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ज्ञान हंसी ठिठोली नहीं, सत्य का स्तंभ है

डॉ. लोकेश तिवारी

Update: 2023-02-24 15:06 GMT

आज हम जिस समाज में रह रहे हैं, उसमें सूचना तकनीक के प्रसार से विश्व को एक सूत्र में पिरो दिया है। सूचना का तंत्र विकसित हुआ है, जिसे इंटरनेट की सहायता से कहीं भी साझा कर सकते हैं। फलत: इस तकनीकी प्रभाव से कुछ अल्पज्ञ पुरुष स्वयं को परम ज्ञानी समझ बैठे हैं, इसका कारण भी है कि वह सूचनाओं को ही ज्ञान मान लिए हैं, लोक मनोरंजन को ही श्रेष्ठ कर्म मान लिए हैं। इस निमित्त वह अपनी रुचि की पुस्तकों के सूत्रों से अपनी बात का समर्थन भी व्यक्त करते हैं। स्वयं को सत्य के प्रवर्तक होने का अभिमान मन में पालकर आत्मश्लाघा में निमग्न हो जाते हैं। फलत: वह ज्ञान से कोसों दूर हो जाते हैं और आत्ममुग्ध ज्ञानी का चोगा ओढ़ लेते हैं।

हमारी भारत भूमि पर ज्ञान की खोज की सुदीर्घ परंपरा रही है। यहां के मनीषी और दार्शनिक आजन्म साधनारत् रहकर अपने मत का प्रतिपादन करते हैं। शंकराचार्य ने इसी ज्ञान परंपरा को अद्वैत वेदांत मत के माध्यम से व्यक्त किया। जिसमें ब्रह्म सत्यं, जगत् मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर: का केंद्रीय आधार है। केवल और केवल ब्रह्म परमात्मा ही सत्य जगत मिथ्या है। जीव और ब्रह्म में जो भेद है, वह केवल भाषा के कारण है। जब ज्ञान की साधना से माया का प्रभाव विलीन होता है, तब जीव अहम् ब्रह्मास्मि के बोध को प्राप्त करता है। यह ठीक वैसे ही है जैसे जब एक मनुष्य गहरी नींद में सो रहा होता है और सपने में शेर उसके पीछे पड़ जाता है, तब वह पसीना पसीना हो जाता है लेकिन जागने पर वह पुन: अपने स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। ठीक वैसे ही संसार की क्रियाओं को अपना ज्ञान जागृत कर जीव उनसे अप्रभावित हो जाता है।

वर्तमान समय में एक कथा वाचक स्वयं को सर्वज्ञ निरूपित कर रहे हैं तथा एक पूरी की पूरी परंपरा का मूल्यांकन एक शब्द में प्रस्तुत कर दिए हैं। यह अत्यंत चिंतनीय और निराशाजनक है, क्योंकि ज्ञान कभी हठी और दंभी नहीं होता तथा ज्ञान और विषयों का ज्ञान भी एक समान नहीं होता। संसार में कई विषय हैं जिनका सांसारिक प्राणी एक साथ ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। एक गणितज्ञ है तो एक अर्थशास्त्री और कई विषय तो ऐसे हैं जो समझ से ही परे हैं। ऐसे में कुमार विश्वास द्वारा कुपढ़ और अनपढ़ जैसे शब्दों का प्रयोग उनकी मानसिक विक्षिप्तता को व्यक्त करता है। महात्मा बुद्ध ने भी जीव जगत आदि के संबंध में कुछ प्रश्नों का उत्तर ना होने के चलते उन्हें अव्यक्त ब्रह्म कहा। जिन प्रश्नों का पूर्ण उत्तर नहीं हो सकता, उन पर वाचालता ना करना ही उचित है। इस संबंध में प्रख्यात संत रहीम दास जी स्पष्ट लिखते हैं-

रहिमन बात अगम्य की कहन सुनन की नाहि।

जानत है सो कहत नहीं, कहत सो जानत नाहि।।

अभिप्राय यह है कि पूर्ण ज्ञान को अलौकिक शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता और सांसारिक जीव ब्रह्म अनुभवहीन होने के कारण उसे आत्मसात भी नहीं कर सकता। पुन: इस सत्य ज्ञान का संबंध पुस्तकीय ज्ञान से बिल्कुल नहीं है, यह तो आत्म साधना से आत्मज्ञान जागृति पर ही प्रकाशित होता है। यही कारण है कि महान संत कबीर दास जी ने स्पष्ट लिखा-

मसि कागद छुओ नहीं, कलम गह्यो नहि हाथ।

ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना की अंतरगता की आवश्यकता होती है, ना कि बाहरी साधनों यथा कलम और पुस्तकों की। जैसे वैज्ञानिक आविष्कार विचार और क्रिया से निष्पन्न होते हैं, वैसे ही ज्ञान का स्वरूप और सोपान चिंतन और अभ्यास से फलित होता है। केवल रटकर और सरल व्याख्यान और लोकलुभावन शब्दों से ज्ञान की ना तो उत्पत्ति संभव है और ना ही साधना। फलत: ज्ञान एक तपस्या है जो आत्म जागरण कर जीवन को ध्येयनिष्ठ करता है।

समकालीन समय में विशेषज्ञता, अध्यापन, उपाधि आदि को ज्ञानस्थ का स्थान समाज में मिलने लगा है जो ना उचित है और ना ही धारणीय। इन विशेषज्ञों द्वारा अपने अनुसार कुछ भी कह भर देना समाज में भ्रांति और कटुता पैदा करता है। उनके द्वारा जो कहा जाता है वह सत्य तो बिल्कुल नहीं है, किंतु उनके शब्द व्यापक जन समुदाय द्वारा सुने जाने के कारण समाज में भ्रम का वातावरण निर्मित करते हैं। जिससे समाज के स्वस्थ वातावरण में बाधा प्रस्तुत होती है।

हाल ही में डॉ. कुमार विश्वास द्वारा वामपंथी को कपट और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अनपढ़ कहा गया। यह तुलनात्मक शब्द प्रयोग केवल वक्ता के दंभ को प्रदर्शित करता है और कुछ नहीं। एक मात्र छोटे से विषय का सतही ज्ञान रखकर मंचों से कौतुहल भरी उक्तियां प्रस्तुत करना ऐसे वक्ताओं का ध्येय रहता है ताकि वह चर्चा में बने रहें। लोग उन्हें भूले नहीं। एक साहित्यकार और ज्ञानवान तो कभी कटु शब्दों तक का प्रयोग नहीं करता, ऐसे दोयम दर्जे के शब्दों को चर्चा में लाकर विश्वास जी ने स्वयं जन मन से अपना विश्वास खो दिया है। अब भारतीय समाचार पत्रों और जनमानस को भी उनसे परिहार कर लेना चाहिए, ताकि झूठ और छल का कवित्व नहीं, वरन् सतत साहित्य ही जन मन में आप्लावित हो। जय भारत, जय भारतीय।

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं)

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