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चेताने वाले हैं ब्लड प्रेशर की पहली जांच के आंकड़े

Update: 2019-10-21 07:55 GMT

- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

इण्डियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च की हालिया रिपोर्ट का खुलासा गंभीर चिंता का विषय है। हालिया रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि पहली बार कराई गई ब्लड प्रेशर की जांच के नतीजे शत-प्रतिशत सही हो, इसकी संभावना कम भी हो सकती है। रिपोर्ट में तो यहां तक कहा गया है कि जांच में गलती की संभावना का आंकड़ा 63 फीसद तक पाया गया है। यह आंकड़ा तो प्रशिक्षित स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं द्वारा की गई जांच का है। इससे आसानी से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि अप्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मियों या झोलाछाप लोगों द्वारा की गई बीपी की जांच की गलती की संभावना कितनी अधिक हो सकती है।

सर्वे में यह भी उभरकर आया है कि पहली बार जांच के आंकड़ों को सही माना जाता तो हाई बीपी से देश में चार करोड़ 60 लाख से अधिक लोग पीड़ित होते। हालांकि इण्डियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने यह सर्वे लोगों को जागरूक करने की दृष्टि से जारी किया है। इससे यह भी संदेश जाता है कि बीपी जांच सही ढंग से और प्रशिक्षित कर्मी से ही करवाई जानी चाहिए। दरअसल, जिस तेजी से मेडिकल साइंस ने विकास किया है और जिस तेजी से डॉक्टरों के प्रयासों से असाध्य रोगों का भी सहज इलाज संभव हो पा रहा है, उसी के साथ यह भी जुड़ा हुआ है कि सरकारी के साथ ही निजी क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाओं का तेजी से विस्तार हुआ है। प्राइवेट सेक्टर में बड़े-बड़े अस्पतालों की श्रृंखलाएं खुल गई है। यह अच्छी बात भी है पर जिस तरह से निजी क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाएं महंगी होती जा रही हैं और जिस तरह के कुछ मेडिकल संस्थानों के गाहे-बगाहे समाचार सामने आते हैं, वह चिंतनीय है।

हालांकि राजस्थान में सरकारी अस्पतालों में जांच सुविधाएं भी रियायती व जरुरतमंद लोगों को निःशुल्क उपलब्ध कराने की पहल और दवाओं की निःशुल्क उपलब्धता सुनिश्चित करने से स्थितियों में बदलाव आया है। राजस्थान के एक आईएएस अधिकारी जो स्वयं डॉक्टरी अध्ययन किए हुए होने से जिस तरह से जेनेरिक दवाओं का अभियान चलाया उससे स्थिति में बदलाव आया है। वहीं अब केन्द्र सरकार की आयुष्मान योजना और पिछले दिनों केन्द्र सरकार द्वारा हार्ट में स्टंट लगाने सहित कुछ महंगे इलाज की दरें तय कर नियंत्रित करने के प्रयास किए हैं, वह निश्चित रूप से अग्रगामी प्रयास है। तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि आज मामूली जुखाम-बुखार का इलाज भी क्लिनिकल जांचों से होने लगा है।

एक समय था जब चिकित्सक स्वयं मरीज की गंभीरता से जांच करता था। नाड़ी की गति, स्टेथोस्कोप से फेफड़ों की स्थिति यानी कि बलगम जमने या अन्य विकार का पता लगाने, सांस की गति, ब्लड प्रेशर, पेट में हाथ से दबाव बनाकर जांचने और शरीर के विभिन्न हिस्सों पर हथेली रखकर अंगुलियों की पोर पर दूसरे हाथ की हथेली से ठक-ठककर बीमारी का पता लगाते थे। इसके साथ ही आंखों की स्थिति से ही रोग का आभास कर लेते थे। बहुत ही विशेष परिस्थिति में ईएसआर, यूरिन और स्टूल टेस्ट या एक्सरे कराते थे और इलाज सटीक बैठ जाता था। यहां तक गली-मोहल्लों में इस तरह के अनुभवी चिकित्सकों की कम दर पर बेहतर इलाज की सुविधा होती थी। आज तो पारे के नाम से पुरानी ब्लड प्रेशर नापने की मशीन धीरे धीरे बीते जमाने की बात होती जा रही है। ब्लड प्रेशर, पल्स रेट आदि सभी कुछ मशीनों पर निर्भर हो गया है। अधिकांश डॉक्टरों द्वारा बीमारी बताते ही जांचों की लंबी फेहरिस्त की पर्ची सामने आ जाती है। यह चिकित्सा विज्ञान की बदलती तस्वीर है। एक समय था तब डॉक्टर मरीज की चाल-ढाल, चेहरे-मोहरे से ही अंदाजा लगा लेते थे कि रोगी की क्या स्थिति है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि चिकित्सा विज्ञान ने आज जीवन आसान बना दिया है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि आज के डॉक्टरों की विशेषज्ञता बढ़ी है। पर इस सबके साथ ही क्लिनिकल जांचों पर अधिक निर्भरता जरूर चेताने वाली है। हालांकि रिपोर्ट दो-तीन साल पुरानी है पर नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 4 के दौरान प्रशिक्षित स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं द्वारा 6 लाख 78 लाख लोगों का बीपी नापा गया इसमें से पहली जांच में 16.5 फीसद लोग बीपी के मरीज पाए गए। जब इन्हीं लोगों की दुबारा और तिबारा जांच की गई तो यह आंकड़ा 16.5 से घटकर 10.1 फीसद रह गया। हालांकि अधिकांश चिकित्सक पहली बार बीपी अधिक होने की स्थिति में बीपी की दवा आंरभ नहीं करते पर कुछ अतिउत्साही डॉक्टर बीपी की दवा आरंभ कर देते हैं, जिससे वह व्यक्ति बीपी दवा लगातार लेने का आदी हो जाता है।

चिकित्सकों द्वारा सलाह दी जाती है कि दौड़ लगाकर आते या एक्सरसाइज के ठीक बाद बीपी चेक नहीं करवाया जाना चाहिए। इसी तरह से चाय-काफी के सेवन, सीढ़ियां चढ़कर आने या तनाव की स्थिति में भी बीपी अधिक आने की संभावना बनी रहती है। खास यह कि बीपी की स्थिति में अलग-अलग दिन एक से अधिक बार बीपी चेक करवाने से भी सही स्थिति का पता लगाया जा सकता है। सबसे अधिक समझने की बात यह हो जाती है कि परिस्थिति विशेष से भी बीपी की स्थिति प्रभावित होती है। इसी तरह से पल्स रेट प्रभावित रहती है। दरअसल बीपी अधिक या कम होने के गंभीर परिणामों यहां तक कि ब्रेन हेमरेज, पैरालिसिस, सिर में क्लोट आदि की आशंकाओं के चलते लोग अधिक सजग हो जाते हैं। चिकित्सक भी रिस्क नहीं लेना चाहते और इससे तात्कालिक बीपी की अधिकता भी रोग में परिवर्तित हो जाती है। ऐसे में जागरुकता की भी उतनी ही आवश्यकता है जितनी दवा की।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

Submitted By: Sanjeev Pash Edited By: Sanjeev Pash Published By: Sanjeev Pash at Oct 19 2019 1:41PM

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