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यह तो सिर्फ ट्रेलर है पिक्चर अभी बाकी

यह तो सिर्फ ट्रेलर है पिक्चर अभी बाकी
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विजय कुमार गुप्ता

मथुरा। कोरोनावायरस का प्रकोप तो अभी ट्रेलर है, पिक्चर तो अभी शुरू भी नहीं हुई। प्र.ति के साथ खिलवाड़ करने वाले मनुष्यों ने जो उपद्रव मचा रखा था, यह उसी का सबक है। एक ही झटके में पूरी दुनिया जेल में तब्दील कर दी और महीनों की सजा सुना दी, जिसकी कहीं अपील भी नहीं हो सकती।

प्र.ति अपना संतुलन खुद बनाती है, जब इंसानों का दिमाग असंतुलित होता है तो वह इसका इलाज भी स्वयं करती है। वह दुनिया को उपहार भी देती है और उससे खिलवाड़ करने वाले इंसान को सजा देने से भी नहीं चूकती। जब-जब मनुष्य इस धरती माता के साथ अन्याय और अत्याचार करता है, तब-तब उसे इसी प्रकार डंडा मारकर सुधारा जाता है कि लो बेटा प्रसाद।

पहले जब प्र.ति प्रेमी चीख-चीख कर कह रहे थे कि दुनिया भर में चरम पर पहुंच चुके प्रदूषण को सभी देश मिलकर रोको, ग्लोबल वार्मिंग में सहयोग करो, पेड़ों को मत काटो। लेकिन अपने विकास का रोना रोकर कोई भी देश नहीं सुन रहा था। इस बारे में चीन तो बिल्कुल भी सुनने को तैयार नहीं था और उसी चीन से कोरोना की शुरुआत हुई।

लो अब कर लो विकास, यह विकास नहीं हृास है जिसको दुनिया वाले विकास मानते हैं। वही तो सत्यानाश की जड़ है, असली विकास होता है अपने चरित्र का, अपने संस्कारों का और सबसे बड़ा विकास तो परोपकार से उत्पन्न होता है। हम सभी परोपकार की भावना रखेंगे तो विकास मनुष्य के चरणों में दिखाई देगा और सुख शांति कायम रहेगी।

इसी प्रसंग में एक कल्पित कहानी बताता हूं। एक बार ब्रह्मा जी ने देवताओं और राक्षसों की सामूहिक दावत रखी। ब्रह्मा जी जब-जब कुछ विशेष करते, तब-तब कुछ ना कुछ माया जरूर रच देते थे। पहल शुरू हुई कि पहले कौन भोजन करेगा। राक्षस लपक कर बोले कि पहले हम खाएंगे। देवता बोले कि राक्षस भाइयों, पहले आप ही खा लो, हम तो बाद में खा लेंगे, जो बचेगा उसी को ग्रहण करके संतुष्ट रहेंगे।

खैर पंगत लगी और समय आधे घंटे का निर्धारित कर दिया। राक्षसों ने आपस में तय कर लिया कि आधा घंटे में तो हम सारा खाना चट कर जाएंगे। देवताओं को कुछ नहीं छोड़ेंगे और उन्हें भूखा ही लौटना पड़ेगा। तब बड़ा मजा आएगा। लेकिन जब खाना खाने का नंबर आया, तब ब्रह्माजी ने माया रच दी कि किसी के हाथ कोहनी की ओर से मुड़े ही नहीं, सीधे के सीधे ही रह गए। बेचारे राक्षसों के नथुनों में सुंदर एवं स्वादिष्ट भोजन की सुगंध भूख की व्याकुलता को बढ़ा रही थी। उनको बड़ा गुस्सा आया, बोले कि ब्रह्मा जी आपने यह क्या किया? अब हम कैसे खाएं? हमारे साथ यह भद्दा मजाक क्यों किया? यह तो देवताओं के साथ पक्षपात है क्योंकि हम तो भूखे रह जाएंगे और देवता पेट भर खा लेंगे।

