आजादी की जंग से व्यापक था राम मंदिर आंदोलन

चन्द्रवेश पाण्डे

Update: 2024-01-19 20:53 GMT

File Photo - Jaibhan Singh Pavaiya 

जयभान सिंह पवैया सिर्फ एक नाम नहीं है। आने वाले समय में जब भी राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन का उल्लेख होगा, तब श्री पवैया का नाम सम्मान के साथ लिया जाएगा। अपनी तरुणाई को जिस युवक ने 'रामकाज' के लिए समर्पित किया वह तरुण बाद में देश का सांसद भी बना और प्रदेश में मंत्री भी। पर स्वयं पवैया अपने आपको सिर्फ रामभक्त या हनुमान का सेवक ही मानते हैं। आगामी 22 जनवरी को रामलला के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में अयोध्या का निमंत्रण वह राम का आशीर्वाद मानते हैं। अयोध्या रवाना होने से पहले उन्होंने समूचे आंदोलन को लेकर 'स्वदेश' से विस्तार से बात की। प्रस्तुत है बातचीत के अंश:-

आप इस आंदोलन को किस तरह देखते हैं, इस दौर में इसकी शुरुआत कब और कैसे हुई?

- राममंदिर आंदोलन की तुलना अक्सर स्वतंत्रता के आंदोलन से की जाती है। मेरा मानना है कि राममंदिर का आंदोलन भी व्यापक था। हालांकि इससे स्वतंत्रता के आंदोलन की अहमियत को कम नहीं किया जा सकता। रामजन्मभूमि पर मंदिर बनना लगभग 500 सालों के संघर्ष की परिणति है। यह आंदोलन 1984-85 में नहीं बल्कि 1528 में शुरू हो गया था, जब आक्रांता बाबर के सेनापति मीर वाकी ने भगवान राम की जन्मभूमि को तबाह और बर्बाद कर डाला। तब करीब 1.75 लाख हिन्दू मंदिर को बचाने के लिए उसकी दीवारों से चिपक गए। कइयों के सिर कलम कर दिए गए। उनका खून गारे में मिलाकर बाबरी का ढांचा बनाया गया। यह हिन्दुओं के खून पर खड़ा ढांचा था जिसे 500 साल बाद ढहा दिया गया। रही बात ताजा आंदोलन की तो यह 1984 में शुरू हुआ। मैं तभी से इससे जुड़ा हूं। अक्टूबर 1984 में सरयू जी के तट पर रामभक्तों के विराट समागम और भारत के प्रमुख धर्माचार्यों की अगुआई में जल की अंजुलि भरकर 'सौगंध राम की खाते हैं...Ó के उद्घोष के साथ ही राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन की देशव्यापी गर्जना हुई और इसी के साथ ही हर प्रदेश में संत यात्राएं, उसके बाद सवा तीन लाख गांवों में श्रीराम शिलाओं का पूजन शुरू हुआ। 1989 नवंबर में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के शिलान्यास के कार्यक्रम से पूरे आसेतु हिमाचल लक्षावधि रामभक्त मंदिर बनाने के लिए आतुर हो उठे। 1990 की 30 अक्टूबर को घोषित कारसेवा के आह्वान और इसी मध्य सोमनाथ से अयोध्या तक की आडवाणी जी की रथयात्रा के कारण यह विश्व का सबसे प्रचण्ड आंदोलन बन गया।  

इसके बाद 90 में हुए गोलीकाण्ड और 92 में ढांचा ढहाने के बारे में कुछ बताइए। इस दौरान आपकी क्या भूमिका रही?

