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चुनावी चकल्लस : प्रदेश में किस करवट बैठेगा लोकसभा का ऊंट ?

- अभिषेक शर्मा

Update: 2019-04-08 09:45 GMT
मध्यप्रदेश की 29 लोकसभा सीटों के लिए भाजपा-कांग्रेस लगा रहीं जोर

लोकसभा चुनाव की बेलामें यह प्रश्न उठाना प्रासंगिक होगा कि मध्य प्रदेश में लोकसभाई ऊंट चुनाव में किस करवट बैठेगा? यह प्रश्न इसलिए भी लाजमी है, कारण दिल्ली की सत्ता का दरवाजा भले ही देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की राजनीतिक चाबी से खुलता आया हो, किन्तु इसमें मध्य प्रदेश की भूमिका भी सीमित ही सही, किन्तु महत्वपूर्ण साबित होती आई है। जब यह प्रदेश अविभाजित था और इसमें धान का कटोरा कहा जाना वाला छत्तीसगढ़ भी शामिल था, तब भी इस प्रदेश ने देश की राजनीति में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है, वहीं अब जबकि 19 साल पहले हुए बंटवारे में छत्तीसगढ़ टूटकर अलग राज्य के रुप में आज अस्तित्व में हैे, तब भी इस प्रदेश का देश की राजनीति में महत्व कम नहीं हुआ है। केन्द्रीय सत्ता की सीढ़ी भले ही यह प्रदेश न बन पाया हो, किन्तु मार्ग जरूर प्रशस्त करता चला आ रहा है। यही कारण है कि दोनों प्रमुख प्रमुख राजनीतिक दल भाजपा और कांग्रेस इस 29 लोकसभा सीटों वाले प्रदेश में बेहतर प्रदर्शन के लिए इन दिनों अपना पूरा दमखम लगाने में लगी हुई है। जिस तरह दोनों प्रमुख दलों ने इस चुनाव में अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया है, उस हिसाब से इस प्रदेश में भी जोर प्रदेश से लेकर केन्द्रीय नेतृत्व तक लगा रहा है। साम, दाम, दंड, भेद की राजनीति भी अमल में लाई जा रही है। बात पहले भाजपा की, भाजपा आज जिन अच्छे दिनों में जी रही है, सबका साथ, सबका विकास की बात करने की स्थिति में आई है तो इसमें इस प्रदेश की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भाजपा के प्रेरणास्त्रोत श्रीमंत राजमाता सिंधिया, अटल बिहारी वाजपेयी इसी प्रदेश के ग्वालियर से थे तो कुशाभाऊ ठाकरे प्रदेश के धार से ताल्लुक रखते थे। चुनावी राजनीति के लिहाज से भी भाजपा के लिए इसी प्रदेश ने ऊंचाइयां प्रदान की हैं। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के बाद वह मध्य प्रदेश ही था, जिसने भाजपा को वर्ष 2014 के चुनाव में ऐतिहासिक बहुमत दिलाया था और जिसकी बदौलत चुनाव में भाजपा ने अब तक का अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया था। इस चुनाव में भाजपा ने प्रदेश की 29 में से 27 लोकसभा सीटें जीतीं थीं। हालांकि तब भी प्रचंड मोदी लहर के बावजूद कांग्रेस के अभेद्य गढ़ छिंदवाड़ा और गुना में सेंध नहीं लगा पाई थी और यहां से कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया जीतने में सफल रहे थे। इस बार भाजपा के सामने अपने उसी प्रदर्शन को दोहराने के साथ छिंदवाड़ा और गुना में भी कमल खिलाने की चुनौती है। इस चुनौती से निबटने का भाजपा प्रयास भी पूरा कर रही है। दावेदारी पर बेरहमी से कैंची चलाई जा रही है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के भांजे अनूप मिश्रा का टिकट काट दिया गया। इसी के साथ 75 पार की सीमा भी स ती से लागू की गई है। कई विधायकों एवं पूर्व मु यमंत्री को चुनाव लड़वाने की योजना पर भी काम चल रहा है। गंभीर भाजपा अपने अभेद्य गढ़ों को लेकर भी है और यहां परंपरागत दांव चलने की इच्छुक नहीं है। यह भी एक कारण है कि विदिशा, इंदौर, भोपाल, में अब तक प्रत्याशी घोषित नहीं किए गए है। हालांकि भाजपा नेतृत्व के कुछ निर्णय अप्रत्याशित भी सामने आए हैं।

