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स्वामी 'हरिदास' जी के रागों का विस्तार कर रहे 'मल्लिक बंधु'

-'ध्रुपद' को युवाओं के बीच लोकप्रिय बनाते 'मल्लिक बंधुओं' के 'भागीरथी' प्रयास

आलापचारी के साथ ब्रजभाषा के पदों की साहित्यिक रूप में प्रस्तुति

मधुकर चतुर्वेदी/साक्षात्कार। भारतीय संस्कृति में संगीत की आदिप्रेरक 'ध्रुपद' गायकी है। माना जाता है कि ईश्वर से प्रदत्त इस गायिकी का आध्यात्म और साधना के वातावरण में विकास हुआ। मंदिरों से निकलकर राजदरबारों में भी ध्रुपद भारतीय संस्कृति का केंद्र बिन्दु रहा और वर्तमान में भी अपने प्राचीन वैभव के साथ युवाओं केे कंठ पर संस्कृति का गान कर रहा है। ध्रुप्रद की इस विकास यात्रा में 'दरभंगा' घराने का विशिष्ट योगदान रहा है। दरभंगा घराना ना केवल ध्रुपद गायन, अपितु कतिपय संस्कृतियों के उद्भव का केंद्र भी रहा है। पं. करताराम मल्लिक से लेकर पं. रामचतुर, पं. विदुर मल्लिक, प्रेमकुमार मल्लिक ने दरभंगा की गायकी को ऊंचाइयों तक पहुंचाया। वर्तमान में 'पं. प्रशांत मल्लिक व पं. निशांत मल्लिक' दरभंगा घराना व धु्रपद के अतीत के वैभव का दिग्दर्शन युवाओं को करा रहे हैं। देश-विदेश के सभी प्रतिष्ठित मंचों पर ध्रुपद गान की प्रस्तुति दे चुके दोनों भाईयों के आरोहों-अवरोहों पर दरभंगा घराने की विरासत हमेशा लहराती रहती है। राग भैरव, असावरी, तोड़ी, भीमपलासी, पुरिया धनाश्री, मारवा, चंद्रकौस, मालकौंस आज इनकी पहचान है। स्वदेश से वार्ता में पं. प्रशांत व निशांत मल्लिक ने दरभंगा घराने की ध्रुपद गायकी के वैशिष्ट को बखूबी प्रस्तुत किया।

प्र. ध्रुपद की उत्पत्ति किस प्रकार हुई?

उ. ध्रुपद से पहले प्रबंध गायन होता था। कहीं-कहीं ध्रुवगान भी माना जाता है। 12 वीं सदी के नाट्यशास्त्र में इसका उल्लेख है। ध्रुपद गायन करीब एक हजार वर्ष प्राचीन है। पहले देवी देवताओं की स्तुति के इस गायन शैली को अपनाया जाता था। 15 वीं शताब्दी में इसे राजाश्रय प्राप्त हुआ। श्री स्वामी हरिदास जी, राजा मानसिंह तौमर, अकबर आदि ने ध्रुपद के महत्व को पहचाना। ध्रुपद की विकास यात्रा में सर्वाधिक योगदान स्वामी हरिदास जी का है। उन्होंने तानसेन, बैजू, गोपाल नायक आदि शिष्यों को तैयार किया। हालांकि स्वामी जी केवल श्री कृष्ण के लिए गाते थे।

प्र. आपके मनोयोग में ध्रुपद की उत्तम परिभाषा क्या है?

उ. ध्रुव और पद दो शब्दों से मिलकर बना है। ध्रुव यानि कुछ ऐसा, जो अटल हो और उसकी तुलना ना हो। पद का अर्थ साहित्य से है। साहित्य का सृजन और उसकी स्वरमालिका बनाना, यही ध्रुपद है। इसका पूरा नाम ध्रुवपद है, कालांतर में यह ध्रुपद हो गया।

प्र. ध्रुपद गायन को लोकप्रिय बनाने के लिए आप किन तत्वों पर ध्यान देते हैं?

