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कुर्बानी या बलि इन बेजुवानों की ही क्यों? अपनी क्यों नहीं?

Update: 2020-08-02 16:54 GMT


विजय कुमार गुप्ता

मथुरा। कुर्बानी या बलि इन बेजुबानों की ही क्यों दी जाती है अपनी स्वयं की क्यों नहीं? यह प्रश्न अक्सर लोगों के जहन में कौंधता रहता है। कुर्बान होना या बलिदान होना स्वयं के लिए होता है ना कि किसी दूसरे के लिए और दूसरा भी अपने परिवार का नहीं, एक निरीह बेजुबान प्राणी जो न तो अपनी हत्या की रिपोर्ट लिखा सकता है और ना ही अदालत में मुकदमा दर्ज करा सकता है।

जरा सोचिए कि यदि हम अपने भगवान अल्लाह या अन्य किसी को कुछ भेंट करना चाहते हैं तो अपने घर में से देंगे या पड़ोसी के घर में से लूट कर फिर दान करेंगे? ठीक यही स्थिति यहां पर है। ये कुर्बानी या बलि शब्द ही गलत है। यह तो सरासर हत्या है। कहते हैं कि फलां व्यक्ति देश की खातिर बलिदान हो गया या फलां ने औरों की खातिर अपनी कुर्बानी दे दी तो क्या वह किसी अन्य के लिए कहा जाता है? नहीं, खुद के लिए इस शब्द का इस्तेमाल होता है लेकिन इन निरीह बेजुवान प्राणियों की सरेआम हत्या करके यह बड़े इतराते और इठलाते हैं। ऐसे लोग तो इंसान कहलाने लायक भी नहीं। इनसे बड़ा शैतान कोई हो नहीं सकता।

जिस प्रकार हिन्दुओं में सती प्रथा समाप्त हुई और बलि प्रथा भी अब प्रायः समाप्त सी हो गई है। शायद नाम मात्र की रह गई है, वह भी शीघ्र ही समाप्त होनी चाहिए। इसी प्रकार मुसलमानों में भी कुर्बानी की प्रथा समाप्त होनी चाहिए। यह उन्हीं के हित की बात है क्योंकि यह एकदम सत्य है कि जैसा हम किसी के साथ करेंगे वैसा ही सलूक आगे चलकर हमारे साथ होना है और ब्याज समेत होना है। यानीं जैसा बोओगे वैसा काटोगे।

उदाहरण के लिए एक आम की गुठली को बो दो और जब वह वृक्ष होकर फल देता है तो प्रतिवर्ष सैकड़ों ही नहीं हजारों आम के फल आते हैं। ठीक उसी प्रकार हमारे साथ सलूक होना है। यानीं कि जितनी बार हम इन निरीह प्राणियों की हत्या करेंगे उससे कहीं अधिक सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों बार यह निरीह प्राणी मनुष्य बनेंगे और हम हत्यारे लोग इन्हीं के हाथों कटेंगे बकरा और अन्य पशु बनकर। यह ध्रुव सत्य है। भले ही कोई माने या ना माने।

रावण जैसे अत्याचारी और अन्यायी ने भी शिवजी को प्रसन्न करने के लिए अपना सर काट कर दिया था और दसों बार दूसरा सर उग आया। इसीलिए रावण को दशानन कहा जाता है। क्या ऐसा नहीं लगता कि हम लोग इतना बड़ा जघन्य अपराध कर रहे हैं कि इस अपराध से पीछा छुड़ाते-छुड़ाते युग के युग बीत जाएंगे। एक और बात याद रखो कि पूरी पृथ्वी का मालिक ईश्वर है और सभी प्राणी ईश्वर के बनाए हुए हैं। जब ईश्वर के बनाऐ इन निरीह प्राणियों की ऐसी जघन्य हत्या होगी तो क्या ईश्वर को बुरा नहीं लगेगा?

यह भी याद रखो कि जब इन निरीहों की हत्या होती है तब यह कितना चीत्कार और करुण क्रंदन करते हैं? बहुत से राक्षस तो इनका मुंह बंद करके इनको काटते हैं ताकि यह चिल्ला भी न सकें। ये मौन चीत्कार तो और भी भयानक होता है। प्रकृति भी इस मौन चीत्कार से क्रुद्ध होकर अपना रौद्र रूप धारण कर लेती है और विध्वंस कर डालती है। यह कोरोना की महामारी और क्या है, यही तो प्रकृति का कोप है। अगर हम अब भी नहीं समझेंगे तो फिर तब समझेंगे जब सब कुछ खेल खत्म हो जाएगा। अब पछताऐ होत क्या जब चिड़िया चुग गईं खेत।

आज रक्षाबंधन का पर्व है। इस महापर्व के अवसर पर हम सभी मिलकर इन निरीह प्राणियों की रक्षा का वृत लें। इससे बड़ी सार्थकता इस महापर्व के लिये और कुछ हो नहीं सकती।


बेजुबानों की जुबान हैं मेनका


मेनका गांधी इन बेजुबानों की जुबान बनी हुई हैं। इन्होंने इन निरीह प्राणियों की आवाज को पूरी दुनियां में जिस प्रकार बुलंद किया है उससे लगता है कि यह देवदूत बनकर आई हैं।

आगे चलकर मेनका गांधी का नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा। जो अलख इन्होंने जला रखी है, वह अलख रूपी मशाल हमेशा जलती रहे और पूरी दुनिया में सुख शांति और अमन चैन की गंगा बहती रहे। ईश्वर उन्हें शतायु करें।  

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