गीता को जानें:कर्मों के प्रभाव से बचने के लिए कर्म करना होगा
ओमप्रकाश श्रीवास्तव
कर्मों के प्रभावों से बचने के लिए कर्म ही त्याग देने की त्रुटिपूर्ण सोच समाज में व्याप्त हो चुकी थी। समाज से, अपने कर्तव्यों से पलायन को ही संन्यास समझा जाता था और उसे सम्मान प्राप्त होता था। इस विपरीत सोच का निवारण करने के लिए भगवान् कहते हैं- “मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किए बिना निष्कर्मता प्राप्त करता है और न केवल कर्मों के त्याग (संन्यास) द्वारा ही सिद्धि को प्राप्त होता है” (गीता 3.4)।
नदी को तैरकर पार करना है तो पहले नदी में उतरना पड़ेगा। नदी के किनारे खड़े रहने से नदी पार नहीं हो सकती। इसी तरह निष्कर्मता की प्राप्ति कर्म करके ही हो सकती है, कर्म त्याग करके नहीं। आरंभ में कर्म आवश्यक है। कर्म आरंभ कर दिया तो उसे बीच में त्यागा नहीं जा सकता। नदी में उतर गए तो दूसरे किनारे तक तैरे बिना नदी पार नहीं की जा सकती।
कर्म होते हुए भी भीतर से कर्मशून्यता की स्थिति ही वह रहस्य है जिसका उद्घाटन गीता में किया गया है। गीता के अनुसार निष्कर्मता (नैष्कर्म्य) का अर्थ कर्म-त्याग नहीं है, बल्कि इस प्रकार कर्म करना है कि कर्म होते हुए भी कर्म न हो-वह अकर्म बन जाए। नैष्कर्म्य चेतना की ऐसी उच्च अवस्था है जिसमें कर्म तो हो रहे हैं, किंतु हमारी बुद्धि उनमें लिप्त नहीं होती, इसलिए वे कर्म हमें प्रभावित नहीं कर पाते।
प्रकृति के कारण कर्म निरंतर होते रहते हैं, परंतु यदि वे कर्म हमें प्रभावित नहीं करते तो हमारे लिए उनका कोई अर्थ नहीं रहता। इस अवस्था में पुरुष उनका कर्ता नहीं बनता। वह ऊपर उठकर प्रकृति के उन कर्मों का साक्षी बन जाता है। यही निष्कर्मता है।
गीता के अनुसार निष्कर्मता कर्मों का अभाव नहीं, बल्कि कर्मों के बंधन का अभाव है। कर्म स्वयं निरपेक्ष होते हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक कर्म बंधन का कारण है और अमुक नहीं। कर्म बंधनकारी होगा या नहीं—अर्थात् चित्त को विचलित करेगा या नहीं, उस पर संस्कार बनाएगा या नहीं—यह उस कर्म के पीछे की चित्त-दशा पर निर्भर करता है (चित्त निर्दोष है या नहीं, उसमें कामना और आसक्ति है या नहीं)। इस प्रकार बंधन का कारण कर्म नहीं, बल्कि उसके पीछे की मनोदशा होती है।
कामना-रहित कर्म हमें प्रभावित नहीं करता, अर्थात् वह बंधनकारी नहीं होता। कर्म बीज है और कामना वह मिट्टी है जिसमें लिपटकर यह बीज अंकुरित होकर जन्म-मरण के चक्र को जन्म देता है। भला भूमि के बिना कोई बीज कैसे अंकुरित हो सकता है? जब तक कर्म अपने स्वार्थ के लिए किए जाते हैं, तब तक वे कामना-रहित नहीं हो सकते। जब वही कर्म दूसरों के हित में, भगवान् की प्रसन्नता के लिए समर्पित होकर किए जाते हैं, तब निष्कर्मता की स्थिति प्राप्त होती है।
नदी के किनारे खड़े रहने से नदी पार नहीं हो सकती। इसी तरह निष्कर्मता की प्राप्ति कर्म करके ही हो सकती है, कर्म त्याग करके नहीं। आरंभ में कर्म आवश्यक है। कर्म आरंभ कर दिया तो उसे बीच में त्यागा नहीं जा सकता। नदी में उतर गए तो दूसरे किनारे तक तैरे बिना नदी पार नहीं की जा सकती।
यह कर्मयोग की सिद्धि की अवस्था है। कर्म जब कामना और आसक्ति के अधीन होते हैं तो बंधन देते हैं, और जब वही कर्मयोग की पद्धति से किए जाते हैं तो मुक्ति के प्रदाता बन जाते हैं।
