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राष्ट्र निर्माण से जुड़े साधु समाज

  • संस्कारित समाज निर्माण के लिए बाहर आएं साधु-संत- डाॅ मोहन भागवत
  • लेखक - प्रमोद भार्गव

राष्ट्र निर्माण से जुड़े साधु समाज
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वेबडेस्क। मजबूत भारत-राष्ट्र निर्माण के लिए अनुषासित, चरित्रवान और संस्कारित समाज निर्माण की जरूरत है। इसके लिए साधु-संतों को आश्रमों से बाहर निकल कर आगे आना होगा। यह बात मां नर्मदा की उद्गम स्थली अमरकंटक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डाॅ मोहन भगवत ने कही। यह बेहद महत्वपूर्ण बात है, क्योंकि आजकल ज्यादातर संत-समाज आश्रम बनाकर वहीं से संदेष देने का कार्य कर रहे हैं। याद रहे, शंकराचार्य ने साधु-संन्यासियों के सार्थक उपयोग के लिए ही चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की थी। इन मठों को ज्योर्तिमठ, श्रृंगेरी मठ्, गोवर्धन मठ और शारदा मठ के नामों से जाना जाता है। ये मठ धर्म और संस्कृति के प्रचार-प्रसार के साथ सामाजिक कार्यों से भी जुड़े रहे हैं। इतिहास गवाह है आजादी की लड़ाई में अखाड़ों से जुड़े बाबाओं ने महारानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब और तात्या टोपे के साथ अंग्रेजों से युद्ध भी लड़े थे। कुछ साल पहले महाराष्ट्र के भोईरपाड़ा शिरडी के साई बाबा मंदिर न्यास और सुजलान कंपनी के सयुक्त प्रयासों के फलस्वरूप पवनचक्की परियोजनाओं से 14 लाख यूनिट बिजली का उत्पादन किया गया था। यह बिजली महाराष्ट्र बिजली बोर्ड को बेच भी दी गई। न्यास ने 15 करोड़ का निवेश कर यह उपलब्धि हासिल की। न्यास पवन चक्कियों की संख्या बढाकर लागत राशि 6 साल के भीतर निकाल लेने की भी उम्मीद रखता है। राष्ट्र निर्माण से जुड़ी बुनियादी समस्याओं के समाधान की दिशा में किसी धार्मिक न्यास द्धारा की गई यह एक महत्वपूर्ण पहल है। हालांकि अनेक संत अपने आश्रमों में संस्कृत विद्यालय, भंडार, अस्पताल और गौषालाएं चला रहे हैं।

मानव शक्ति के रूप में भारत के पास विशाल साधु समाज है। जिसे अब तक आंतरिक चेतना एवं अतीन्द्र्रीय शक्तियों के नियंत्रण का ही मुख्य कारक एवं प्रतीक माना जाता रहा है। यदि यह शक्ति राष्ट्र निर्माण संबंधी विकास कार्यों से जुड़ी बुनियादी समस्याओं के हल में जुट जाएं तो राष्ट्र का बहुत भला हो सकता है। क्योंकि इस समाज के साथ अपार शारीरिक बल होने के साथ धार्मिक न्यासों की संपत्ति के रूप में अकूत आर्थिक बल भी है। दिवंगत जयगुरु देव बाबा के पास 1200 करोड़ की संपत्ति सार्वजनिक हुई है। सत्य संाई बाबा के पास भी अकूत दौलत के भण्डार मिले हैं। हालांकि सांई न्यास करीब 500 ग्रामों को अपनी ओर से पेयजल उपलब्ध कराता है और हजारों लोगों को शिक्षा व स्वास्थ्य की मुफ्त सेवा भी करता है। भ्रष्टाचार के चलते भारत का संस्थागत एवं प्रशासनिक ढ़ांचा गड़बड़ा हुआ है। ऐसे में मानवीय पक्षों को उभारते हुए धार्मिक ट्रस्ट और उनका संरक्षक साधु समाज विकास कार्यों से जुड़कर राष्ट्र निर्माण के क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप कर सकता है। क्योंकि हताशा से भरी इस दुनिया में धर्म ही ऐसा इकलौता क्षेत्र है, जिसमें निर्विवाद रूप से उत्तरोत्तर विकास होता जा रहा है। भारत के मंदिरो, गुरुद्वारांे, मस्जिदों और गिरिजाघरों में भक्तों की संख्या निरंतर बढ़ रही है और भक्त सामथ्र्य से ज्यादा दिल खोलकर दान भी दे रहे है।