- 1990 में उत्तरप्रदेश की तत्कालीन मुलायम सरकार ने रामभक्तों पर गोलियां चलाईं। कार सेवकों के बलिदान और उत्तरप्रदेश की सीमाओं पर किए गए बर्बर अत्याचार की कहानियों से रामभक्त कारसेवक अधीर हो उठे। अंतत: एक हिन्दू महानायक के रूप में उभरे श्री अशोक सिंघल जी। धर्म संसद ने एक बार फिर 6 दिसंबर 1992 को कारसेवा के लिए आह्वान किया। देश की चारों दिशाओं से कारसेवकों ने अयोध्या के लिए कूच कर दिया। मेरे पास उस समय मप्र के संपूर्ण अभियान की जिम्मेदारी थी। हिन्दू तरुणाई बजरंग दल के रूप में अंगड़ाई लेकर एक विशाल युवा शक्ति के रूप में छाई हुई थी। मैंने 1 दिसंबर को ग्वालियर से अयोध्या के लिए कूच किया। सूचीबद्ध सैंकड़ों कारसेवक रेलमार्ग से मेरे साथ अयोध्या पहुंचे। अयोध्या में धर्म स्थलों के अलावा मैदानों में शिविर बनाए गए थे। राम जन्मभूमि के सामने विस्तीर्ण मैदान पर धर्म सभा होने लगी। रामकथा कुंज की छत को ही मंच का रूप दे दिया गया। 3 दिसंबर की दोपहर एक विराट सभा में जब देश के शीर्षस्थ संतों की उपस्थिति में मुझे बोलने का अवसर दिया गया तो मैंने धनुष यज्ञ में लक्ष्मण जी के बचन- 'जो तुम्हार अनुशासन पाऊं, कंदुक इस ब्रह्मांड उठाऊँÓ को उद्घृत करते हुए श्री अशोक जी सिंघल की ओर इशारा करते हुए कहा कि यदि आपका आदेश हो तो दिनों की बात तो छोड़ें, पांच घंटे में चंबल के आत्मबलिदानी दस्ते इस ढांचे को सरयू में बहाकर दिखा देंगे। बाद में इसी चुनौती के कारण मुझे सीबीआई ने अभियुक्त भी बनाया था।

6 दिसंबर 92 को बाबरी ढांचा कैसे गिरा, क्या उसके लिए कार सेवकों को निर्देश थे?

- संतों के मार्ग दर्शक मण्डल ने निर्णय किया था कि 6 दिसंबर को कारसेवक कारसेवा के रूप में सरयू से बालू लाकर उसे रामजन्म भूमि स्थल पर एकत्र करेंगे। यह समाचार जैसे ही शिविरों में फैला तो उग्र नारों के साथ कारसेवक अपना गुस्सा प्रकट करते हुए दिखाई दिए। अपेक्षा तो कम थी, लेकिन देखते ही देखते करीब पौने दो लाख रामभक्त अयोध्या में जुट चुके थे। छोटी मणिराम छावनी सहित संतों के आश्रमों पर भण्डारे चलने लगे। वास्तविकता यह है कि शीर्ष नेतृत्व में अनेक लोग चाहते थे कि बाबरी ढांचा हटने का कोई विधिक रास्ता हो और कार सेवा प्रतीकात्मक होकर थोड़े समय धैर्य और रखा जाए, लेकिन जुनून लेकर आए सौ प्रतिशत कार सेवक उस कलंक को छोड़कर घर लौटने को मानसिक रूप से तैयार नहीं थे। शेषनाग वाहिनी के नाम से हिन्दू युवकों के कुछ जत्थे अलग तरह का प्रशिक्षण और तैयारी भी करते दिखाई दिए।

