क्या राजा की भट्टी में तप गए केपी सिंह 'कक्काजू' !
पिछोर विधानसभा में 1993 से अपराजेय बने रहे केपी सिंह 2023 में शिवपुरी विधानसभा से क्यों लड़े, यह सवाल आज भी अनुत्तरित इसलिए है क्योंकि प्रमाणिक जबाब न कमलनाथ-दिग्विजय ने दिया न स्वयं केपी सिंह ने।
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मप्र में कांग्रेस के कद्दावर विधायक रहे केपी सिंह कक्काजू की चमकदार राजनीतिक पारी का इस तरह भी अंत होगा, इसकी कल्पना भी किसी को नहीं थी। लेकिन सच्चाई यही है कि 6 बार के विधायक केपी सिंह इस बार शिवपुरी से चुनाव हार चुके हैं। उनकी हार से यह चर्चा आम है कि दिग्विजय सिंह ने उन्हें एक सुनियोजित रणनीति के तहत ठिकाने लगाने का काम किया। पहले सिंधिया के सामने लड़ाने की शिगूफा फिर टिकट को लेकर वीरेंद्र रघुवशी के नाम पर छीछालेदर। कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि दिग्विजय सिंह ने कोई राजनीतिक अदावत केपी सिंह से भांजी है। 18 महीने की सरकार में केपी सिंह मंत्री नहीं थे, इसके लिए भी राजा ने ही पटकथा लिखी थी। केपी सिंह ने अपनी पुरानी ओर आउट डेटेड हो चुकी कार्यप्रणाली से करारी शिकस्त में बदलने का ही काम किया।
पिछोर विधानसभा में 1993 से अपराजेय बने रहे केपी सिंह 2023 में सीट बदलकर शिवपुरी विधानसभा से क्यों लड़े, यह सवाल आज भी अनुत्तरित इसलिए है क्योंकि प्रमाणिक जबाब न कमलनाथ-दिग्विजय ने दिया न स्वयं केपी सिंह ने खुद। 43 हजार वोट की बड़ी हार के बाद भी केपी सिंह न अवसाद में हैं, न दुखी हैं। वे कह रहे हैं लोकतंत्र में जनता की मर्जी चलती है। वस्तुत: केपी सिंह ने जिस अंदाज में सीट बदलकर शिवपुरी से चुनाव लड़ा उसे देखकर आरम्भ से अंत तक लोग यही कहते सुने गए कि केपी सिंह ढंग से चुनाव लड़ क्यों नही रहे? वे एक ऐसी मानसिकता से लड़ते नजर आए जो परंपरागत रूप से 90 के दशक में कारगर तो थी लेकिन आज के संदर्भ में तो बिल्कुल भी नहीं। शिवपुरी को पिछोर मानकर भी केपी सिंह ने अपनी पराजय की पटकथा खुद लिखी। वह यह भूल गए कि पिछोर में एक जातिगत विभाजन उनकी जीत का अहम समीकरण बनाता रहा है लेकिन शिवपुरी मप्र की ऐसी चुनिंदा सीट है जो भाजपा की कैडर सीट में कन्वर्ट हो चुकी है। यहां के मतदाताओं में 70 साल से जनसंघ, हिन्दू महासभा ओर भाजपा को अपनी प्राथमिकता पर रखा है।
केपी सिंह आरम्भ से अंत तक चुनावी तौर तरीकों को लेकर चर्चा के केंद्र में रहे। उन्होंने न भाजपा उम्मीदवार को निशाने पर लिया, न भाजपा की पूर्व विधायक को, वे नेताओं का नाम लेने से अंत तक परहेज करते रहे। कमलनाथ के बाद आर्थिक रूप से सर्वाधिक संपन्न उम्मीदवार होने के बाबजूद उनके कार्यकर्ता भोजन, पानी, चाय, नाश्ता से लेकर दूसरे संसाधनों के लिए तरसते रहे। किसी बड़े नेता की सभा यहां नहीं हुई। सवाल यह कि केपी सिंह का पिछोर छोड़कर शिवपुरी से लड़ना बुनियादी रूप से निर्णय किसका था? इस निर्णय से कांग्रेस की दोनों सीटें चली गइंर्। इस सवाल का जबाब लोग अपने स्तर से कुछ भी लगाते रहे हैं। कभी कमलनाथ दिग्विजय की आपसी रस्साकशी से इसे जोड़कर देखा जाता है। कुछ लोग राजा दिग्विजय सिंह की सोची समझी रणनीति जिसमें वह कमलनाथ को आइना दिखाने में सफल रहे जो इस सीट से बीरेंद्र रघुवंसी को टिकट दे रहे थे।
केपी सिंह को लेकर एक बात ओर कही जाती रही कि वे स्वयं के आंकलन में पिछोर में इस बार खुद को सुरक्षित महसूस नही कर रहे थे इसलिए शिवपुरी में केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया की सँभावित उम्मीदवारी को लेकर शिवपुरी से लड़ने आ गए ताकि हार जीत का विश्लेषण करते समय सिंधिया और सीट बदलने के फैक्टर भी आगे रखे जाएं। सूत्र बताते है कि भँवर जितेंद्र सिंह ने केपी सिंह की इस निर्णय में सहायता की। केपी सिंह के सामने भाजपा ने देवेंद्र जैन को उतारा जो सात दिन पहले कोलारस से टिकट मांग रहे थे। केपी सिंह की पराजय के कुछ कारक उनकी आरम्भ में बनी दबंग छवि भी एक रही। शिवपुरी में दबंग बनाम विनम्र का नैरेटिव चल निकला क्योंकि केपी सिंह के साथ कुछ ऐसे चेहरे ग्रामीण व शहरी क्षेत्र में सक्रिय दिखे जिन्हें जनता अपने लिए ठीक नहीं मानती थी। दूसरा कारक लोध मतदाताओं का था जो केपी सिंह के परंपरागत दुश्मन है। नतीजतन केपी सिंह पराजित मानसिकता ओर चुनाव खर्ची में जबरदस्त कंजूसी के चलते बड़े अंतर से हार गए। लोगों का कहना है कि केपी सिंह ने मानो जीतने के लिए चुनाव लड़ा ही नही
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