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क्या सिंधिया भी टा टा करने जा रहे हैं कांग्रेस को

सोशल मीडिया और अखबारों में आ रही खबरों पर सिंधिया की चुप्पी चर्चा में

Update: 2019-08-20 08:14 GMT
मप्र में सिंधिया के बीजेपी में जाने की सियासी खबरों के निहितार्थ

(डॉ अजय खेमरिया)

मप्र की सियासत में इस समय ज्योतिरादित्य सिंधिया चर्चा का केंद्रीय विषय बने हुए है क्योंकि उन्हें लेकर पिछले एक सप्ताह से सोशल मीडिया पर खबरें वायरल हो रही है कि वे बीजेपी में जा रहे है,उनकी मुलाकात बीजेपी अध्यक्ष और गृह मंत्री अमित शाह से हो चुकी है।ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरफ से इस खबर का कोई खंडन नही किया जा रहा है जबकि सिंधिया सोशल मीडिया पर लगातार एक्टिव रहते है उनकी पत्नी प्रियदर्शिनी राजे और येल यूनिवर्सिटी से पास पुत्र महाआर्यमन भी लगातार सोशल मीडिया पर लोगों से सँवाद करते रहते है सिंधिया फेसबुक पेज से भी अक्सर लाइव भी आते रहते है। लेक़िन लगातार चल रही इन खबरों का प्रतिकार किसी फोरम से नही हो रहा है उनके किसी समर्थक मंत्री द्वारा भी इन खबरों का खंडन नही किया जा रहा इस बीच राजधानी भोपाल में भी इस आशय की खबरे छप रही।

क्या वाकई ज्योतिरादित्य सिंधिया बीजेपी में जा सकते है?मप्र की मौजूदा राजनीतिक हालात बताते है कि 15 साल बाद सत्ता में आई कांग्रेस गुटबाजी औऱ कबीलाई कल्चर से बाहर नही आ पाई है और सिंधिया इस समय खुद के सत्ता साकेत में हाशिये पर है।उनकी गुना से हुई पराजय ने जहां व्यक्तिगत रूप से उन्हें कमजोर कर दिया वहीं मुख्यमंत्री कमलनाथ और सुपर मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह की जुगलबंदी ने भी सिंधिया को मप्र की सियासत में दरकिनार सा कर रखा है।यह तथ्य है कि मप्र चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष के रुप में सिंधिया ने जमकर मेहनत की थी इसलिए मुख्यमंत्री पद पर उनका दावा भी स्वाभाविक ही था लेकिन टिकट वितरण में वे दिग्विजयसिंह औऱ कमलनाथ से बाजी नही मार सके इसलिए आज विधायकों का बहुमत उनके साथ नही है इसके बाबजूद कमलनाथ सरकार में उनके कोटे से सात मंत्री है लेकिन इन मंत्रियों की सरकार में चलती नही है क्योंकि कमलनाथ ने ऐसे अफसर तैनात कर रखे है जो इन मंत्रियों को स्वतंत्र होकर काम नही करने देते है।पिछले दिनों कैबिनेट की बैठक में ही खाद्य मंत्री प्रधुम्न सिह औऱ सीएम के बीच तीखी झड़प हो चुकी है।सीएम कमलनाथ ने मंत्री को डांटते हुए यहां तक कहा कि उन्हें पता है आप कहाँ से कंट्रोल हो रहे हो कमलनाथ का इशारा सिंधिया की तरफ ही था।यानी सरकार के स्तर पर सबकुछ ठीक नही है।

कमलनाथ अभी मप्र कांग्रेस के अध्यक्ष भी है सिंधिया समर्थक चाहते थे कि यह पद सिंधिया को मिले ताकि मप्र में सिंधिया का हस्तक्षेप बना रहे पर कमलनाथ इसके लिये राजी नही है क्योंकि वे सत्ता का कोई दूसरा केंद्र विकसित नही होने देना चाहते है।लोकसभा में पार्टी की हार के बाद कमलनाथ ने इस पद से स्तीफा दे दिया लेकिन अब वे इस पद पर आदिवासी कार्ड खेल कर सिंधिया को रोकने में लगे हैऔर अपने खास समर्थक गृह मंत्री बाला बच्चन या ओमकार मरकाम को पीसीसी चीफ बनाना चाहते है।इस मिशन में उन्हें दिग्विजयसिंह का साथ है जो परम्परागत रूप से सिंधिया राजघराने के विरोधी है।समझा जा सकता है कि मप्र की सत्ता से बाहर किये गए सिंधिया को संगठन में भी यहां आसानी से कोई जगह नही मिलने वाली है।