बहरहाल, 6 दिसम्बर को प्रात: 9:30 बजे से रामजन्म भूमि की ओर रामभक्तों का सैलाब इक_ा होने लगा। लगभग 10 बजे धर्मसभा शुरू हुई। मैं उस समय रामकथा कुंज के मंच पर ही था। वहां संतों का शीर्षस्थ नेतृत्व परमहंस रामचन्द्रदास जी, महंत नृत्य गोपालदास जी, महंत अवैद्यनाथ जी, युग पुरुष परमानंद जी वेजावर मठ के पूज्य जगद्गुरु विश्वेश तीर्थ जी, आचार्य धर्मेन्द्र जी, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरकार्यवाह हो.वे. शेषाद्रि, सहकार्यवाह कुप्प.सी. सुदर्शन, श्री अशोक सिंघल आचार्य गिरिराज किशोर, लालकृष्ण आडवाणी, राजमाता विजयाराजे सिंधिया, उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा जी, विष्णु हरि डालमिया, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, विनय कटियार ये सभी लोग मौजूद थे। मध्यान्हकाल में उद्बोधन हो रहे थे। प्रांगण में लगातार नारे व जयघोष गूंज रहे थे लेकिन अनुशासन दिखाई दे रहा था। देखते ही देखते एक जत्था, जिसमें महिलाएं भी थीं, तेजी से दौड़ा। संभवत: कार सेवकों का यह जत्था दक्षिण भारत से था। ये लोग दर्जनों की संख्या में एक गुम्बद पर चढ़ गए। उनके हाथों में सव्वल गैंती जैसे औजार थे। वे गुम्बद की तुड़ाई करने लगे। कुछ और जत्थे इसी तेजी से ढांचे की ओर बढ़ चले। उनके हाथों में भी फावड़े गैंती, सव्वल दिखाई देने लगे थे। इस बीच मंच से अलग-अलग भाषाओं में यह अपील की जाती रही कि अनुशासन न तोड़ें, लेकिन लाउड स्पीकरों की पहुंच ज्यादा लम्बी नहीं थी सो इस अपील के कोई मायने नहीं थे। कुछ लोग ऐसा न करने के लिए मना करने दौड़े तो उनके ऊपर क्रोध में पत्थर उछाले गए। ऐसा लगा कि मंच से लेकर मैदान तक सबने रामजी की इच्छा को स्वीकार कर लिया। जब गुम्बद गिरता था तो ये नारे भी सुनाई देते थे- 'बाबर बोले- जय श्री राम..... औरंगजेब बोले- जय श्री रामÓ। मंच पर संत हों या राजनेता, सभी की आँखों से आनंद की अश्रुधाराएं बहने लगीं। एक दूसरे के गले मिलकर बधाइयों के दौर शुरू हो गए। सूर्यास्त होते होते अंतिम गुम्बद भी ध्वस्त कर दिया गया। दोपहर 12 बजे से शाम 5 बजे तक सिर्फ पांच घंटे में सदियों से खड़ा कलंक का ढांचा धराशायी हो चुका था। अब वहां सिर्फ अवशेष का ढेर था। खबर मिली कि भिण्ड के गोहद से हमारे साथ गए पुत्तूबाबा जी ढांचे का एक बीम (तीर) गिरने से उसके नीचे दबकर शहीद हो गए। जब ढांचे की दीवारें गिर रहीं थी तो कई बार सेवक उन पर जूतों से प्रहार कर रहे थे। तब यह समस्या समझ में आई यदि यह जगह साफ नहीं हुई तो रामललाजू का आसन कैसे लगेगा? तभी आचार्य धर्मेन्द्र ने मंच से बार-बार आह्वान किया कि ''इस ढांचे का तोड़ा गया एक-एक टुकड़ा पांच सदी बाद तुम्हारे पुरुषार्थ का प्रतीक है। इस विजय चिन्ह को अपने-अपने घर पर ले जाकर स्मृति बनाकर रखना।ÓÓ इतना कहना था कि आधा घंटे में सारा मलबा साफ हो गया। अचानक एक संगमरमर का विशाल सिंहासन प्रकट हुआ। रामललाजू उस पर विराजमान हुए। सूर्यास्त के बाद समतल जगह पर अस्थाई कक्ष का निर्माण भी शुरू हो गया। एक अस्थाई मंदिर भी बना दिया गया। 

आरोप लगता है कि कार सेवकों ने अयोध्या में काफी उत्पात मचाया था? 

मैं इस तथ्य को जिम्मेदारी के साथ कह सकता हूं कि पौने दो लाख की भीड़ में अयोध्या में न तो कहीं उत्पात दिखा और न ही विधर्मियों की किसी बस्ती में हिंसा या आक्रमण की घटना सुनाई दी। ऐसे उदाहरण दुनिया में देखने को नहीं मिलते। राम की भक्ति और संघ के संस्कारों से ओत-प्रोत आंदोलन का नेतृत्व ही इसका एकमात्र कारण है। यह किसी मजहब के प्रतीक के विरुद्ध न होकर रामजन्म भूमि का स्थान पाने के लिए रामभक्तों की सकारात्मक प्रतिज्ञा थी। यदि उत्तरप्रदेश में उस समय भाजपा की कल्याण सिंह सरकार न होकर राम विरोधियों की सरकार रही होती तो दृश्य कुछ और होता। लेकिन यह देखकर मन हर्षित था कि अर्धसैनिक बलों के अनेक वर्दीधारी सिपाही कार सेवकों पर अत्याचार करने के बजाय उनका हौंसला बढ़ाते दिखाई दिए। क्योंकि वर्दी के भीतर बांयीं ओर जो दिल धड़कता है उस हृदय में और मन मंदिर में बैठे हुए राम को वे कैसे भूल पाते। हम रात अयोध्या में ही रुके। मंदिरों में बधाइयां गाईं जा रही थीं। एक हजार साल पहले जब सोमनाथ का गजनी ने विध्वंस किया, उसका एक ही कारण था कि उस समय भारत जाति, पूजा प्रथा और रियासतों के दायरों में बिखरा रहा। धर्म रक्षा के लिए अपनी एकता या प्रदर्शन नहीं कर पाया। लेकिन 6 दिसम्बर 92 को आसेतु हिमाचल, विभिन्न भाषा भाषी रामभक्तों ने हिन्दू एकता की गर्जना की तो गजनी से लेकर औरंगजेब तक सबको जवाब दे दिया। मैं सोचता हूं कि मंदिर की असली नींव तो 6 दिसम्बर 92 को ही रखी गई। यदि मैदान समतल न होता तो आज जिस फैसले के आधार पर हम वहां संसार का सबसे बड़ा कालजयी मंदिर बना रहे हैं, उसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती।

