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बच्चा ज्वालामुखी और मौन तूफान का ऐसा तांडव!

Update: 2018-12-25 10:18 GMT

इंडोनेशिया में अनाक क्रेकाटोआ ज्वालामुखी फटने और बिना किसी पूर्व आहट के समुद्री तूफान के आने से तबाही मच गई। इस तबाही से 373 लोगों की मौत हो गई और 1116 घायल हुए हैं। अरबों की संपत्ति नष्ट हो गई है। प्रकृति की यह विनाशलीला बालक कहे जाने वाले क्रेकाटोआ ज्वालामुखी और इससे उपजे समुद्री तूफान ने रची है। जापानी भाषा में समुद्री तूफान को सुनामी कहा जाता है। दुनियाभर के वैज्ञानिकों को हैरानी इस बात पर है कि प्रकृति ने इस तांडव को रचने से पहले किसी हलचल का संकेत नहीं दिया। सभी ज्वालामुखी, भूकंप और तूफान मापक यंत्र मौन रहे। इस कारण प्रशासन सावधान रहने और सुरक्षा स्थलों पर पहुंचने का अलर्ट भी जारी नहीं कर पाया। फिर भी माना जा रहा है कि ज्वालामुखी फटने के कारण पानी के भीतर हुई हलचल से यह आपदा आई। दक्षिणी सुमात्रा और जावा द्वीपों के बीच स्थित सुंडा द्वीप में यह ज्वालामुखी फटा है। ज्वालामुखी फटने की आवाज 2000 मील के व्यास में सुनी गई। यह ज्वालामुखी पिछले 6 माह से सक्रिय है। 1883 में यह एक धमाके से अस्तित्व में आया था। इस समय यहां करीब 35 हजार लोगों की मौत हुई थी। सुंडा द्वीप का निर्माण भी इसी क्रेकाटोआ ज्वालामुखी से निकले लावा से हुआ है। इंडोनेशिया रिंग ऑफ फायर क्षेत्र में स्थित है, इसलिए यहां दुनिया के सबसे अधिक भूकंप और समुद्री तूफान आते हैं। इसी साल 28 सितंबर को यहां सुलावेशी द्वीप में इसी तरह की दोहरी मार का सामना स्थानीय लोगों को करना पड़ा था, जिसमें 2500 लोग मारे गए थे।

इस दोहरी प्राकृतिक आपदा की वजह से 20 से 25 मीटर ऊंची समुद्री लहरें उठीं और सुंडा, जावा एवं सुमात्रा द्वीपों के सुंदर ग्रामों को लीलती चली गईं। इससे यहां के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल लगभग बर्बाद हो गए हैं। इन स्थलों पर रामायण कालीन सनातन हिंदू संस्कृति के अनेक मंदिर और भवन भी मौजूद थे। यहां का प्रसिद्ध रिसाॅट तानजुंग लेशुंग भी तबाह हो गया है। बताते हैं, धरती के अंदर मौजूद टेक्टाॅनिक प्लेटों के आपस में टकराने से भूकंप और ज्वालामुखी फटे और तेज समुद्री लहरों ने सुनामी का रूप ले लिया। ऐसा होने पर समुद्री लहरों में 500 किमी प्रतिघंटे की गति से कंपन होता है, नतीजतन लहरें ऊंची छलांग लगाकर अमर्यादित हो जाती हैं।

सबसे ज्यादा हैरानी इस बात पर है कि इन खतरों को भांपकर संकेत देने वाले उपकरण शांत रहे। इस कारण खतरे की चेतावनी नहीं दी जा सकी। इसी तरह की आपदा महाशक्ति माने जाने वाले देश अमेरिका में सैंडी तूफान के रूप में आई थी। इन आपदाओं से यह संकेत मिलता है कि हम विज्ञान और तकनीकी रूप में चाहे जितने सक्षम हो लें, अंततः प्राकृतिक आपदाओं के समक्ष लाचार ही हैं। इन प्राकृतिक प्रकोपों को क्या मानें, बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण या जलवायु परिर्वतन का संकेत ? या आधुनिक व औद्योगिक विकास के दुष्परिणाम ! यह रौद्र रूप प्रकृति के कालच्रक की स्वाभाविक प्रक्रिया है अथवा मनुष्य द्वारा प्रकृति से किए गए अतिरिक्त खिलवाड़ का दुष्परिणाम ! इसके बीच एकाएक कोई विभाजक रेखा खींचना मुश्किल है। लेकिन बीते एक-डेढ़ दशक के भीतर भारत, अमेरिका, ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया, सिडनी, फिलीपींस, श्रीलंका और नेपाल में जिस तरह से ज्वालामुखी तूफान, बाढ़, भूकंप, भूस्खलन, बंवडर और कोहरे के जो भयावह मंजर देखने में आ रहे हैं, इनकी पृष्ठभूमि में प्रकृति से किया गया कोई न कोई तो अन्याय अंतर्निहित जरूर है।

