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अल्पसंख्यकों को परिभाषित करना अत्यावश्यक क्यों है?

अल्पसंख्यकों को परिभाषित करना अत्यावश्यक क्यों है?
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वेबडेस्क। अल्पसंख्यकों और अल्पसंख्यक संस्थानों को मिलने वाले विशेष अधिकारों को देखकर कर्नाटक के लिंगायत समुदाय ने भी अपने को अल्पसंख्यक घोषित किए जाने की मुहिम चलाई। सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने तो उन्हें अल्पसंख्यक घोषित भी कर दिया। लेकिन नियमानुसार जब तक केंद्रीय सरकार और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग इसकी पुष्टि नहीं करता तब तक उन्हें अल्पसंख्यक का स्थान प्राप्त नहीं होगा। अन्यथा हिंदू समाज से एक समुदाय और निकलकर अल्पसंख्यक हो गया होता जैसा सिख, जैन और बौद्ध धर्म के साथ हुआ है।

यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। उत्तर भारत में कायस्थ समुदाय के लोगों ने भी इसी तरह की प्रार्थना पूर्व में की थी कि उन्हें भी अल्पसंख्यक घोषित कर दिया जाए ताकि वह अपने शैक्षणिक संस्थान चला सकें।संविधान के अनुच्छेद 29-30 जिस तरह विशेषाधिकार दे रहे हैं, उसके कारण देश के लिए भी विघटन की परिस्थितियाँ पैदा हो रही हैं जो सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति के लिए बहुत ही प्रतिकूल है।

अल्पसंख्यक घोषित किए जाने के पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि अल्पसंख्यक घोषित होने के बाद उस समुदाय को अपने स्वायत्त शैक्षणिक संस्थान चलाने के अधिकार मिल जाते हैं जिसमें उनके समुदाय के लिए 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित हो जाती हैं।देश की शिक्षा में ईसाई संस्थानों की अग्रणी भूमिका इसी कारण है। दिल्ली के सेंट स्टीफेंस जैसे कॉलेज में, जहाँ हिंदुओं को 98 प्रतिशत अंक पाकर भी प्रवेश नहीं मिलता, वहाँ ईसाइयों को 65-70 प्रतिशत पर भी प्रवेश मिल जाता है क्योंकि उनकी जनसंख्या देश में लगभग 2 प्रतिशत है परंतु इन संस्थाओं में उनके लिए 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित हैं।

धर्मपरिवर्तन का यह भी एक बड़ा कारण है। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस समुदाय की जनसंख्या 80 प्रतिशत है उसे इन नियमों के कारण अपने संस्थान बनाने का अधिकार नहीं है। तरह-तरह के जातीय और धार्मिक आरक्षण के कारण उनको शिक्षा प्राप्त करने के लिए भी दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं।

परिवर्तन कैसे हो सकता है?

संविधान संशोधन एक भारी-भरकम प्रक्रिया है। यदि भारत सरकार संविधान को बदलना चाहेगी और अनुच्छेद 25 से लेकर 30, जिसमें अल्पसंख्यकों को ये विशेषाधिकार दिए गए हैं, में परिवर्तन करेगी तो भारत में और सारी दुनिया में एक गलत संदेश जाएगा। यह हमारा उद्देश्य भी नहीं है।

हमारा उद्देश्य किसी के अधिकारों को कम करना नहीं, बल्कि सभी को बराबर अधिकार देना है। अल्पसंख्यकवाद और अल्पसंख्यकों को विशेषाधिकार दिए जाने के कारण हिंदुओं की स्थिति संविधान में और देश में दूसरे श्रेणी के नागरिकों की हो गई है। इस असमानता को दूर करने के लिए आवश्यक है कि इस स्थिति को बदला जाए।बदलने के लिए संविधान संशोधन की प्रक्रिया कठिन हो सकती है। इसलिए इसका सरल तरीका यह है कि सरकार एक कानून बनाकर "अल्पसंख्यक" शब्द को परिभाषित करे। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अल्पसंख्यक उन्हीं लोगों को मानने की ओर संकेत दिया है जिनकी जनसंख्या 1 या 2 प्रतिशत से कम हो।

सरकार राष्ट्रीय सहमति के बाद कानून बनाकर सिर्फ उन लोगों को अल्पसंख्यक माने जिनकी जनसंख्या देश में कुल आबादी का 1 प्रतिशत या उससे कम है। इसका दूसरा तरीका यह हो सकता है की प्रतिशत की बजाय उनकी कुल जनसंख्या को भी आधार माना जा सकता है।जिस धार्मिक समुदाय, जातीय समुदाय या भाषाई समुदाय की कुल जनसंख्या एक करोड़ से कम हो उसे अल्पसंख्यक घोषित किया जाए। इस तरह से अल्पसंख्यक को परिभाषित करने के दो तरीके हो सकते हैं।

