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तूणीर : जंगलराज का आगाज

- नवल गर्ग, पूर्व जिला न्यायाधीश एवं वरिष्ठ स्तंभकार

Update: 2019-01-12 13:26 GMT

वन देश के विस्तृत घने बियाबान जंगल के लगभग बीचोंबीच एक छोटा - सा टापू था । इसे उस देश के लोग शांति का टापू कहते थे।

वहाँ लोकतांत्रिक मर्यादाओं के चलते पिछले पंद्रह सालों से आपसी सद्भाव भी था। सिंह का शासन। सबको यथासंभव सहज प्यार, दुलार। यही कारण था कि सबका स्नेहभाजन, प्रेम व सम्मान का पात्र भी था यह सिंह। इस दौरान सिंह के विरोध में षड्यंत्र कारी गीदड़ों - चालाक लोमड़ी व भेडिय़ों ने झूठ का सहारा लेकर जनता ( अर्थात् जंगल के छोटे बड़े जानवरों ) को बरगलाना शुरू कर दिया।

उनकी लच्छेदार बातों में जनता आ गई। पूरे नहीं केवल कुछ लोग। यद्यपि सिंह को समर्थन मिला पर पहले से कुछ कम। नतीजा यह हुआ कि सिंह इस बार विपक्ष में बैठा है और चालाक लोमड़ी, षड्यंत्रकारी भेडिय़ों, शातिर सियार सियासत के मुखियादल के सर्वेसर्वा बन गए। इमर्जेंसी की चाटुकार, असफलनाथ लोमड़ी मुखियाजी बन गईं लेकिन रिमोट रहा सियासत की जलेबी खाने के लिए बेचैन तथाकथित बाल बबुआ के हाथ में।

मुखिया के घोंसले में बैठते ही असफलनाथ ने इमर्जेंसी के दिनों को याद कराना शुरू कर दिया । गोयाकि 'चूहे को मिल गई हल्दी की गांठ और चूहा पंसारी बन बैठा।'

रिमोट पर फ्लैश चमका और राष्ट्र गीत पर प्रतिबंध। सिंह दहाड़ा, पूरे जंगल देश की जनता ने उसके साथ सुर मिलाया तो असफलनाथ जी के पैरों तले जमीन खिसकी। तुरंत प्रतिबंध वापिस। पर अभी भी दिमाग पर चढ़ी चर्बी नहीं उतरी।

परिषद् की बैठक में रिमोट के इशारे पर सारी मर्यादा, संस्कार और वैधानिक परंपराओं, इन पर आधारित नियमों को नजरअंदाज कर, घटाटोप घमंड के तले लोकतंत्र को तार - तार करते हुए इकतरफा कार्यवाही में सिंह की पूंछ पर पैर रख दिया। सिंह हतप्रभ है, निराश नहीं पर दुखी है। बाल बबुआ और असफलनाथ के असफल षड्यंत्र व घोटालों की बेमिसाल मिसाल -- आखिर कब देश और जनता की भलाई के बारे में सोचने को मजबूर होंगे ये अपरिपक्व मस्तिष्क के धनी ये बाल बबुआ जी।

वैसे कोई कह रहा था कि हो सकता है कि शायद अराजक पार्टी के अध्यक्ष बाल बबुआ जी को, गरिमामयी संवैधानिक संस्थान में झपकी लेने, उबासी लेने में व्यस्त रहते हुए जब चाहे तब आंख चलाने की सलाह उनकी पार्टी के थिंक टेंक रहे किसी विश्वस्त ने यह जताते हुए दी हो कि इससे पार्टी में युवा पीढ़ी की ज्यादा रूचि बढ़ेगी। अन्यथा क्या कारण है कि बाल बबुआ जी इस पवित्र संस्थान में बैठ कर ही आंख मारने की प्रैक्टिस कर रहे हैं ? यह कयास आधारहीन नहीं लगता। आपका क्या ख्याल है ?

खैर, बात चल रही थी कि शांति के टापू में अशांति के बीज बोने और अशांति फैलाने तथा सुशासन के प्रमुख मुद्दों को अनदेखा कर इसे जंगलराज में बदलने के लिए अराजक पार्टी के छोटे बड़े पदाधिकारी किस हद तक जा सकते हैं ? तो लगता है कि इनके इस गिरावटी रूख की सीमा नहीं है। उनकी अपनी टोकरी के अमरूद उछल - उछल कर बाहर निकलने को बेताब दिख रहे हैं, इससे असफलनाथ भी डरे हुए हैं। लेकिन अपने इस डर को दबाने के लिए वे सिंह और उनके दल को बार - बार छेड़ कर झगड़े के लिए उकसा रहे हैं। यह अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति व सत्ता लिप्सा में आकंठ डूबे इन चालाक, षड्यंत्रकारी, घोटालेबाज छुटभैये नेताओं की दबी हुई अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति के असफल प्रयास से अधिक और कुछ भी नहीं है।

उन्हें शायद अंदाज नहीं है कि जब सिंह अंगड़ाई लेते हुए यदि धीरे से भी दहाड़ा तो जंगल के इस शांति के टापू में हाल ही में सत्तासीन हुए असफलनाथ अपने सिपहसालारों के साथ इधर उधर लुढक़ते नजर आएंगे और बेचारे बाल बबुआ जी, कहीं सैर को निकल जाएंगे।

जो भी हो समय संभल कर रहने का है, ताकि झूठ और फरेब सिर नहीं उठा सकें और उठाएं तो उन्हें निर्वसन किया जा सके। लगता है सिंह इसी रणनीति पर काम करेंगे।

कबीर ने कहा है --

मन संभल संभल पग धरियो रे, इस जग में नहीं कोई अपना।।


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