अब बात करते है कांग्रेस की तो प्रदेश में कांग्रेस के लिए बदलाव का वक्त नहीं आ पा रहा है। पिछले दो-तीन दशक से उसके यहां बुरे दिन चल रहे है। वर्ष 2014 के चुनाव में तो उसकी यहां अब तक की सबसे बुरी गत हुई थी और वह महज दो सीटों पर सिमटकर रह गई थी। कहीं इस बार भी ऐसा न हो, इसके लिए कांग्रेस कमर कसकर मैदान में है। चुनौती प्रदेश विधानसभा चुनाव का प्रदर्शन दोहराने की है। जिसके लिए हाईकमान ने जि मेदारी विधानसभा चुनाव की तरह ही वर्तमान मु यमंत्री कमलनाथ, पूर्व मु यमंत्री दिग्विजय सिंह एवं सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया को सौपी है। जो अपने-अपने क्षेत्रों में सक्रिय नजर आ रहे है।

कांग्रेस भाजपा के गढ़ों को भी ढहाने के प्रयास में है, इसलिए मु यमंत्री कमलनाथ ने प्रदेश कांग्रेस के बड़े नेताओं को कठिन सीट से चुनाव लडऩे का प्रस्ताव रखा, जिसे पूर्व मु यमंत्री दिग्विजय सिंह ने तो भोपाल से स्वीकार किया, किन्तु एक ओर बकौल कमलनाथ बड़े नेता सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया फिलहाल इसका अब तक साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। वैसे देखा जाए तो चुनावी दमखम दिखाने में कांग्रेस, भाजपा के मुकाबले कमजोर पड़ रही है, कठिन निर्णय लेने में भी वह पीछे हट रही है। जहां भाजपा ने कई दिग्गजों का टिकट काट दिया तो कांग्रेस अपने नेताओं के दबाव में ऐसा नहीं कर पाई। विधानसभा के पराजित प्रत्याशियों तक को उसने लोकसभा में दावेदारी दे दी। इसमें एक नाम सीधी से अजय सिंह तो खंडवा से अरुण यादव का लिया जा सकता है। इसी दबाव के चलते भाजपा छोडक़र कांग्रेस में आए नेताओं रामकृष्ण कुसमारिया और सरताज सिंह को भी ठेंगा दिखा दिया गया तो अशोक अर्गल जैसों को बीच मझधार में छोड़ दिया गया है। इसके अलावा दावेदारी के लिए कांग्रेस कोई मापदंड भी तैयार नहीं कर पाई। ऐसे में वह कैसे लोकसभा में विधानसभा का प्रदर्शन दोहरा पाएगी, यह वही जाने? यूं भी पिछले दो-तीन दशक का इतिहास बताता है कि प्रदेश में भाजपा का प्रदर्शन कांग्रेस के मुकाबले बेहतर रहा है। बात 1984 से शुरु करते है। इस साल के आम चुनाव में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हत्या के बाद उठी संवेदना लहर पर सवार होकर कांग्रेस पूरी की पूरी 40 सीटें ले उड़ी थी, चुनाव में भाजपा का खाता तक नहीं खुल पाया था। हालांकि इसके बाद 1989 में बोफोर्स घोटाले के साये में हुए चुनाव में कांग्रेस 40 से 13 सीटों पर सिमटकर रह गई थी और भाजपा 0 से 27 पर पहुंची थी। 1991 में फिर कांग्रेस ने वापसी की और लोकसभा की 27 सीटें जीते, भाजपा के हिस्से में 12 सीटें आईं। इस चुनाव में एक नई बात यह हुई कि तीसरे दल के रुप में बहुजन समाज पार्टी अस्तित्व में आई। हालांकि उसे महज 1 सीट ही मिल पाई। इसके बाद दुबारा विधानसभा में अपना खाता खोलने के लिए बसपा को 18 साल इंतजार करना पड़ा। 2009 के चुनाव में फिर उसे एक सीट मिली। यहां भाजपा 16 तो कांग्रेस 12 पर जीती। इससे पहले 1996 में भाजपा को 27, कांग्रेस को 8, 1998 में भाजपा 30, कांग्रेस 10, 1999 में भाजपा 29, कांग्रेस 11 सीटों पर जीती। जैसा की पहले ही बताया जा चुका है कि कांग्रेस की सबसे बुरी गत 2014 में हुई और वह महज 2 सीटों पर सिमटकर रह गई, किन्तु पांच साल बाद ही चुनावी समीकरण बदल गए है। 15 साल के वनवास के बाद कांग्रेस की प्रदेश की सत्ता में वापसी हुई है, जिससे कांग्रेसी स्वाभाविक रुप से उत्साहित है। उनका यह उत्साह कांग्रेस को कितनी सीटें दिला पाता है और भाजपा वर्ष 2014 के अपने प्रदर्शन को दोहरा पाती है कि नहीं? यह 23 मई को सामने आ ही जाएगी, तब तक इंतजार।

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