उधर दिल्ली की कांग्रेस तस्वीर में भी सिंधिया की प्रभावी भूमिका सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनने से धूमिल हुई है कभी उनका नाम नए अध्यक्ष के रूप में चलाया गया था कार्यसमिति की बैठक में त्रिपुरा की इकाई ने उनके नाम का प्रस्ताव भी रखा था लेकिन सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनने से साफ हो गया कि अब पार्टी में बुजुर्ग नेताओं की ही चलने वाली है।जाहिर है कांग्रेस में सिंधिया के लिये अनुकूलता न मप्र में नजर आ रही है न दिल्ली में।ऐसे में उनके सामने भविष्य की राह फिलहाल तो चुनौती पूर्ण ही है।

मप्र की कमलनाथ सरकार को जिस तरीके से बीजेपी के दो विधायको ने अपना समर्थन दिया है उससे सिंधिया की वजनदारी मप्र के सत्ता संतुलन में कम हुई है ।इस पूरे मामले से भी कमलनाथ ने सिंधिया को दूर रखा जबकि मैहर के पाला बदलने वाले बीजेपी विधायक नारायण त्रिपाठी मूलतः सिंधिया से जुड़े रहे है 2013 में सिंधिया के कहने पर ही त्रिपाठी को कांग्रेस का टिकट दिया गया था।

लोकसभा चुनाव में भी उनकी इच्छा के विपरीत जाकर भिंड से देवाशीष जरारिया और ग्वालियर से अशोक सिंह यादव को टिकट दिए।दोनों चुनाव हार गए सिंधिया ने इनके लिये प्रचार भी नही किया।लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपने क्षेत्र गुना में वोटिंग के बाद विदेश जाना पसंद किया जबकि 12 मई को मप्र में 8 सीटों पर चुनाव शेष था जिनमे इंदौर और मालवा की सीटें शामिल थी जहां तक सिंधिया परिवार की रियासत फैली थी। कमलनाथ सरकार में पहली राजनीतिक नियुक्ति भी ग्वालियर के अशोक सिंह को अपैक्स बैंक का अध्यक्ष बनाकर की जो सिंधिया के विरोधी है इस नियक्ति को सिंधिया के विरुद्ध ग्वालियर में ही उनकी घेराबंदी के रूप में लिया गया।

।प्रशासनिक मामलों में भी सिंधिया को उनके कद के अनुरूप तबज्जो नही मिल रही है ग्वालियर में उनकी मर्जी के विरुद्ध कलेक्टर बनाये गए कुछ यही हाल उनके गुना शिवपुरी संसदीय इलाके के कलेक्टर्स , एसपी की नियुक्ति को लेकर है जहां से वे सवा लाख वोटों से इस बार चुनाव हार गए है।मप्र में उनकी सरकार के रहते चुनाव हारना सिंधिया के लिये असहनीय सदमे से कम नही है जबकि वे लगातार 15 साल मप्र में बीजेपी सरकार के रहते एक तरफा जीतते रहे है 2014 में तो वे बीजेपी के हैवीवेट कैंडिडेट जयभान सिह को तब हराकर जीते थे जब खुद मोदी उनके खिलाफ सभा करने आये थे और शिवराज सिंह ने करीब 20 सभाएं की।लेकिन इस बार वे अपनी ही सरकार और प्रशासन होने के बाबजूद बुरी तरह हार गए वह भी बीजेपी के वॉकओवर जैसे सबसे कमजोर कैंडिडेट से ।जो कभी उन्ही का चेला हुआ करता था।