धर्म दीर्धकालीक सत्ताधारियों के राजनीतिक लाभ का हितपोषक न बना रहे

भारत के हर परिर्वतनकारी युग में मठ, मंदिरों और साधुओं ने सास्ंकृतिक चेतना का नवजागरण कर राष्ट्र निर्माण को नया मोड़ देते हुए समय-समय पर उदात्त भावनाओं और मंगलकारी सिद्धान्तो का प्रतिपादन किया है। जिससे धर्म दीर्धकालीक सत्ताधारियों के राजनीतिक लाभ का हितपोषक न बना रहे। यही कारण है कि विश्वामित्र चाणक्य, महावीर, बुद्ध, जगतगुरू शंकरचार्य, गुरूनानक देव, चैतन्य महाप्रभु, दयानंद सरस्वाती, महर्षि अरविंद, विवेकानंद और ज्योतिबा फुले जैसे राष्ट्रप्रेमी स्वप्न दृष्टाओं ने इस देश को आततायी विदेशी अतिक्रमणकारियों से लड़ने की शक्ति देने के साथ अज्ञान, भूख, अराजकता और असमान समाजिक ढ़ांचे से जूझने की भी चुनौती व प्रेरणा आम जनमानस को दी। मध्ययुग के अंधकार से भारतीय जनमानस को कबीर, तुलसी, सूर, रैदास, दादू, मलूकदास और नानक देव जैसे संत कवियों ने ही उबारकर नवयुग के निर्माण की आधारशिला रखी थी।

साधुओं को जब अनपेक्षित मान सम्मान मिलने लगता है तो बौरा जाते हैं

स्ंवतत्रता पूर्व भारत में करीब 60 लाख साधु थे लेकिन वर्तमान में इनकी संख्या बढ़कर एक करोड़ के ऊपर पहुंच गई है। हालांकि साधु समाज की इस गणना में रोगी, भिखारी, बाजीगर, सपेरे, नट, मदारी, लावारिस और अपाहिज भी शुमार हैं। इनकी संख्या 80 प्रतिशत है। पहुंचा हुआ साधु इन्हें साधु नहीं मानता। ऐसे ही साधुओं की बदौलत घर्म और नैतिकता का मूलमंत्र खंडित हो रहा है। ये साधु ग्रामीण क्षेत्रों में आसानी से पैठ बनाकर ग्रामीणों को गांजा, भांग, बीड़ी, सिगरेट जैसे व्यसनों का आदि बना लेते हैं। यही साधु वेषधारी हत्या, बलात्कार, ठगी और अपहरण जैसे गंभीर मामलों के आरोपी निकालते हैं। दरअसल इन साधुओं को जब अनपेक्षित मान सम्मान मिलने लगता है तो यह बौरा जाते हैं। नतीजतन ज्यादा से ज्यादा धन बटोरने और भौतिक सुविधाएं जुटाने में लग जाते हंै। ऐसे साधुओं की जहां जनता द्वारा उपेक्षा की जाने की जरूरत है, वहीं साधु समाज इन्हें शिक्षित कर समाज के लिए हितकारी साधु भी बना सकता है। जिससे ये साधु समाज को मद्य निषेध एवं सदाचारी के संस्कार तो दे हीं अन्ना हजारे के रालेगांव की तर्ज पर ग्रामीण स्तर पर साक्षरता, पर्यावरण संरक्षण, जल संग्रह, मवेशी पालन व गोबर गैस संयंत्र से बिजली उत्पादन के कार्यों की समृद्धि के लिए सहकार की सामुदायिक भावना भी पैदा करें। यदि ऐसा होता है तो ग्रामों में जातीय विद्वेष कम होगा और स्थानीय स्तर पर रोजगार की उपलब्धता के चलते शहरों की और युवा वर्ग का पलायन भी बाधित होगा। मुंगेर में संत-समाज द्वारा देश का पहला योग विश्वविद्यालय चलाया जा रहा है। यहां के संत निरंजनानंद सरस्वती के योग व विज्ञान-संबंधी कार्यों को रेखांकित करते हुए भारत सरकार ने 2017 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया है।