उ. हम ध्रुपद के सिद्धांत को बदल नहीं सकते और कोशिश भी नहीं करनी चाहिए लेकिन, हम नई पीढ़ी के सामने आलाप पर विशेष ध्यान देते हैं। आलाप में कोई रिदम नहीं है। जिसकी रूचि है, वह सुनेगा। हमने आलाप को कर्णप्रिय बनाने के लिए प्रयोग किए हैं। आलाप में चार चरण होते हैं। जिसमें ताल ना हो, वह अनिबद्ध और ताल को मिला लें, तो निबद्ध। हम दोनों भाईयों ने कोशिश की है कि आलाप, जोड़, झाला की प्रस्तुति पखावज के साथ करें। इस प्रकार की आलापचारी तालबद्ध कम लेकिन, लयबद्ध अवश्य हो जाती है।

प्र. अक्सर अनुभव में आता है कि ध्रुपद गायन कुछ खास रागों में ही होता है। क्या यह बात सही है?

उ. जी नहीं, ध्रुपद गायन सभी रागों में संभव है। जैसे, ध्रुपद में शिवरंजनी राग कम प्रयुक्त होता है, इस राग में गजलें ज्यादा गायीं जाती हैं लेकिन, हम इसका प्रयोग ध्रुपद में करते हैं। राग परमेश्वरी, हंसध्वनि, चारूकेशी, कलावती, भिन्नषड़ज, किरवानी, गोरखकल्याण आदि सभी रागों में हम ध्रुपद गायन करते हैं।

प्र. ध्रुपद गायन की कितनी वाणियां हैं?

उ. ध्रुपद के सभी घरानों में चार वाणियां प्रचलित हैं। सभी वाणियां तानसेन से सम्बंधित हैं। तानसेन का एक पद देखें, जिसमें उन्होंने वाणी की चर्चा की है। 'वाणी चारों के व्यवहार, सुन लीजिए वो गुणीजन, तब ही पावे यह विद्यासागर। राजा गौरहार, फौजदार खंनडार, दिवान डागुर, बक्शी नौहार। सप्त स्वर, 21 मूर्छना, 22 श्रुति, 49 कोटितान, तानसेन आधार।

प्र. दरभंगा घराने का वैशिष्ट क्या है?

उ. हरिदास जी ने तानसेन को संगीत सिखाया। तानसेन ने ध्रुपद का वर्गीकरण किया। दरभंगा घराने में गौरहारी व खनडार वाणी का समावेश है। तानसेन स्वयं गौरहारी वाणी के गायक थे। दरभंगा घराने की शुरूआत पं. राधाकृष्ण, पं. करताराम मल्लिक जी से हुईं। ये दोनों भाई थे। जिन्होंने तानसेन के भतीते महारंग जी से ध्रुपद सीखा। भूपत खान जी से भी हमारे पूर्वजों से संगीत सिखा। भूपतखान की प्रसिद्ध बंदिश 'जागो मोहन प्यारे' को आज सभी बड़े चाव से गाते हैं। हमारे घराने में वीर, श्रंगार, भक्तिरस का समावेश है।

प्र. ब्रज के भक्तकवियों की गायकी को आप किस रूप में लेते हैं?

उ. स्वामी हरिदास, अष्टछाप के कवि, मीरा, तुलसी आदि भक्त कवियों के पद जीवन के सभी सोपानों को विशुद्ध आध्यात्मिक रूप में प्रस्तुत करते हैं। लोग इन कवियों के पदों को सुनना पसंद करते हैं। हरिदास जी ने अपने पदों को धु्रपद अंग में रचा। लोग हमसे स्वामी जी के पदों को सुनना चाहते हैं। उनके पद का एक सौंदर्य देखें-'माई री सहज जोरी प्रकट भई। जु रंग की गौर-स्याम घन-दामिनि जैसें। प्रथम हूं हुती, अब हूं आगें हूं रहिहै, न टरिहै तैसै। अंग-अंग की उजराई-सुघराई-चतुराई-सुन्दरता ऐसें। श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा-कुंजबिहारी, सम वैस वैसें। ब्रज की रचनाओं को विश्व में दर्जा दिया जाता है। ब्रज का साहित्य बहुत उन्नत कोटि का है।

प्र. दरभंगा घराने में क्या साहित्य लेखन की परंपरा है?

