शमशाद बेगम : आज भी कायम है सुरों की शहजादी का जादू

प्रदीप सरदाना वरिष्ठ पत्रकार एवं फिल्म समीक्षक

Update: 2023-04-22 10:24 GMT

वेबडेस्क। ‘मेरे पिया गए रंगून, वहाँ से किया टेलीफून’ गीत आज से 74 साल पहले आया था। लेकिन यह गीत आज भी इतना लोकप्रिय है कि नयी पीढ़ी भी इसे सुन झूम उठती है। कितने ही रियलिटि शो के साथ रेडियो, डीजे और रीमिक्स के रूप में आज भी इस गीत की मधुरता कानों में रस घोल देती है। जबकि आज दुनिया टेलीफोन से मोबाइल युग में भी बहुत आगे निकल चुकी है। यहाँ तक जिस बर्मा देश के शहर ‘रंगून’ की बात गीत में की गयी है, वह देश बर्मा भी अब म्यांमार बन चुका है। कभी रंगून वहाँ की राजधानी हुआ करता था। लेकिन रंगून अब वहाँ की राजधानी भी नहीं है। यहाँ तक रंगून का नाम भी अब यांगुन हो चुका है। लेकिन इतने बदलाव के बाद भी यह गीत आज भी अविस्मरणीय है और रंगून को भी इसने अमर बना दिया है।

‘पतंगा’ फिल्म के इस गीत की बरसों बाद भी लोकप्रियता बरकरार रहने का सबसे बड़ा कारण है, गायिका शमशाद बेगम। जिन्होंने अपने सुरों से इस गीत को कालजयी बना दिया। यूं संगीतकार सी रामचन्द्र का संगीत भी दिलकश है। लेकिन इस गीत में सी रामचन्द्र से ज्यादा श्रेय शमशाद बेगम को जाता है।शमशाद बेगम फिल्म संगीत इतिहास का एक ऐसा पन्ना हैं, जो बहुत पुराना हो चुका है। लता मंगेशकर और आशा भोसले जैसी गायिकाओं ने लोकप्रियता-सफलता का ऐसा इतिहास लिखा कि लगा था उनसे पहले की या उनकी समकालीन गायिकाओं को लोग भूल ही जाएँगे। लेकिन यह शमशाद बेगम और उन जैसी कुछ और गायिकाओं की असाधारण प्रतिभा के सुरों का जादू है जो उन्हें कभी भूलने नहीं देगा।

प्रदीप सरदाना 

शमशाद बेगम ने अपनी ज़िंदगी में लगभग 2000 गीत गाये। लेकिन उनके खाते में एक से एक खूबसूरत गीत है। उनके कुछ गीत तो सदाबहार हैं। जैसे ‘कभी आर कभी पार‘, ‘मेरी जान संडे के संडे‘, ‘ओ गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हांक रे‘, ‘कजरा मोहब्बत वाला‘, ‘ले के पहला पहला प्यार‘ और ‘सैंया दिल में आना रे‘। ये गीत आज रेडियो पर भी खूब बजते हैं और इन गीतों के कारण रीमिक्स इंडस्ट्री भी खूब पनप गयी।आज इन्हीं महान गायिका की दसवीं पुण्यतिथि है। 23 अप्रैल 2013 को जब मुंबई में उनका निधन हुआ तब वह 94 बरस की थीं। वह गीत गाना तो अपने निधन से बरसों पहले छोड़ चुकी थीं। इसलिए तब बहुत से लोग ये समझते थे कि शमशाद इस दुनिया में ही नहीं हैं। क्योंकि वह बरसों से अपनी ज़िंदगी गुमनामी में जी रही थीं। पवई, मुंबई के हीरानंदानी में वह अपनी बेटी उषा और दामाद कर्नल योगराज बत्रा के साथ रह रही थीं।

असल में शमशाद अपने शिखर पर रहते भी प्रचार से दूर रहती थीं। यहाँ तक वह बरसों तक अपनी फोटो भी सार्वजनिक करने से बचती रहीं। उन्हें लगता था वह खूबसूरत नहीं हैं। इसलिए लोग उनका चेहरा ना देखें तो अच्छा है। लेकिन बाद में उनकी तस्वीरें सामने आने लगीं तो वह चुप रह गईं।शमशाद बेगम की एक खास बात यह भी है कि वह देश की उन गिनी चुनी गायिकाओं में से थीं जिन्होंने सही मायनों में फिल्मों में पार्श्व गायन की बड़ी शुरूआत की। उनसे पहले कई अभिनेत्रियां खुद ही अपने गीत गाती थीं। लेकिन शमशाद और उन जैसी कुछ और गायिकाओं के सुरीले सुरों ने फिल्मों में प्लेबैक को बेहद लोकप्रिय बना दिया।

शमशाद बेगन का जन्म 14 अप्रैल 1919 को पंजाब के अमृतसर में हुआ था। यानि अमृतसर के जलियांवाला बाग हत्याकांड के ठीक एक दिन बाद। संगीत का शौक उन्हें बचपन से ही था। थोड़ा बड़ा होने पर उन्हें के एल सैगल के गीत अपनी ओर खींचने लगे। देखते-देखते शमशाद, के एल सैगल की इतनी जबरदस्त फैन हो गई कि उन्होंने 1936 में आई के एल सैगल, जमुना बरूआ और राजकुमारी की ‘देवदास‘ को 14 बार देख डाला। तब शमशाद 18 बरस की थी। हालांकि उन्होंने अपना गायकी का सफर 1933 में ही शुरू कर दिया था। वह मुस्लिम परिवार से थीं। इस कारण वह हजरत मोहम्मद साहब की प्रार्थना में गाया जाने वाला नार इतना तनमय होकर गाती थीं कि जो भी उन्हें सुनता उनकी गायकी का होकर रह जाता। जब उस समय के जाने माने सारंगी वादक उस्ताद हुसैन बक्सेवाला ने शमशाद की खनकती आवाज सुनी तो उन्होंने शमशाद को अपना शार्गिद बना लिया।

