हैलोवीन का बढ़ता साया, संस्कृतियों की जंग में बच्चों का बचपन
अपर्णा विष्णु तिवारी
हर साल 31 अक्टूबर को पश्चिमी देशों में मनाया जाने वाला हैलोवीन अब भारत के दरवाजों पर भी दस्तक दे रहा है। पश्चिमी देशों में यह भूत-प्रेत वाले परिधान पहनने का दिन होता है, लेकिन आज यह हमारी अगली पीढ़ी की मानसिकता पर धीरे-धीरे असर डालने वाला एक ‘सांस्कृतिक ज़हर’ बनता जा रहा है।
हाल ही में मेरे एक परिचित ने बताया कि उनकी रहवासी सोसाइटी में उनके दरवाजे पर भूत और चुड़ैल बने 10-15 बच्चों को देखकर वे चौंक गए। ये बच्चे “ट्रिक ऑर ट्रीट” कहते हुए टॉफियाँ मांगने आए थे। परिचित ने बताया कि ये सभी कॉन्वेंट स्कूलों के छात्र थे, जिन्हें स्कूल की ओर से यह कहकर भेजा गया था कि यह एक “सीखने योग्य त्योहार” है और इसे स्कूल की एक गतिविधि के रूप में पूरा करें। माता-पिता ने भी उत्साह से बच्चों को तैयार कर भेज दिया।
पश्चिमी तामझाम की चकाचौंध
हैरान कर देने वाली बात यह है कि आज व्हाट्सएप ग्रुपों में “हैलोवीन नाइट” के निमंत्रण गूंज रहे हैं। सोशल मीडिया पर डरावने मुखौटे और जालों से सजे घरों की तस्वीरें घूम रही हैं — और यह सब आधुनिकता के नाम पर हो रहा है। अब सवाल यह है कि क्या हमने कभी अपने बच्चों को भारतीय परंपराओं से परिचित कराया? क्या उन्हें सांझी माता, गोपाष्टमी, तुलसी विवाह या देवउठनी एकादशी का अर्थ पता है?
अपनी परंपराओं से दूरी
भारत में त्योहार हमेशा समाज को जोड़ने और संस्कार देने का माध्यम रहे हैं। बच्चों का समूह जब नवरात्र में घर-घर जाकर सांझी का प्रसाद मांगता था, तो वह केवल भक्ति नहीं, बल्कि सामूहिकता और उत्सवधर्मिता का पाठ भी था। लेकिन अब वही बच्चे पश्चिमी परंपराओं की नकल करते हुए भूत बनकर मिठाई मांग रहे हैं। यह बदलाव सिर्फ बाहरी नहीं, बल्कि मानसिक है, जो धीरे-धीरे हमारी संस्कृति को भीतर से खोखला कर रहा है।
धीमा ‘सांस्कृतिक ज़हर’
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह एक धीमा जहर है, जो बच्चों की चेतना में घुल रहा है। यह मनोरंजन की आड़ में मानसिक उपनिवेशवाद का नया रूप है। जब छोटे बच्चे ईसाई त्योहारों को अपने त्योहार की तरह मनाने लगें, और माता-पिता भी इसे “ग्लोबल कल्चर” कहकर स्वीकार कर लें, तब यह चिंता का विषय बन जाता है।
सहिष्णुता बनाम समर्पण
भारत की पहचान सहिष्णुता है, पर सहिष्णुता का अर्थ अपनी जड़ों से कट जाना नहीं है। हमारे यहाँ पितरों को रोशनी से याद किया जाता है, अंधकार से नहीं। हमारे त्योहार जीवन और उत्सव के प्रतीक हैं, डर और भूतों के नहीं। महादेव भूतनाथ हैं क्योंकि वे अंधकार को साधते हैं, उसमें रमते नहीं- यही हमारी परंपरा की गहराई है।
संस्कृति की रक्षा का आह्वान
यह समय बच्चों को चेताने का है, उन्हें बताने का है कि भारत की हर परंपरा के पीछे कोई न कोई नैतिक या सामाजिक मूल्य निहित है। देवउठनी ग्यारस, गोपाष्टमी, तुलसी विवाह या कार्तिक पूर्णिमा जैसे पर्व हमारी सामूहिक स्मृति के दीप हैं, जो बुझने नहीं चाहिए।अगर हमने अभी ध्यान नहीं दिया, तो आने वाले वर्षों में हमारी संतानों को अपने ही त्योहार अजनबी लगने लगेंगे। यह सिर्फ परंपरा का नहीं, बल्कि पहचान का प्रश्न है। संस्कृति की रक्षा किसी आदेश से नहीं, चेतना से होती है — और यह चेतना आज के माता-पिता और शिक्षकों को अभी से जगानी होगी, वरना देर हो जाएगी।