उ. जी बिल्कुल रही है। पं. रामचतुर मल्लिक जी के पिता पं. राजितराम मल्लिक जी ने आज से 150 वर्ष पूर्व 'भक्ति विनोद' नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में उन्होंने करीब 500 से अधिक पदों को लिखा। इस पुस्तक में मल्हार, कान्हड़ा आदि प्राचीन रागों के प्रकार संगीत के छात्रों को मौलिकता प्रदान कर रहे हैं। हमारे पिता पं. प्रेमकुमार मलिक ने 'दरभंगा घराना एवं बंदिशें' लिखी है। इसमें स्वरोें में लिपिबद्ध बंदिशों का संग्रह है। वहीं मेरे (प्रशांत मलिक) द्वारा एक पुस्तक 'पं. विदुर मल्लिक का संगीत और योगदान', जिसमें स्वामी जी के केलिमाल के पदों पर काम किया। संगीत रसिक को आनंदित करेगी, ऐसी आकांक्षा है।

प्र. दरभंगा घराने की गायकी में पखावज संगत का कुछ अलग अंदाज है। इस बारे में कुछ बताएं?

उ. पखावज में दरभंगा घराना वीररस का बाज है। इस घराने में एक से बढ़कर एक विद्धान पखावजी हुए हैं। पं. देवकीनंदन पाठक, भीम मल्लिक, पं. रामशीष जी, अनिल चैधरी, रमेश मल्लिक आदि। मेरे नाना पं. राम जी उपाध्याय ने भी पखावज के अनेंको शिष्यों को तैयार किया है।

प्र. आप संगीत में आलोचना के महत्व को स्वीकार करते हैं?

उ. जी अवश्य। ना केवल संगीत अपितु हर क्षेत्र में आलोचना के महत्व को स्वीकार करना चाहिए। आलोचना आपकी कमियों की ओर ध्यान केंद्रीत करते हुए आपको आत्ममंथन का अवसर देती है। अगर गाते समय आपने 'मध्यम' को कुछ ज्यादा लगा दिया और कोई गुणीजन हमें कमीं बताता है, तो भविष्य में गलती दुबारा नहीं होती।

प्र. ध्रुपद के विकास को लेकर आपके द्वारा क्या प्रयास किए जा रहे हैं?

उ. ध्रुपद जन-जन तक लोकप्रिय हो, इसके लिए इलाहाबाद में 'पं. विदुर मल्लिक अकाडमी' ध्रुपद के छात्रों को तैयार कर रही है। वर्ष में अकाडमी द्वारा दो बार राष्ट्रीय स्तर के संगीत कार्यक्रम ध्रुपद के कालाकारों को मंच उपलब्ध करा रहे हैं। वहीं हम दोनों भाईयों के द्वारा देशभर के विभिन्न स्कूलों में छात्रों से साथ धु्रपद की कार्यशाला व कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।

मलिक बंधु-एक परिचय

- जन्म - इलाहाबाद में

- संगीत की शिक्षा - दादा स्व. पं. विदुर मल्लिक जी एवं पिता पं. प्रेम मल्लिक जी से।

- उपलब्धियां - आकाशवाणी के ए ग्रेड कलाकार, बिहार सरकार द्वारा बिहार कला पुरस्कार, राष्ट्रीय संगीत नाटक एकाडमी द्वारा उस्ताद बिस्मिलाह खां पुरस्कार, महाराणा मेवाड से डागर घराना अवार्ड, मनमोहन भट्ट अवार्ड आदि अनेकों ख्यातिप्राप्त सम्मान से सम्मानित

- देश - विदेश के अनेंकों प्रतिष्ठित मंचों पर प्रस्तुति

- स्कूली छात्रों के बीच ध्रपुद गायन को प्रचारित करना।

- केंद्र - नोएडा-उप्र।

Updated : 15 Dec 2018 1:50 PM GMT
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Swadesh Digital

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