ब्रह्माजी मुस्कुरा कर बोले कि अरे भाई यह माया तो देवताओं पर भी लागू होगी। खैर आधा घंटा बीता और देवताओं की बारी आई, राक्षस आपस में बोले कि यदि ब्रह्मा ने बेईमानी की तो हम सब अभी इस ब्रह्मा के बच्चे को मजा चखा देंगे। देवता लाइन में बैठे और भोजन परोसा गया। खाना शुरू होने की घंटी बजी। देवताओं के हाथ भी कोहनी की ओर से नहीं मुड़े, किंतु देवता तो देवता होते हैं। उनके अंदर परोपकार की भावना होती है, इसलिए उन्होंने पत्तल से खाना उठा-उठाकर एक दूसरे के मुंह में डालना शुरू कर दिया तथा झटपट आपस में एक दूसरे का पेट भर दिया और राक्षस हाथ मलते ही रह गए, उन्हें भूखे ही लौटना पड़ा, इसके अलावा और कोई चारा भी न था।

इस कल्पित कहानी का सार किसी को बताने और समझाने की जरूरत नहीं। दुनिया के सभी देश, सभी समाज और सभी लोग आपस में हिल-मिल कर परोपकार की भावना से रहें और निरीह प्राणियों की हत्या न करें तो फिर प्र.ति को सजा देने की क्या जरूरत पड़ेगी। प्र.ति का डंडा खाने के बाद अब देखो यमुना मैया की धारा निर्मल होने लगी। शायद 50 साल पहले ऐसी निर्मल यमुना बहती थी। आज उसमें सिक्के डाल दो जो तली में साफ चमकते हैं। ओजोन की परत में जो छेद हो गया था वह भी स्वतः ही भरने लगा। स्वच्छ हवा मिलने लगी, दम घोंटू वातावरण अपने आप लुप्त हो गया। कारखानों और गाड़ियों का धुंआ ऐसे गायब हो गया जैसे गधे के सिर से सींग।

एक छोटा सा वायरस जो नंगी आंखों से दिखाई भी नहीं देता, उसने पूरे संसार को नचा कर रख दिया और जब प्र.ति कोई बड़ा कहर ढाएगी तो क्या होगा? जीव-जंतु और पशु-पक्षी प्रेमी दयावान लोग इन निरीह प्राणियों की हत्या करने का विरोध और मांसाहार त्यागने की कहते थे लेकिन उनकी कोई नहीं सुनता था और अब झक मारकर मांसाहार छोड़ रहे हैं। ट्रेलर से यह हाल है तो जब पिक्चर चलेगी तब क्या होगा? जब हनुमान जी ने राम जी की सेना में मोर्चा संभाला था, तब उन्होंने गदा नहीं चलाई, सिर्फ हाथी को उठा कर हाथी से और ऊंट को उठा कर ऊंट से मार दिया एवं रथ को उठाकर दूसरे रथ पर दे मारा क्योंकि गदा चलाना चींटी को हथौड़े से मारने के समान था।

ऐसा लगता है कि कहीं कलयुग का अंत तो नहीं आ गया? लेकिन एक गृहस्थ के संत का कथन है कि अभी तो कलयुग को शुरू हुए पांच हजार वर्ष ही हुए हैं, लाखों वर्ष बाकी है। यह तो संधि काल है। कलयुग के मध्य में भी बीच-बीच में सतयुग की झलक आती है। इसी प्रकार इस विपत्ति के पश्चात सतयुग की झलक दिखाई देगी। उन्होंने कहा कि वर्तमान हालातों पर कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की एक कविता सटीक बैठती है जिसमें एक घमंडी को छोटे से तिनके ने ऐसी मात दी कि उसकी ऐंठ दबे पांव भाग गई। ठीक यही स्थिति वर्तमान में परलक्षित हो रही है।

समाचार के बीच में बाॅक्स में लगायें।

एक तिनका है बहुत तेरे लिए

मैं घमण्डों से भरा ऐंठा हुआ।

एक दिन जब था मुण्डेरे पर खड़ा।।

आ अचानक दूर से उड़ता हुआ।

एक तिनका आंख में मेरी पड़ा।।

मैं झिझक उठा हुआ बेचैन सा।

लाल होकर आंख भी दुखने लगी।।

मूंठ देने लोग कपड़े की लगे।

ऐंठ बेचारी दबे पांव भागी।।

जब किसी ढब से निकल तिनका गया।

तब समझ ने यूं मुझे ताने दिए।।

ऐंठता तू किसलिए इतना रहा।

एक तिनका है बहुत तेरे लिए।।

अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

Updated : 3 April 2020 2:47 PM GMT
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स्वदेश मथुरा

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