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वर्माजी की मौत पर आत्मालाप

वज्रपात- 9-डॉ. आनन्द पाटील

वर्माजी की मौत पर आत्मालाप
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प्राय: विद्यार्जित जगत् में लोग 'बड़ेÓ(?) लोगों के जन्म-जरा-मरण पर बहुत-कुछ लिखते हैं। लघुमानव (?) अनाम ही मर जाता है, ठीक वैसे ही, जैसे - घर के भीतर खटर-पटर करती माएँ मर जाती हैं, चुपचाप-गुमनाम। बाहर बैठक वा बरामदे में, उनकी उफ्फऽऽऽ भी सुनायी नहीं पड़ती। उनके शवों पर रोने को होती हैं जुमला-जुमला चार आँखें। शेष, इक_ा आँखों में दिल का पत्थर दीख जाता है। 'लघुमानवÓ विजयदेव नारायण साही की अभिव्यक्ति है। परसों वर्माजी दिवंगत हुए, तो अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति के लिए साही प्रासंगिक लगे। वर्माजी की मृत्यु का समाचार आया, तो अन्तोन चेखव की कहानी 'क्लर्क की मौतÓ का इवान द्मीत्रिच चेरव्यकोव अनायास स्मरण हो आया। चेरव्यकोव नव-आधुनिक लघुमानव का प्रतीक है। वर्माजी को चेरव्यकोव का ही विस्तारित प्रतीक कहा जाये, तो अर्थबोध के लिए दोनों के साधर्म्य पर ही दृष्टि टिकाये रहना चाहिये।

लघुमानव का जीवन वा मौत, व्यर्थता को प्रकाशित करते हैं। जबकि बड़े लोगों (?) की मृत्यु पर लोग कहते हैं, 'काश! न मरते, तो न जाने कितनों का उद्धार होता।Ó यह, मौत और मृत्यु में भेद है। मानवीय उत्थान-पतन का इतिहास खोजिये, तो इस सत्य का साक्षात्कार होगा। वर्माजी गये, तो साही की कविता 'प्रार्थना : गुरु कबीरदास के लिएÓ स्मरण हो आयी - 'दो तो ऐसी निरीहता दो/ कि इस दहाड़ते आतंक के बीच/ फटकार कर सच बोल सकूँ/ और इसकी चिन्ता न हो/ कि इस बहुमुखी युद्ध में/ मेरे सच का इस्तेमाल/ कौन अपने पक्ष में करेगा।Ó वर्माजी अत्यन्त महीन कटाक्ष करने वाले व्यक्ति थे, किन्तु मुझसे बोले कि 'प्रसंगवश बोलना भी, अपने लिए रार मोल लेना है।Ó और, मैं वज्रपात करते-करते कितना-कुछ बोल जाता हूँ। न जाने 'मेरे सच का इस्तेमालÓ कौन (कौन), कैसे और किसके पक्ष में करता होगा? देखता हूँ, लोग अकारण ही युद्धरत दिखायी देते हैं।