इनमें से विस्तृत विचार विमर्श के बाद किसी एक मानक को स्वीकार किया जा सकता है। ऐसा करने से सिर्फ वे लोग ही अल्पसंख्यक की श्रेणी में बचे रहेंगे जो वास्तविक रूप में अल्पसंख्यक हैं। ईसाई और मुसलमान किसी भी रूप में अल्पसंख्यक नहीं हैं। यूँ तो बौद्ध, जैन और सिख को भी इस वर्ग से बाहर किया जाना चाहिए।सही अर्थों में जो अल्पसंख्यक हैं, जैसे पारसी और यहूदी सिर्फ उन्हें ही यह संरक्षण मिलना चाहिए। इसी तरह से भाषाई अल्पसंख्यकों की पहचान की जाए और जो लोग भाषाई दृष्टि से एक करोड़ से कम जनसंख्या वाले हैं सिर्फ उन्हें ही यह अधिकार दिया जाए। इसी तरह से जातीय अल्पसंख्यक भी पहचाने जा सकेंगे।

वर्तमान स्थिति यह है कि भाषाई और जातीय अल्पसंख्यकों की ओर कोई ध्यान ही नहीं है, सिर्फ धार्मिक अल्पसंख्यकों, वह भी जो सही अर्थों में अल्पसंख्यक नहीं हैं, उन्हें ही सारे विशेषाधिकार दे दिए गए हैं।इन विशेष अधिकारों का दुरुपयोग करके मदरसे राष्ट्र-विरोधी शक्तियों को प्रश्रय देते हैं और चर्च धर्म परिवर्तन के केंद्र बन गए हैं। पूरा का पूरा पूर्वोत्तर भारत, मध्य भारत का बनवासी क्षेत्र इनकी गिरफ्त में है।

नक्सलवाद और आतंकवाद को बढ़ावा देने में काफी बड़ा हाथ धर्म परिवर्तन कराने वाली संस्थाओं का भी है। यही कारण है कि नक्सलवाद और आतंकवाद उन्हीं क्षेत्रों में अधिक है जहाँ पर इनकी गतिविधियाँ अधिक हैं, चाहे वह जम्मू-कश्मीर हो, पूर्वोत्तर राज्य हों या छत्तीसगढ़ का सुकमा, गढ़चिरौली इत्यादि का क्षेत्र हो।भारत की सनातन संस्कृति दुनिया की प्राचीनतम संस्कृति और भारत प्राचीनतम सभ्यता है। जब संसार में लोगों को लिखना-पढ़ना तक नहीं आता था और नंगे घूमते थे, हमने महान दार्शनिक ग्रंथ, गणित, विज्ञान, ज्योतिष, संगीत, साहित्य और कला के विभिन्न क्षेत्रों में अतुलनीय प्रगति की थी।

सहस्रों वर्ष पूर्व हमारे ऋषि-मुनियों ने "वसुधैव कुटुंबकम" यानी "संपूर्ण वसुधा एक परिवार है" का सर्वश्रेष्ठ विचार दिया था। इतिहास साक्षी है दुनिया में जितने भी सताए हुए लोग हैं उन्हें भारत में शरण मिली है।ज़ोराष्ट्रियन धर्म यानी "पारसी" धर्म सारे संसार से और अपने मूल देश ईरान से भी खत्म हो चुका है, लेकिन भारत में जीवित है। जब सारी दुनिया यहूदियों के नरसंहार में जुड़ी जुटी हुई थी, भारत ने उन्हें संरक्षण प्रदान किया।

इज़राइल बनने पर यहूदियों ने अपने इतिहास में इसे रेखांकित भी किया। उन्होंने भारत की प्रशंसा में लिखा, "सारे संसार में हमें सताया गया। भारत अकेला देश है जहाँ हमें संरक्षण प्राप्त हुआ और समान अधिकार दिए गए।"

धर्मनिरपेक्षता- धर्मपरिवर्तन का एक मुखौटा -

हमारे देश में "धर्मनिरपेक्षता" जैसे पाखंड के लिए कोई स्थान नहीं है क्योंकि भारत की आत्मा में धर्मनिरपेक्षता रची-बसी है। वोट की राजनीति के लिए इस शब्द को भारत के संविधान की प्रस्तावना में, आपातकाल के दौरान 1976 में बलपूर्वक और असंवैधानिक तरीके से घुसेड़ दिया गया था।इसी की आड़ लेकर के तरह-तरह के कानून बनाए गए। 1992 में अल्पसंख्यक आयोग का गठन कर दिया गया जो इस अल्पसंख्यकवाद को बढ़ावा देने का एक केंद्र बिंदु बन गया है। अतः हमारा अनुरोध है कि राष्ट्रहित में यथाशीघ्र कानून बनाकर के अल्पसंख्यक को परिभाषित करें और राष्ट्र को अल्पसंख्यकवाद के विनाश से बचाएँ।

(मेजर सरस त्रिपाठी भारतीय सेना, सार्वजनिक व निजी क्षेत्र में लम्बी सेवा के बाद अब स्वतंत्र लेखक और स्तंभकार हैं।)

Updated : 23 Feb 2022 2:12 PM GMT
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