सवाल यह है कि क्या वाकई सिंधिया कांग्रेस छोड़ सकते है?मप्र औऱ राष्ट्रीय परिदृश्य के हिसाब से आंकलन किया जाए तो यह स्पष्ट है कि आज सिंधिया के लिये कांग्रेस में उनके कद के लिहाज से कोई भविष्य नजर नही आ रहा है वे जिस पृष्ठभूमि से आते है उसके अनुरूप आने वाला समय उनकी जमीनी सियासत के लिये लगातार कठिनतर होने वाला है।लोकसभा जाने के लिये उनके सामने गुना औऱ ग्वालियर दो ही विकल्प है लेकिन गुना से अप्रत्याशित हार ने उनके परिवार के अपराजेय होने के मिथक को तोड़ दिया है अब बीजेपी भी आगे इस मानसिकता से नही लड़ेगी की सिंधिया कभी नही हारते है। देशव्यापी माहौल जिस तरह से कांग्रेस के विरुद्ध निर्मित हो रहा है वह भविष्य में सिंधिया की राह को औऱ भी मुश्किल बनाएगा क्योंकि उनके साथ कोई जातिगत बैक नही है।मोदी शाह की नई बीजेपी जिस रास्ते औऱ दर्शन को लेकर आगे बढ़ रही है वह फिलहाल विपक्षी नेताओं के लिये अस्तित्व के सवाल खड़े कर रही है। लगातार दूसरी ऐतिहासिक पराजय के बाबजूद कांग्रेस के राजनीतिक दर्शन में कोई बुनियादी बदलाव आता हुआ नजर नही आ रहा है खासकर राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को लेकर पार्टी की सोच ने कम से कम हिंदी बैल्ट में तो वोटर्स को फिलहाल अपने से काफी दूर कर लिया है।मप्र का ग्वालियर चंबल से लेकर मालवा तक का इलाका आरम्भ से ही हिन्दू सेंटिमेंट वाला रहा है। कश्मीर और अनुच्छेद 370 पर संसद और संसद के बाहर कांग्रेस पार्टी के स्टैंड ने सिंधिया जैसे नेताओं को परेशान कर रखा है।इस मामले पर पार्टी की अधिकृत लाइन से परे जाकर जिस तरह सिंधिया मोदी सरकार के पक्ष में खड़े दिखाई दिए है वह केवल उनके समधी ऒर महाराजा कश्मीर कर्ण सिंह का नैतिक समर्थन नही है इसके सियासी निहितार्थ सिंधिया की भविष्य की राजनीति से जुड़े भी हो सकते है।370 पर देश का मानस पढ़ने में जो भूल कांग्रेस ने की है उसका अहसास चुनाव हारे सिंधिया जैसे नेताओं को बखूबी है और वे समझ रहे है कि आने वाला समय उनकी चुनावी राजनीति के लिये कितना चुनौती भरा होने वाला है।तब जबकि बीजेपी से ज्यादा चुनौती उन्हें कांग्रेस में ही मिलनी है।जाहिर है मप्र की सियासत का यह ग्लैमरस फेस मोदी शाह की नई बीजेपी में अपनी भूमिका के बारे में सोचता है तो कोई राजनीतिक अजूबा नही होना चाहिए। क्योंकि उनके पिता ने भी अपनी सियासत का ककहरा जनसंघ की अंगुली पकड़कर इसी गुना शिवपुरी से सीखा था लेकिन तब मुख्यधारा की राजनीति और क्षेत्रीय विकास के नाम पर वे जनसंघ को छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए थे।1971 में तब भी कांग्रेस का राजनीतिक वैभव आज की बीजेपी के समान ही था। यानी सिंधिया के पॉलिटिकल डीएनए में बीजेपी पहले से ही मौजूद है और उनकी दादी राजमाता विजयाराजे सिंधिया तो बीजेपी की संस्थापक औऱ लंबे समय तक फाइनेंसर रही है।राजस्थान की सीएम वसुंधरा राजे औऱ मप्र में यशोधरा राजे पहले से ही बीजेपी में प्रभावी पोजिशन पर है।

यह भी तथ्य है कि मप्र की कांग्रेस सियासत में सिंधिया कभी भी इतनी सहजता से स्वीकार्य नही हो सकते है जिसकी वह अपेक्षा रखते है असल मे इसके लिये वे खुद भी जिम्मेदार है ।सब कुछ बेहतरीन होने के बाबजूद वे हमेशा जनसंघर्ष करने से परहेज रखते है वे अभी भी दरबारियों से घिरे रहते है और काबिल समर्थको की जगह महाराजियत के कहार उठाने वालों को आगे बढ़ाते है ,जनता ने उन्हें लोकशाही के महाराजा के रूप में स्वीकृति दी पर वे अभी भी रियासती महाराजा का मोह नही छोड़ पाते ।उनसे मिलना आज भी मुश्किल है और कोई उनसे अपने राजनीतिक रिश्तों के आधार पर कोई सियासी दावा नही कर सकता है।यही उनकी इस चुनाव में पराजय का सबब भी था।

अब अगर वे वाकई मोदी शाह की बीजेपी में जाने का मन बना रहे है तो मप्र की सियासत में बड़ा घटनाक्रम ही होगा।वैसे दावा किया जा रहा है कि मप्र में वे सीएम भी हो सकते है लेकिन विजय बहुगुणा, (उत्तराखंड) हिमंता शर्मा, (आसाम) सुखराम, (हिमाचल) एसएम कृष्णा, (कर्नाटक) चौधरी वीरेन्द्र सिंह(हरियाणा) जैसे कई उदाहरण भी इन 6 साल में बीजेपी में हमारे सामने है। लेकिन रघुवर दास, योगी आदित्यनाथ, मनोहर लाल खट्टर भी मोदी शाह बीजेपी के ही उदाहरण है।

मप्र में बीजेपी का संगठन देश भर में मिसाल है यह भी हमें नही भूलना चाहिये। यहां 15 साल बाद भी चुनाव हारने के बाबजूद बीजेपी को कांग्रेस से ज्यादा वोट मिले थे।

वैसे सिंधिया खुद इन्वेस्टमेंट बैंकर्स है स्टेनफोर्ड से प्रबंधन की शिक्षा लेकर आये है वह नफा नुकसान ज्यादा प्रमाणिकता से समझते है लेकिन सिंधिया से जुड़ी इन खबरों ने मप्र का सियासी पारा इन दिनों उपर कर रखा है।

370 पर मोदी के साथ खड़े होकर सिंधिया ने एक तार्किकता को तो गढ़ ही लिया है अगर वे बीजेपी में आते है....

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