विश्वविद्यालय में पहुँच कर अभी एक-दो माह ही बीते होंगे। अभी किसी से विशेष परिचय नहीं हुआ था। बहुतांश तो बात न करने के भाव से ही, देख कर, अनदेखा किये आगे बढ़ जाते थे, किन्तु एक शाम जब मैं घर लौटने के लिए विभाग से बाहर निकल पड़ा, तो एक व्यक्ति धीरे-धीरे मेरी ओर यह बोलता हुआ बढ़ा चला आया कि 'आप आनन्द पाटील हैं न? आपके बारे में जैसा सुना था, वैसा ही देख रहा हूँ। आपके लेखन के बारे में बहुत सुनने को मिला है, लेकिन कुछ पढ़ने का मौक़ा नहीं मिला। कुछ दीजिये, तो पढ़ें। लेकिन दीजिये, तो प्रिण्ट में ही दीजियेगा। मोबाइल पर पढ़ना मुश्किल होता है।Ó - कद-काठी से थोड़े-से छोटे, आँखों पर कुछ-कुछ मोटे फ्रेम वाला चश्मा लगाये, धीरे-धीरे, माने- सम्भल-सम्भल कर चल रहे एक प्रौढ़ व्यक्ति ने संवाद की पहल करते हुए कहा। संवाद की पहल करने से लेकर ओझल होने तक, वे अत्यन्त प्रसन्न थे। प्रसन्न लोगों को देख कर अनायास मन प्रफुल्लित हो उठता है। मेरे लिए आश्चर्यजनक प्रसंग था कि कोई संवाद की पहल कर रहा है और प्रसन्न भी है। अन्यथा लोगों की भाव-भंगिमा देख कर लगता था, मानो आनन्द को देख कर उनमें दु:ख का संचार हो गया है। इधर, लोग प्रसन्नता, आनन्द, हर्ष, विनोद आदि सुखदायी क्षण भूलते जा रहे हैं और अकारण शत्रु भाव से स्वयं को भारी-भरकम बनाये जा रहे हैं। कभी लगता है कि अत्यन्त सपाट, भावरहित चेहरा धारण कर लोग कैसे जीते होंगे? उस दृष्टि से वर्माजी अत्यन्त प्रसन्न व्यक्ति प्रतीत हुए।

परिचय आगे बढ़ा, तो उन्होंने अपना नाम नटराज वर्मा और कार्यरत विभाग का नाम बताया। मैंने पूछा - 'आपको कहीं छोड़ दूँ?' तो, बोले, 'अरे! आप बड़े हैं, हमें क्यों छोड़ने चलंगेे?Ó मैं अवाक् रह गया। मेरी समझ में न आया कि वय में मुझसे बड़ा, प्रसन्न एवं पढ़ने का आग्रही व्यक्ति, मुझे बड़ा बता रहा है, माने - मुझसे निश्चय ही कोई चूक हुई है। मैं प्रश्नांकित नेत्रों से उनकी ओर देखता रह गया। फिर, एक गाड़ी आयी और वर्माजी को लेकर चली गयी। उस दिन वर्माजी से संक्षिप्त भेंट, किन्तु हार्दिक वार्ता रही। परसों वर्माजी पंचतत्व में समा गये। और, मैं अभी भी समझने का प्रयास कर रहा हूँ कि 'बड़ा होनेÓ का वास्तविक अर्थ क्या है? हम लोग कार्यालयीन पदाधिपत्य (?) को कितना लादे रहते हैं कि सहज जीवन को अत्यन्त बोझिल वा भारी-भरकम बना देते हैं।

मैं अपने लेखन को लेकर कभी भी बहुत आश्वस्त नहीं रहा। जो देखता-सोचता हूँ, लिख देता हूँ। लिखते समय पता नहीं कौन-सी शक्ति काम कर रही होती है। बहुतांश मित्रों ने मेरे लेख पढ़ कर प्राय: अत्यन्त गम्भीर प्रतिक्रियाएँ दीं कि 'भाषा बहुत क्लिष्ट है, पढ़ने-समझने में बहुत ऊर्जा खप जाती है, इत्यादि।Ó मुझे प्राय: लगता है कि मैं लोगों की रुचि के अनुरूप नहीं लिख पाता। जानता हूँ कि धारा के विपरीत लिख रहा हूँ, किसी को भला क्या अच्छा लगेगा? जिनको अच्छा लगता है, उनकी संख्या अत्यल्प है। सम्भवत: उन्हें अच्छा इसलिए लगता है, क्योंकि वे मुझसे स्नेह व प्रेम करते हैं। इसलिए कुछ-कुछ अच्छा प्रशंसात्मक कहते-लिखते हैं। मुझे पूरा ध्यान है कि मैं अत्यन्त रूखा-सूखा लिखता हूँ, किन्तु कुछ कर नहीं सकता।

(जारी...)

(लेखक साहित्यालोचक एवं स्तम्भकार हैं)

Updated : 9 March 2024 8:27 PM GMT
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City Desk

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