सन् 1937 में तो उन्हें ऑल इंडिया रेडियो में भी गाने का मौका मिल गया। जबकि उस समय रेडिया पर अपनी परफॉरमेंस के लिए बड़े से बड़े संगीतज्ञ तरसते थे। बाद में लाहौर के संगीतकार गुलाम हैदर ने जब शमशाद के नाम की धूम सुनी तो उन्होंने सन् 1941 में फिल्म ‘खजांची‘ में शमशाद को पार्श्व गायिका के रूप में मेजर ब्रेक दे दिया। पंचोली आटर्स की इस फिल्म में 9 गीत थे और सभी गीत शमशाद के गाए थे। इन गीतों में ‘एक कली नाजों से पली‘, ‘मन धीरे-धीरे रोना‘ तो काफी लोकप्रिय हुए। फिर 1942 में आई ‘खानदान‘ फिल्म में भी गुलाम हैदर ने शमशाद से गाने गवाए। जबकि इस फिल्म की नायिका नूरजहां थीं जो अपने गाने खुद गाती थीं। फिर भी नूरजहां के साथ शमशाद ने भी फिल्म में दो गीत गाए। उसके बाद शमशाद ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा।

जब सभी संगीतकार शमशाद के दीवाने हो गए 

सन् 1944 में गुलाम हैदर लाहौर से मुम्बई आ गए तो वह शमशाद को भी तभी मुम्बई ले आए। जहां उन्होंने मुम्बई में ‘हुमायूं‘ फिल्म में ‘नैना भर आए नीर‘ उनसे गवाया। उधर गुलाम हैदर तो देश विभाजन के बाद लाहौर लौट गए मगर शमशाद की आवाज सुन मुम्बई के सभी संगीतकार उनके दीवाने से हो गए। अनिल बिस्वास, ओ.पी. नैययर, हुस्नलाल भगत राम, नौशाद, सी रामचन्द्र, राम गांगुली और एस.डी. बर्मन जैसे संगीतकारों में शमशाद को अपने लिए गवाने में मानो होड़ सी मच गई।

सी रामचन्द्र जैसे संगीतकार ने शमशाद की आवाज़ की विविधता को पहचानते हुए उनके पाश्चात्य संगीत में ऐसे गीत गवाए जो बेहद लोकप्रिय हुए। साथ ही उन गीतों ने भारतीय फिल्म संगीत की दुनिया नए रंगों से भर दी। ‘मेरी जान संडे के संडे‘ वेस्टर्न म्यूजिक पर आधारित पहला फिल्म गीत माना जाता है।

सी रामचन्द्र के बाद शमशाद के सुरों की विविधता को जिन संगीतकारों ने सबसे ज्यादा पहचाना वे हैं ओ.पी. नैययर और नौशाद। अपने सबसे ज्यादा गीत भी शमशाद ने इन्हीं दो संगीतकारों के साथ गाए। नौशाद के साथ शमशाद ने जिन फिल्मों में गाया उनमें तीन फिल्में तो हिन्दी सिनेमा की ग्रेट क्लासिक फिल्में हैं ‘बैजू बावरा‘, ‘मदर इंडिया‘ और ‘मुगल-ए-आजम‘। फिल्म ‘मुगल-ए-आजम‘ की मशहूर कव्वाली ‘तेरी महफिल में किस्मत अजमा कर हम भी देखेंगे‘ को शमशाद और लता ने मिल कर गाया। नौशाद के साथ शमशाद की ‘आन‘, ‘दीदार‘, ‘बाबुल‘ और ‘दुलारी‘ जैसी और भी कई हिट फिल्में हैं। उधर ओ.पी. नैयर ने तो शमशाद के साथ कई सुपर हिट गीत दिए। जिनमें ‘कभी आर कभी पार‘, ‘ले के पहला पहला प्यार‘, ‘बूझ मेरा क्या नाम रे‘, ‘कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना‘ और ‘रेशमी सलवार कुरता जाली का‘ प्रमुख हैं।

शमशाद के गीतों पर जमाना झूम रहा था। मगर शमशाद तब बुरी तरह टूट गई जब उनके पति गनपत लाल का सन् 1955 में निधन हो गया। इससे उन्होंने धीरे-धीरे गाना कम कर दिया। सन् 1961 में तो उन्होंने गीत गाना छोड़ ही दिया। पर सन् 1968 में जब ओ पी नैयर फिल्म ‘किस्मत‘ का संगीत दे रहे थे तो उन्होंने शमशाद से एक बार फिर गाने का अनुरोध किया तो वह मान गई और उन्होंने आशा भौंसले के साथ ‘कजरा मोहब्बत वाला‘ गीत गाया जो आज तक लोकप्रिय है।शमशाद जितनी अच्छी गायिका थीं उतनी ही अच्छी इंसान भी थीं। वह अपने जमाने की स्टार सिंगर थीं और उन्हें एक समय में सबसे ज्यादा पारिश्रमिक मिलता था फिर भी उन्होंने कभी नखरा नहीं किया। यह सुखद है कि सन् 2009 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पदमभूषण‘ देकर उन्हें सम्मान दिया। सन् 2009 में ही उन्हें ‘ओपी नैयर फाउंडेशन‘ ने भी उन्हें पुरस्कार दिया।

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