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कश्मीरी पंडितों की दर्दनाक कहानी कहेगी 'शिकारा'

विवेक पाठक

Update: 2020-01-12 01:00 GMT

देश में नागरिकता संशोधन कानून को लेकर बबाल मचा हुआ है। कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल इसे काला कानून बताकर पूरे देश में प्रदर्शन कर रहे हैं। मुंह पर कपड़ा बांधकर पुलिस पर पत्थर फेंकने वालों के प्रति अचरज भरी सहानुभूति तमाम कथित बुद्धिवर्ग और नेताओं की तरफ से देखी जा रही है। प्रियंका गांधी ने तो उत्तरप्रदेश के तमाम शहरों को कदम- कदम से नाप दिया है उपद्रवियों के घर जाकर उनके प्रति संवेदना दिखाकर। वे उपद्रव में पुलिस कार्रवाई को बर्बर बताकर उपद्रवियों को क्रांतिकारी और आजादी के परवाने बताने में कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं। एक धारा विशेष के अंध समर्थक देश की पुलिस की जनरल डायर वाली अंग्रेज पुलिस से तुलना कर रहे हैं।

कानून व्यवस्था के लिए पुलिस की जवाबी कार्रवाई पर सवाल उठाने वाले इन्हीं नेताओं और कथित नामदारों के सामने तमाम सवाल लेकर आई है प्रख्यात फिल्म निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म शिकारा। शिकारा का कुछ रोज पहले ट्रेलर जारी हुआ है और ट्रेलर के साथ ही कश्मीरी पंडितों के साथ हुई बर्बरता के वे रक्तपात भरे दिन भी फिर से सामने आ गए हैं। वे ही जनवरी 1990 के दिन जब कई पीढिय़ों से कश्मीर को अपने खून पसीने से सींचने वाले कश्मीरी पंडितों को बर्बरता के साथ भगाया गया था। उर्दू अखबारों ने कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोडऩे की चेतावनी भरे विज्ञापन छापे थे तो मस्जिदों से उन्हें कश्मीर खाली करने के ऐलान हो रहे थे। निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा की यह फिल्म उन काले दिनों को देश के सामने लाकर कई सवाल खड़ी करती है। सवाल उठते हैं कि कैसे कश्मीरी पंडितों की बहन-बेटियों की आबरु लूटने का वो दौर चलता रहा और शेष भारत सोता रहा। कैसे केन्द्रीय सरकार और उसके मंत्री कश्मीरी पंडितों के साथ पाश्विक बर्बरता को कैसे भी रोक नहीं सके। कैसे आज सीएए बिल के खिलाफ देश भर में हल्ला मचाने वाली कांग्रेस कश्मीरी पंडितों के मानव अधिकारों को लेकर चुप रही। कैसे तब के शिरोमणि नेता राजीव गांधी ने आज उपद्रवियों के समर्थन में राष्ट्र को संदेश देने वाली सोनिया की तरह तब कश्मीरी पंडितों के समर्थन में देशव्यापी संदेश नहीं दिया। कैसे राजीव गांधी ने हजारों कश्मीरी पंडितों की बहन- बेटियों की लुटती आबरु बचाने के लिए देश के तमाम दलों को लेकर राष्ट्रपति भवन की ओर कूच नहीं किया।

वास्तव में कश्मीरी पंडितों के साथ जनवरी 1990 में जो बर्बरता हुई उस पर आज देश सिर पर उठाए हुए कथित बुद्धिजीवी मुंह सिए बैठे रहे। सेकुलरवाद के नाम पर कश्मीरी पंडितों के साथ लूट और हिंसा होती रही और आज के बड़बोले नेता गुड़ खाए बैठे रहे। उस दौर में क्या-क्या हुआ ये देश को जानना बहुत जरुरी है। निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा की इस बात के लिए तारीफ करनी होगी कि मानव अधिकारों के साथ हुई इस बर्बरता पर वाकई एक सार्थक फिल्म सही समय पर लेकर आए हैं। वे खुद एक कश्मीरी पंडित हैं और हिंसा बर्बरता धार्मिक कट्टरता और आतकंवाद के उस स्याह अध्याय को करीब से देख चुके हैं। निर्देशक विधु ने इस फिल्म को कश्मीर और श्रीनगर की उन तंग गलियों में ही फिल्माने का प्रयास किया है जहां धार्मिक कट्टरता के नारे लगाती भीड़ ने कश्मीरी पंडितों का सब कुछ लूट लिया था। उनकी बहन बेटियों को अपना गुलाम बनाते हुए उनकी हत्याएं कर दीं थीं और उन जैसे हजारों परिवारों को रातों-रात कश्मीर छोडऩे के लिए बेबश कर दिया था।

निसंदेह शिकारा कश्मीर के इतिहास में दर्ज उस काले अध्याय से कई दलों, राजनेताओं और दिमागी मिल्कियतों पर सवाल खड़े करेगी। ये सवाल आज सवाल उठाने वाले कई पुरानों को भी देश की जनता के सामने असल रुप में लाएंगे। तब मुंह पर पट्टी बांधकर बैठने वाले लोग और उनके समर्थक आज किस हक के साथ उपद्रवियों को क्रांतिकारी बता रहे हैं। उनके मानव अधिकारों के लिए हाय तौबा मचा रहे हैं। सवाल फिर वही उठेगा कि क्या कश्मीरी पंडितों की चीखें उन्हें नहीं जगा सकीं। क्या कश्मीरी पंडितों के लुटते घरों को बचाने वे निकले। क्या कश्मीरी पंडितों के मानव अधिकारों के लिए उन्होंने आवाज उठाई। क्या कश्मीरी पंडितों की देहरी पर संवेदना जताने आज की तरह कोई एक्टिविस्ट और कथित बुद्धिजीवी पहुंचा क्या?

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