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नवरात्रि का प्रथम दिवस : अनुसुइया-तप का दूसरा नाम

महिमा तारे

Update: 2019-09-29 02:00 GMT

अनुसुइया तप और स्वाध्याय की साक्षात मूर्ति है जहां कठोर व्रतस्थ जीवन का पर्याय है मां अनुसुइया। अनुसुइया का अर्थ ईष्र्या, द्वेष, मत्सर जहां वे दुर्गुण है ही नहीं उस ी का नाम है अनुसुइया। मां देवहुति और महर्षि कर्दम की पुत्री। ब्रह्माजी के मानव पुत्र महर्षि अत्रि की पत्नी। महर्षि अत्रि का आश्रम चित्रकूट में था। वे अपनी तपोसाधना में रात-दिन रत रहते थे। उनके पूजा पाठ के लिए नित्य जल लाना अनुसुइया का नित्यक्रम था। एक बार चित्रकूट में दस वर्षों तक वर्षा नहीं हुई। तब अनुसुइया ने मां गंगा की दिन रात आराधना की और गंगा जी प्रसन्न होकर महर्षि अत्रि के आश्रम के निकट एक पर्वत से फूट निकली। निर्मल जल की इस धारा का नाम ही मंदाकिनी पड़ा और मंदाकिनी के कारण चित्रकूट का क्षेत्र फिर हरा भरा हो गया।

वनवास के समय प्रभु श्रीराम अत्रि ऋषि के आश्रम में आठ वर्ष रहे। अत्रि महर्षि ने स्वयं अपने मुख से अनुसुइया के तप प्रभाव का वर्णन किया है वे परिचय कराते हुए कहते है कि यह अनुसुइया देवी है आपके लिए माता के समान पूजनीय है तब श्री राम सीता को देवी अनुसुइया से मार्गदर्शन लेने के लिए आश्रम में भेजते हैं। यहां पर वे सीता को पतिव्रत धर्म का उपदेश देते हुए कहती हैं कि समाज में यदि कही व्यभिचार दिखाई दे रहा है तो वह हम स्त्रियों की ही गलती मानी जाएगी क्योंकि समाज सदचरित्र बना रहे इसकी जिम्मेदारी ऋषि पत्नियों ने, महापुरुषों ने हम पर डाली है और भारतीय नारी इसमें सफल भी हुई है। यहां पर सती अनुसुइया ने ये भी आदर्श रखा कि केवल पतिव्रता बनी होने से काम नहीं चलेगा उनका समाज और राष्ट्र के प्रति भी उत्तरदायित्व होना चाहिए। इस उपदेश का ही प्रभाव था कि सीता आगे चलकर अपने आचरण से अपने को श्रेष्ठ पतिव्रता सिद्ध कर सकी। मां अनुसुइया ने यही पर उन्हें दिव्य व ाभूषण देती है। जो कभी न मैले होते ये न ही कभी फटते थे। सीता माता जितने दिन अशोक वाटिका में रही उन्होंने यही व पहने। महर्षि अत्रि और देवी अनुसुइया को कोई संतान नहीं थी। अत: सन्तान प्राप्ति की इच्छा से दोनों ने कठोर तपस्या की उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवता एक साथ प्रगट हुए और उनसे वर मांगने को कहा। दोनों ने कहा हमें आप पुत्र रूप में प्राप्त हो। त्रिदेव ने कहा ऐसा ही होगा। अनुसुइया के पतिव्रत धर्म ही कीर्ति तीनों लोकों में पहुंच गई थी। एक बार नारद ने लक्ष्मी पार्वती और सरस्वती के पास अनुसुइया के पतिव्रत्य धर्म का गुणवर्णन किया जिससे तीनों के मन में उनके प्रति ईष्र्या उत्पन्न हो गई। लक्ष्मी, पार्वती और सरस्वती ने अपने पतियों के आने पर कहा कि अनुसुइया का पुत्र बनने का वरदान देने से पहले अनुसुइया की पात्रता तो आप लोग परख लेते। कम से कम अब जाकर ही उसके पतिव्रत्य की परीक्षा ले लीजिए।

पत्नियों का संदेह दूर करने के लिए वे तीनों वापिस गए और अधोरियों का रूप धारण कर महर्षि के यहां पहुंचे। अनुसुइया ने अतिथियों का स्वागत सत्कार किया और उनके सामने कन्द, मूल फल आदि रखे तथा उन्हें ग्रहण करने का निवेदन किया। पर तीनों ने हाथ तक नहीं लगाया और बोले-देवी हम इन्हें तभी स्वीकार करेंगे जब आप निर्व होकर हमें ये दे। अनुसुइया ने हाथ में जल को लिया और अभिमंत्रित कर दोनों पर छिड़क दिया इस पर तीनों छह छह माह के शिशु बन गए। अब देवी ने निर्व होकर तीनों को बारी-बारी से उठाकर अपना स्तन-पान कराया और अन्दर ले जाकर महर्षि की गोद में डाल दिया। जब लक्ष्मी, पार्वती और सरस्वती को पता चला कि उनके पति तो छह-छह माह के बच्चे बन अत्रि ऋषि की गोद में खेल रहे हैं तो उन्हें अनुसुइया की शक्ति का ज्ञान हो गया। तब तीनों देवियां अपने पति को वापस पाने के लिए अनुसुइया जी से प्रार्थना करने लगी। तब अनुसुइया ने कहा कि इन देवताओं को मैं पुत्र रूप में पाना चाहती हूं और दत्तात्रय का जन्म हुआ। पतिव्रत धर्म की शक्ति का साक्षात उदाहरण प्रस्तुत करती अनुसुइया अपने सतीत्व के बल पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश को बाल रूप में धारण कराकर स्तनपान कराती है और कालान्तर में तीनों ने देवी अनुसुइया के गर्भ से जन्म लिया। विष्णु ने भगवान दत्तात्रय के रूप में ब्रह्मा ने सोम के रूप में और महेश ने दुर्वासा के रूप में जन्म लिया। 

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