इस भयावहता का आकलन करने वाले जलवायु विषेशज्ञों का तो यहां तक कहना है कि आपदाओं के ये ताण्डव योरूप, एशिया और अफ्रीका के एक बड़े भू भाग की मानव आबादियों को रहने लायक ही नहीं रहने देंगे। लिहाजा अपने मूल निवास स्थलों से इतनी बड़ी तादाद में विस्थापन व पलायपन होगा कि एक नई वैश्विक समस्या 'पर्यावरण शरणार्थी' के खड़े होने की आशंका है। क्योंकि इतनी बड़ी संख्या में इंसानी बस्तियों को पहले कभी प्राकृतिक आपदाओं के चलते एक साथ उजड़ना नहीं पड़ा है। यह संकट शहरीकरण की देन भी माना जा रहा है।

प्राकृतिक प्रकोपों इनका विस्तार और भयावहता इस बात का संकेत है कि प्रकृति के दोहन पर आधारित विकास को बढ़ावा देकर जो हम पारिस्थितिकीय असंतुलन पैदा कर रहे हैं, वह मनुष्य को खतरे में डाल रहा है।

ये प्राकृतिक प्रकोप संकेत दे रहे हैं कि मौसम का क्रूर बदलाव ब्रह्माण्ड की कोख में अंगड़ाई ले रहा है। योरूप के कई देशों में तापमान असमान ढंग से गिरते व चढ़ते हुए रिकाॅंर्ड किया जा रहा है। शून्य से 15 डिग्री नीचे खिसका तापमान और हिमालय व अन्य पर्वतीय क्षेत्रों में 14 डिग्री सेल्सियस तक चढ़े ताप के जो आंकड़े मौसम विज्ञानियों ने दर्ज किए हैं, वे इस बात के संकेत हैं कि जलवायु परिर्वतन की आहट सुनाई देने लगी है। इसी आहट के आधार पर वैज्ञानिक दावा कर रहे हैं कि 2055 से 2060 के बीच में हिमयुग आ सकता है, जो 45 से 65 साल तक वजूद में रहेगा। 1645 में भी हिमयुग की मार दुनिया झेल चुकी है। ऐसा हुआ तो सूरज की तपिश कम हो जाएगी। पारा गिरने लगेगा । सूरज की यह स्थिति भी जलवायु में बड़े परिर्वतन का कारण बन सकती है। हालांकि सौर चक्र 70 साल का होता है। इस कारण इस बदली स्थिति का आकलन एकाएक करना नामुमकिन है।

यदि ये बदलाव होते हैं तो करोड़ों की तादात में लोग बेघर होंगे। विषेशज्ञों का मानना है कि दुनियाभर में 2050 तक 25 करोड़ लोगों को अपने मूल निवास स्थलों से पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है। बदलाव की यह मार मालद्वीव और प्रशांत महासागर क्षेत्र के कई द्वीपों के वजूद पूरी तरह लील लेगी। इन्हीं आशंकाओं के चलते मालद्वीव की सरकार ने कुछ साल पहले समुद्र्र की तलहटी में पर्यावरण संरक्षण के लिए एक सम्मेलन आयोजित किया था, जिससे औद्योगिक देश काॅर्बन उत्सर्जन में कटौती कर दुनिया को बचाएं। अन्यथा प्रदूषण और विस्थापन के संकट को झेलना मुश्किल होगा। साथ ही सुरक्षित आबादी के सामने इनके पुनर्वास की चिंता तो होगी ही, खाद्य और स्वास्थ्य सुरक्षा भी अहम् होगी।

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