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अखिलेश ने दिखाई अपरिपक्वता, चाचा व पिता की सलाह भी न मानकर की गलती

Update: 2019-06-04 14:04 GMT

लखनऊ/उपेन्द्र राय। हर व्यक्ति के जेहन में दाे जून 1995 को हुआ गेस्ट हाउस कांड आज भी तैर रहा है, जब सपा नेताओं ने मायावती को पीटा था और भाजपा नेता ब्रह्मदत्त द्विवेदी की वजह से उनकी जान बची थी। लाल जी टंडन ने भी उस समय मायावती के पक्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उसके बाद बहुत दिनों तक मायावती भाजपा नेता लाल जी टंडन को राखी बांधती रहीं। उस समय भाजपा ने राजनीतिक तौर पर भी सहारा दिया था।

साल 2003 की बात है जब उत्तर प्रदेश में बीएसपी और बीजेपी की मिली-जुली सरकार चल रही थी। मायावती मुख्यमंत्री थीं और भाजपा के लालजी टंडन, ओमप्रकाश सिंह, कलराज मिश्र, हुकुम सिंह जैसे नेता कबीना मंत्री थे। यह सरकार 2002 के विधानसभा चुनाव में त्रिशंकु विधानसभा का परिणाम थी। इसमें समाजवादी पार्टी को 143, बीएसपी को 98, बीजेपी को 88, कांग्रेस को 25 और अजित सिंह की रालोद को 14 सीटें मिली थीं। किसी भी पार्टी की सरकार न बनते देख पहले तो राष्ट्रपति शासन लगा लेकिन फिर बीजेपी और रालोद के समर्थन से तीन मई, 2002 को मायावती मुख्यमंत्री बन गईं। बाद में भाजपा के साथ बढ़ते तनाव के बीच 26 अगस्त, 2003 को मायावती ने कैबिनेट की बैठक बुलाकर विधानसभा भंग करने की सिफारिश के साथ राज्यपाल को अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया।

2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में बसपा का खाता भी नहीं खुला, इसलिए 2019 के लोकसभा चुनाव में अब फिर जब बसपा डूबने के कगार पहुंची तो इस बार सपा को सीढ़ी बनाकर पार्टी को जिंदा करके 10 सीट पाते ही सपा से अलग होने की घोषणा कर दी।

लखनऊ के गेस्ट हाउस कांड के बाद दोनों पार्टियां ही नहीं उनके समर्थक भी एक दूसरे के विरोधी बने रहे। इस बार भाजपा के बढ़ते जनाधार के कारण दोनों पार्टियों ने हाथ तो मिलाया लेकिन चुनाव नतीजे बताते हैं कि गठबंधन के बावजूद दोनों दलों के वोट एक दूसरे को शिफ्ट नहीं हुए यानी दोनों पार्टियों के मुखिया राजनीति के मंच पर भले एक हुए लेकिन दोनों ही दलों के कार्यकर्ताओं के दिलों की दूरियां कम नहीं हुईं। आखिरकार यही आरोप लगाते हुए मंगलवार को मायावती ने गठबंधन तोड़कर अखिलेश यादव को तुरंत अलग झटक दिया। इतिहास गवाह है कि मायावती हमेशा से डिक्टेटरशिप की भूमिका में रही हैं और हर कार्य में सिर्फ अपना फायदा जानती हैं। इस गठबंधन में भी मायावती ने अपना फायदा देखा और मकसद पूरा होते ही खुद को अलग कर लिया। यहां हर जगह अखिलेश यादव एक अपरिपक्व नेता की भूमिका में दिखे, जबकि मायावती ने हर कदम पर परिपक्वता दिखाई।

'गठबंधन तो टूटना ही था'

दोनों दलों में 25 साल की दूरियों के बाद अखिलेश ने जब इस लोकसभा चुनाव में बसपा से हाथ मिलाया तो मुलायम सिंह यादव ने पहले ही गठबंधन से सचेत रहने की चेतावनी दी थी लेकिन अखिलेश ने अनसुना कर दिया। इस संबंध में राजनीतिक वरिष्ठ पत्रकार विजय पांडेय का कहना है कि जब मायावती अपने स्वार्थ में भाजपा के साथ नहीं रह सकीं तो फिर ऐसे में वे सपा के साथ कैसे रह सकती हैं। यह तो गठबंधन टूटना ही था। हां यह जरूर है कि इसमें हर कदम पर अखिलेश यादव ने अपरिपक्वता दिखाई, जबकि मायावती अपना हित साधने में कामयाब रहीं।

मायावती चाहती थीं कि उप चुनाव में सपा दे समर्थन

यह भी सोचनीय पहलू है कि कभी भी उप चुनावों में हिस्सा न लेने वाली मायावती ने इस बार उप चुनाव में अकेले लड़ने का फैसला किया है। साथ ही सपा को सुधरने की नसीहत दे दी। वरिष्ठ पत्रकार अनिल सिंह राणा ने 'हिन्दुस्थान समाचार' से बातचीत में कहा कि मायावती ऐसा करके यह चाहती हैं कि इस बार विधानसभा के उप चुनाव में बसपा सभी सीटों पर लड़े और सपा उसे समर्थन करे। इसके लिए जरूरी था कि अखिलेश यादव को अपरिपक्व और उनके यादव वोटरों को उनके वश में न होना बताया जाय लेकिन अखिलेश यादव ने भी अकेले मैदान में उतरने की घोषणा कर दी है।

अपने समर्थकों को खुश करने में बसपा रही कामयाब

वरिष्ठ पत्रकार सुनील शर्मा का कहना है कि सपा ने यह घोषणा देर से की है जिससे उनके समर्थकों में नाराजगी है, लेकिन बसपा अपने समर्थकों को खुश करने में कामयाब रही। सपा की समीक्षा बैठक पहले हुई थी, इसलिए उसको उसी समय संकेत कर देना चाहिए था। मायावती शिवपाल सिंह यादव को पुन: सपा में लाने के संकेतों को समझ गईं और उन्होंने सपा पर आरोप लगाते हुए खुद को अलग करने की घोषणा पहले करके अखिलेश को 'सियासी मात' दे दी। (हि.स.)

 

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