इसके बाद सुना है कि सीबीआई ने आपको अभियुक्त बनाया? क्या आपकी गिरफ्तारी भी हुई?

6 दिसम्बर के बाद केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने सीबीआई को जांच दे दी। सीबीआई ने 49 आरोपी बनाए। मैं भी उनमें एक था। मेरे आवासों पर सीबीआई छापे मारती थी, ऐसे में मुझे महीनों भूमिगत रहना पड़ा। आंदोलन से जुड़ी अनेक विभूतियों में से परमहंस रामचन्द्रजी, अवैद्यनाथ जी, वामदेव जी, राजमाता विजयाराजे सिंधिया, आचार्य धर्मेन्द्र जी तो संसार छोड़कर जा चुके हैं। देश के 6 प्रमुख नेताओं के साथ मैं 13 दिनों तक बंदी भी रहा। इस दौरान हमें माताटीला व चुनार के बंदी गृहों में रखा गया। वह भी लम्बी कहानी है। हमारा संघर्ष कोठारी बंधुओं के बलिदान के आगे तो कुछ भी नहीं है। परंतु इस घटना के बाद श्री सुदर्शन जी का पांचजन्य को दिए गए साक्षात्कार का वाक्य याद आता है। उन्होंने कहा था कि 'इतिहास स्वयं घटता है, उसे घटाया नहीं जा सकता।Ó बस यूं कहूं कि रामराज के लिए यह हनुमंतलाल की लीला थी। संतों ने देश जगाने के लिए अपने आश्रम छोड़कर मीलों पग-पग नापे। तरुणाई भगवा कफन बांधकर निकल पड़ी। कई पीढ़ियों ने संघर्ष किए। सनातनी समाज उनका यह ऋण नहीं चुका सकता। काश, 22 जनवरी 2024 को अशोक सिंघल जी अपने नेत्रों से प्रभु की पुनर्प्रतिष्ठा देख रहे होते तो आनंद ही कुछ और होता क्योंकि वे वास्तव में धर्मयोद्धा थे और रामजन्म भूमि आंदोलन के पर्याय थे।

इस मौके पर मैं मोरोपंत पिंगले जी का स्मरण जरूर करना चाहूंगा जो डॉ. हेडगेवार के समय के प्रचारक थे और विहिप के मार्गदर्शक भी । वे नेपथ्य में रहकर काम कर रहे थे और इस आंदोलन के अभिनव शिल्पकार थे।

 आपको प्राण प्रतिष्ठा का निमंत्रण मिला है आप जा भी रहे हैं, क्या अनुभूति है?

मैं अभिभूत हूं। मुझे गर्व है कि मेरा भी गिलहरी योगदान आंदोलन में रहा है। हम लोगों को लगता तो था कि मंदिर बनेगा जरूर, लेकिन ऐसा कभी नहीं लगा कि हमारी आंखों के सामने यह शुभ घड़ी आएगी। ये प्रभु की ही कृपा है कि मंदिर बन गया है, रामललाजू विराजमान हो रहे हैं, हम इस गौरवमयी क्षण के साक्षी बन रहे हैं, पता नहीं किन पुण्यकर्मों के फल है जो हम यह देख पा रहे हैं। इतना कहते-कहते श्री पवैयाजी भावुक हो उठते हैं- और कहते है बस अब कुछ नहीं कह पाऊंगा। 

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