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JNU : तर्कहीन विरोध की राजनीति का शिकार एक शिक्षा संस्थान

आशुतोष भटनागर

Update: 2020-01-14 12:30 GMT

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई हिंसक घटनाओं के बीच राजनीति उफान पर है। आरोप-प्रत्यारोपों का दौर जारी है। मीडिया में जांच से पहले निर्णय देने का सिलसिला जारी है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय अराजकता के चलते अपनी प्रतिष्ठा के सबसे निचले पायदान पर है।

सच पूछें तो अनुच्छेद 370 के संशोधन के बाद से ही विश्वविद्यालय में प्रारंभ हुआ विरोध अब तक थम नहीं सका है। वामपंथी दल मौका तलाश रहे थे कि बड़ी संख्या में तटस्थ विद्यार्थियों को अपने पक्ष में लामबंद कर सकें। विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा बीस साल बाद की गयी फीसवृद्धि ने उन्हें यह अवसर दे दिया। सभी छात्र संगठनों ने इसका संयुक्त विरोध किया। लेकिन वाम दलों से जुड़े छात्र संगठन जब इस जुटान का राजनैतिक लाभ नागरिकता संशोधन विधेयक के विरुद्ध केन्द्र के विरोध में करने की कोशिश करने लगे तो सामान्य छात्रों ने अपने आप को इस आन्दोलन से अलग कर लिया।

आन्दोलन को छात्रों का अपेक्षित समर्थन न मिलते देख यह संगठन अराजकता पर उतर आये और छात्रसंघ ने इसकी अगुआई संभाल ली। विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा फीस वृद्धि में भारी कमी किये जाने के बाद आम विद्यार्थी इस आंदोलन से दूर होने लगा था। किन्तु वामदलों ने इसे समाप्त करने के बजाय परीक्षाओं के वहिष्कार की अपील की और जो विद्यार्थी अथवा शिक्षक परीक्षाओं में भाग ले रहे थे उनके साथ दुर्व्यवहार भी किया। कैंपस से बाहर रहने वाले छात्रों को आने पर परिणाम भुगतने की धमकी दी। इससे पहले कक्षाओं के वहिष्कार के नाम पर एक महिला प्राध्यापक को 32 घंटे तक क्लासरूम में बंधक बना कर जेएनयू की परंपराओं को कलंकित किया गया था। एक अन्य हॉस्टल वार्डन महिला प्राध्यापक को उनके घर में ही घंटों बंधक बनाये रखा गया।

परिसर में तनाव तब बढ़ा जब अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने नये सेमेस्टर में प्रवेश लेने आने वाले छात्रों की सहायता करने और वाम दलों ने उन्हें प्रवेश न लेने देने की कोशिश की। इसमें वामदलों को असफलता हाथ लगी और अधिकांश छात्रों ने प्रवेश ले लिया। अपने आंदोलन को पिटता देख खीझे वाम दलों ने तीन दिन पहले विश्वविद्यालय के सर्वर रूम को तहस-नहस कर प्रवेश प्रक्रिया को तकनीकी रूप से असंभव बना दिया। खबर यह भी है कि इसके लिये उन्होंने सर्वर रूम की देख-भाल करने वाले कर्मचारी को चाकू दिखा कर धमकाया।

आम विद्यार्थी इससे आक्रोषित था और आंदोलनकारी छात्र संगठन हताश। नतीजा 5 जनवरी को हिंसा की उस घटना के रूप में सामने आया जिसके अस्पष्ट वीडियो फुटेज पूरे देश ने देखे। घटना के तुरंत बाद कुछ चैनलों पर एकतरफा रिपोर्टिंग का दौर शुरू हो गया । गैर-भाजपा राजनैतिक दलों के नेता जितनी फुर्ती से जेएनयू और एम्स पहुंचे उससे यह संदेह होता है कि सब कुछ सुनियोजित था। इस बीच एएमयू, जामिया, जादवपुर आदि विश्वविद्यालयों में भी आंदोलन शुरू होने की खबर है। हालाँकि यह घटना के विरोध में नहीं बल्कि वामपंथी दलों के समर्थन में है।

अपने ऊपर मीडिया में लगाये जा रहे आरोपों का जवाब देने के लिये अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं ने आज एक पत्रकार वार्ता की। गत छात्र संघ चुनाव में अभाविप की ओर से अध्यक्ष पद के प्रत्याशी रहे मनीष जांगिड़ ने बताया कि छात्रावास में प्रवेश करने वाले हमलावर नाम ले-ले कर परिषद कार्यकर्ताओं को खोज रहे थे। वे जिस कमरे में चार कार्यकर्ताओं के साथ छिपे थे उसमें उन्होंने दरवाजा तोड़ कर प्रवेश किया और बुरी तरह घायल किया। मनीष के हाथ में दो फ्रेक्चर हैं। उन्होंने बताया कि सभी प्रमुख कार्यकर्ता घायल होने के कारण कल अपना पक्ष रखने में असफल रहे।

यह जांच का विषय है कि हमलावर नकाबपोश कहां से और किसके बुलावे पर परिसर में आये। सुरक्षा व्यवस्था को धता बता कर इतनी बड़ी संख्या में वे परिसर में कैसे प्रवेश कर सके, इसकी जांच भी जरूरी है। लेकिन जांच से पहले ही मीडिया में निर्णय सुना देने और एक स्थानीय घटना में प्रधानमंत्री-गृहमंत्री के नाम घसीटने की प्रतियोगिता जिस प्रकार प्रारंभ हो गयी है उससे लगता है कि शिक्षा के एक संस्थान की गरिमा की चिन्ता कम और राजनैतिक बढ़त कायम करने की कोशिश ज्यादा है। जेएनयू जैसा अंतरराष्ट्रीय स्तर का संस्थान आज तर्कहीन विरोध की राजनीति का शिकार हो अपनी प्रतिष्ठा खो रहा है। 

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