जैसे पारे का सेवन ज़हर का काम करता है, परंतु उसी पारे को जब शोधित कर लिया जाता है तो वह अनेक बीमारियों की औषधि बन जाता है। इसी तरह कर्म को कर्मयोग से शोधित करके नैष्कर्म्य नामक औषधि बनाई जाती है। जहाँ कर्म बंधन देता है, वहीं नैष्कर्म्य मुक्ति देता है। कर्म थकाता है, विचलित करता है और बंधन देता है। कर्मयोग से प्राप्त नैष्कर्म्य स्फूर्ति देता है, समत्व देता है और मुक्त करता है।
भगवान् कहते हैं कि नैष्कर्म्य की सिद्धि तब मिलती है जब कर्म पूरी शक्ति और स्फूर्ति से किए जाएँ, उनका आधार कामना और आसक्ति न हो, और उन्हें बीच में न छोड़ा जाए।
एक व्यक्ति साधु के पास चेला बनने गया। साधु ने उसे कई कार्य बताए—आश्रम की सफ़ाई करना, गौशाला में काम करना, भोजन बनाने में सहायता करना, गुरु की सेवा करना आदि। उस व्यक्ति को ये काम कठिन लगे। उसने पूछा, “चेला तो यह सब करता है, पर गुरु क्या करता है?” साधु ने कहा, “गुरु जप-तप करता है, दीक्षा देता है और चेलों की सेवा ग्रहण करता है।” वह व्यक्ति बोला, “तो मुझे सीधा गुरु बना दीजिए।” साधु हँसकर बोले, “अरे भाई, चेला बने बिना गुरु बनने की योग्यता कैसे आएगी?” इसी तरह कर्म किए बिना कर्मरहित अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती।
ज्ञानमार्गी आचार्य शंकर कहते हैं कि कर्म से आत्मा के स्वरूप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि आत्मा अविनाशी और अविकारी है। आत्मा का प्रकाश अंतःकरण के माध्यम से प्रकट होता है। अशुद्ध चित्त, अस्थिर बुद्धि और विचलित अंतःकरण आत्मा के प्रकाश को विकृत कर देते हैं। कर्मयोग की विधि से किए गए कर्म इंद्रियों, मन और बुद्धि को शुद्ध करते हैं। इससे आत्मा का स्वरूप प्रकट होता है। उनके अनुसार कर्म की उपयोगिता चित्त-शुद्धि में है, और शुद्ध चित्त में ज्ञान प्रकट होता है, जो मोक्ष का कारण बनता है।
जबकि कर्ममार्गी मानते हैं कि कर्म स्वयं अकर्म बनकर मोक्ष प्रदान करता है। इन दार्शनिक विमर्शों में उलझे बिना भी यह समझा जा सकता है कि कर्म के विष-दंत हैं—कामना, ममता और आसक्ति। इनके समाप्त होते ही कर्म अकर्म में बदल जाता है। ऐसा कर्मयोगी संसार में घोर कर्म करता हुआ भी चित्त की समता में स्थित रहता है। वह न विचलित होता है, न चिंतित। उसका कर्म अधिक प्रभावी और कल्याणकारी बन जाता है।
अतः सिद्धि प्राप्त करने के लिए कर्म का त्याग नहीं करना है। कर्म पूरे उत्साह और शक्ति से करना है। अंतर केवल इतना है कि कर्म कर्तापन और कर्मफल में आसक्ति का त्याग करते हुए किया जाए।
निष्कर्मता की प्राप्ति पर व्यक्ति कर्म करता हुआ भी उनसे प्रभावित नहीं होता, इसलिए इसे कर्मों का समाप्त हो जाना कहा गया है। बाहर से कर्म होते दिखते हैं, पर भीतर से वह निष्कर्मता की अवस्था में रहता है। यदि इस अवस्था से पहले ही कर्म त्याग दिए जाएँ तो वह अकर्मण्यता और पलायन होगा, जो सांसारिक और आध्यात्मिक—दोनों जीवनों में पतन का कारण बनेगा।
श्रीरामकृष्णदेव कहते थे कि जब घाव भरने लगता है तो उस पर पपड़ी जम जाती है, और जब घाव पूरी तरह ठीक हो जाता है तो पपड़ी अपने आप झड़ जाती है। यदि समय से पहले पपड़ी हटा दी जाए तो घाव फिर से हरा हो जाता है। इसी तरह कर्मयोग की पद्धति से—कर्म में अभिमान और कर्मफल में आसक्ति का त्याग कर—कर्तव्यकर्म करते रहना चाहिए। ज्ञान आने पर कर्म अपने आप झड़ जाते हैं। यदि पहले ही कर्म त्याग दिए जाएँ तो जीवन सेप्टिक हो जाएगा। कर्म छोड़ देने से न ज्ञान आता है, न मुक्ति मिलती है।