय विश्व की 90 प्रतिशत मुद्रा की छपाई पर गिओरी की कंपनी का नियंत्रण था। जेनेवा से प्रकाशित फ्रेंच अखबार 'ले टेंप्स' के हवाले से प्रकाशित रिपोर्ट में 'द हिंदू' ने लिखा था कि विमान अपहरण के बाद तत्कालीन स्विस विदेश मंत्री जोसेफ डीस ने भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह को फोन किया था। उनसे सीधे शब्दों में कहा गया था कि 'यात्रियों की रिहाई के लिए सब कुछ किया जाए, बशर्ते बंधकों की सुरक्षा की गारंटी हो।' स्विट्जरलैंड सरकार ने तो इस संकट से निपटने के लिए एक विशेष प्रकोष्ठ बना दिया था और अपने एक दूत हांस स्टाल्डर को कंधार भेजा था, जहां अपहृत विमान खड़ा था।

विमान से अपनी सुरक्षित रिहाई के बाद अमेरिकी समाचार पत्रिका टाइम को गिओरी ने 17 जनवरी 2000 को बताया था कि अगर भारत ने मौलाना मसूद अजहर को जेल से नहीं छोड़ा होता तो अपहर्ता विमान को जबरन उड़वा कर किसी पहाड़ी से टकरा देते। लंबी समझौता वार्ता के बाद बंधकों की रिहाई के लिए 36 में से जिन तीन आतंकवादियों को भारतीय जेलों से छोड़ा गया, वे थे मौलाना मसूद अजहर, मुश्ताक अहमद जरगर और अहमद उमर सईद शेख। इनमें से अहमद उमर सईद शेख को बाद में अमेरिकी पत्रकार डेनियल पर्ल की हत्या के आरोप में पाकिस्तान में गिरफ्तार किया गया था और 2002 में उसे फांसी की सजा सुनाई गई थी। दबाव इतना था कि तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति के कार्यालय को इस घटना की निंदा करने में चार दिन लग गए थे जबकि विमान में बंधक बनाए गए लोगों में एक अमेरिकी और एक कनाडा का नागरिक भी था। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह उदासीनता इसलिए भी थी क्योंकि अमेरिका और स्विट्जरलैंड जैसे प्रभावशाली देश चाहते थे कि रोबर्टो गिओरी की सुरक्षित रिहाई हो जाए।

बकौल राजनाथ सिंह- 'प्रदर्शन के पीछे कांग्रेस थी।' कांग्रेस ने तब ऑन रिकार्ड कहा था- सरकार संकट से निपटने को उचित फैसला ले। उन्हीं हालत में तीन आतंकियों को छोड़ने की सौदेबाजी हुई। अब कांग्रेस का सवाल उठाना वक्ती पैंतरेबाजी है। आतंकवादी नफरत के पात्र हैं। हर भारतीय उन्हें इसी भाव से देखता है लेकिन दिग्विजय सिंह और राहुल गांधी उन्हें सम्मान क्यों दे रहे हैं। ऐसे में भाजपा के इन आरोपों को कोई नकारे भी तो किस तरह कि कांग्रेस का हाथ अब आतंकियों के साथ है। अगर कांग्रेस ने मसूद अजहर को छोड़ने का बेजा दबाव नहीं बनाया होता तो न तो जैश ए मोहम्मद का जन्म होता और न ही मुंबई जैसे बड़े हमले होते। चुनाव तो होते रहेंगे लेकिन देश की सुरक्षा अहम है। इससे खिलवाड़ करने की इजाजत किसी को भी नहीं दी जा सकती। सेना का मनोबल गिराने से अच्छा यह होगा कि विपक्ष आतंक पीड़ितों के साथ खड़ा होता। कांग्रेस के दो प्रधानमंत्री आतंकवादियों की नफरत का शिकार हुए हैं। इसके बावजूद उसके नेताओं के अनर्गल विवाद अचंभित तो करते ही हैं। 

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