साधु जीवन पर अब रमता जोगी, बहता पानी की कहावत, पूरी चरितार्थ नहीं हो रही

हालांकि साधु जीवन पर अब रमता जोगी, बहता पानी की कहावत, पूरी चरितार्थ नहीं हो रही है। मोक्ष के प्रचारक ये साधु भौतिकवाद के शिकार होकर वैभव व प्रदर्शन की प्रवृत्तियों के आदि भी हो रहे है। मोह माया भौतिक सुखों और कारों का काफिला इनके ईद गिर्द मंडरा रहा है। सूचना तकनीक के चलते तमाम साधुओं का भू-मण्डलीयकरण तो हुआ ही, बाजारवाद की गिरफ्त में भी ये आ गए। लिहाजा धर्म अरबों-खरबों के उद्योग में परिवार्तित हो गया। देखते-देखते साधु संतो की धास-फूस की झोपड़ियां आलाशीन अट्ट्रालिकाओं में बदल गई। इसी कारण साधु समाज पर सवाल उठाये जाने लगे कि मोह माया और भौतिक सुखों से ऊपर उठने का उपदेश देने वाले जो सिद्ध पुरुष स्वयं भोग विलास में संलग्न हो गए हैं, वे अध्यात्म का उपदेश देकर क्या समाज को भौतिकवादी बुराइयों से उबार पाएंगे ?

साधु के सदाचरण, संयमी, अंसचयी और सात्विक होने का प्रभाव जितना समाज पर पड़ता है, उतना जनबल तथा धनबल का नहीं पड़ता

साधु का प्रमुख गुण समष्टिगत होता हैं। इसलिए वह धर्म का प्रतिनिधि है। साधु के सदाचरण, संयमी, अंसचयी और सात्विक होने का प्रभाव जितना समाज पर पड़ता है, उतना जनबल तथा धनबल का नहीं पड़ता। इसलिए इन दिव्य पुरूषों के एक इशारे पर लोग करोड़ांे लुटा देते हैं। यही कारण है कि अपेक्षाकृत कम प्रसिद्धि पाए साधु अथवा मठ मंदिर के पास भी करोड़ों-अरबों की नकद और अचल परिसंपत्तियां हैं। जिन साधुओं का कोई उत्तराधिकारी नहीं है, उनका डाकघरों व बैंकों में लाखों - करोड़ों जमा हैं। ऐसे में इन साधुओं के आत्मलीन होने के बाद यह धन लावारिस घोषित कर दिया जाता है। आखिर इस धन को साधु समाज के सुपुर्द कर स्थानीय विकास कार्यों में क्यों नहीं लगाया जा रहा है ? अकेले अयोध्या के बैंक और डाकघरों में साधुओं का बड़ी मात्रा में लावारिस धन जमा है।

अंधविश्वास का प्रचारक मानकर खिल्ली उड़ाई जा रही

साधु समाज भारतीय प्राचीन साहित्य के नए भाश्य का लेखन भी कर सकता है। इतिहास के जिस लेखन पर वामपंथी छाया मंडरा रही है, उस इतिहास के पुनर्लेखन का प्रबंध भी कर सकता है। क्योंकि हमारे प्राचीन साहित्य की पाखंड, कर्मकाण्ड और अंधविश्वास का प्रचारक मानकर खिल्ली उड़ाई जा रही है। यहां तक कि राम और कृष्ण जैसे विराट व्यक्तित्व वाले राष्ट्र नायकों तक को पुरातत्व जैसा जिम्मेदार विभाग मिथक कहकर विवाद का विषय बना देता है। बाहरी लोगों द्वारा हमारी संस्कृित को आध्यात्मिक और प्राचीन संस्कृत साहित्य को कपोल-कल्पित करार देकर हमारे प्रगतिशील बुद्धिजीवी इतिहासकारों ने कृतज्ञ भाव से स्वीकार लिया और हम इसी परंपरा के वाहक अब तक बने हुए हैं। जबकि वास्तविकता है कि हमारे पौराणिक आख्यानों में प्रणय-प्रसंगों की भरमार है। राजनीति, दण्डनीति, अर्थनीति जल और शिक्षा प्रबंधन की संरचना के सूत्र व सिद्धांत उनमें हैं। युद्धशास्त्र, विमान शास्त्र, वास्तु शास्त्र, आयुर्वेद और कामशास्त्र विषयक हमारी प्राचीन उपलब्धियां चमकृत करने वाली हैं। भाषा व्याकरण और योग के क्षेत्र में हम अनुपम हैं। जरूरत है, इनके गूढ़ सूत्रो के रहस्य को खोलकर वैज्ञानिक ढंग से मानव उपयोगी बनाना ? इस संदर्भ में हम बाबा रामदेव से प्रेरित हो सकते हैं। जिन्होंने पतंजलि योग सूत्र के रहस्यों को लाइलाज बीमारियों से मुक्ति का साध्य बनाकर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को ही चुनौती दे डाली। दरअसल हमें अपने सांस्कृतिक मूल्यों के यथार्थ को ठीक से समझने की आवश्यकता है। लेकिन इस संदर्भ में पूर्वग्रह व दुराग्रह सांस्कृतिक अराजकता पैदा करने के कारण बन रहे हैं।

साधु-समाज को चाहिए कि वह सरकार की ओर मुँह ताकने की बजाए खुद राष्ट्र निर्माण करें

बहरहाल साधु समाज अपने जनबल और अर्थ बल से बुनियादी समस्याओं के निदान में शिरडी के सांई बाबा न्यास की तरह जुट जाए तो उसका समाज के लिए रचनात्मक क्रियान्वयन से जो वातावरण निर्माण होगा तो जो युवा-शक्ति ईमानदारी से काम करने की इच्छा रखती है, उसका राष्ट्र कोे अद्वितीय व अपेक्षित योगदान मिलने लग जाएगा ? लाल फीताशही के चलते जो प्रतिभाएं तालमेल न बिठा पाने के कारण पलायन कर विदेष में अपनी मेधा का परचम फहरा रही हैं, उनकी पलायनवादी प्रवृत्ती पर भी अंकुश लगेगा। युवा और साधु समाज की संयुक्त ताकत पानी, विद्युत, शिक्षा, स्वास्थ, सड़क निर्माण जैसे क्षेत्रों की दशा और दिशा बदल सकती है। वहीं साधुओं की विशाल संख्या के रूप में इस समाज के पास जो मनुज शक्ति है, वह जहां भी है, वहीं रहकर नदी और तालाबों का कायाकल्प कर जल के अक्षय भण्डारों कई पुनरुद्धार कर सकती है। यदि यह शक्ति राष्ट्र निर्माण में जुट जाती है तो इनसे प्रभावित आम जनमानस भी स्वप्रेरणा से इनका अनुयायी हो जाऐगा। क्योंकि साधु समाज से कल्पना की जा सकती है कि वह भ्रष्टाचार और पक्षपात की दुर्भावना से मुक्त रहेगा। अतएव देश के साधु-समाज को चाहिए कि वह सरकार की ओर मुँह ताकने की बजाए खुद राष्ट्र निर्माण और उसे संस्कारित करने में जुट जाए।

Updated : 16 April 2024 1:59 PM GMT
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