कांग्रेस के सियासी नहले पर फड़नवीस का दहला
Swadesh Digital | 15 Jun 2018 7:57 AM GMT
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- सियाराम पांडेय 'शांत'
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस और उसके मुखिया निरंतर लोकतंत्र पर खतरे की बात कर रहे हैं। लेकिन वे अपनी ही पार्टी की करतूतों को भूल गये हैं। इसीलिए महाराष्ट्र की देवेंद्र फड़नवीस सरकार के हालिया फैसले के जरिए कांग्रेस को आईना दिखाने की कोशिश की जा रही है। देवेंद्र फड़नवीस सरकार ने आपातकाल में एक माह से अधिक समय तक जेल में रहने वालों को दस हजार रुपये की मासिक पेंशन और सालाना 10 हजार रुपये तक की मेडिकल सुविधा देने का निर्णय लेकर कांग्रेस को यह बताने की कोशिश की है कि उसके दौर में ही आपातकाल लगा था और लोगों के बोलने तक की आजादी पर पाबंदी लगा दी गई थी। भारत के लिए वह दौर अंग्रेजों की गुलामी से भी बदतर था।
यह और बात है कि कांग्रेस ने आपातकाल में सताए गए लोगों के घाव सहलाने की कभी कोशिश नहीं की। इस लिहाज से देखा जाए तो यह पेंशन योजना बीजेपी की प्रमुख योजनाओं में से एक है। उसके सियासी नहले पर जन सहानुभूति का दहला है। महाराष्ट्र मंत्रिमंडल ने आपातकाल के दौरान एक माह से कम अवधि तक जेल में रहने वालों को भी पांच हजार रुपये की मासिक पेंशन देने का फैसला किया है। आपातकाल 1975 से 1977 के बीच 21 माह तक चला था। इसमें इंदिरा गांधी की मुखालफत करने वालों को हद दर्जें की शारीरिक और मानसिक यातनाएं दी गई थीं। 1971 में पाकिस्तान की पराजय के बाद इंदिरा गांधी की लोकप्रियता शिखर पर पहुंच गई थी। 1974 में भारत में पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद तो एक नारा ही आम हो गया कि इंदिरा इज इंडिया ऐंड इंडिया इज इंदिरा। इंदिरा गांधी वैश्विक स्तर पर तो यह संदेश देने में कामयाब रहीं कि भारत महज कृषि प्रधान देश नहीं है, बल्कि वह अपने दम पर विकसित देशों का मुकाबला कर सकता है। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इंदिरा गांधी की लोकप्रियता में कमी भी आ रही थी। 1974 के बाद उनकी तानाशाही के खिलाफ आवाज बुलंद होने लगी। विरोधी दल के नेता उन पर जबरदस्त हमला कर रहे थे। इंदिरा गांधी को लगने लगा था कि उनके खिलाफ साजिश रची जा रही है। यह और बात है कि उनके सलाहकारों ने भी आग में घी डालने का काम किया। सलाहकारों पर विश्वास कर उन्होंने 1975 में देश में आपातकाल की घोषणा तो कर दी लेकिन राजनीतिक दृष्टि से उन्हें इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा। इस दौरान जिस किसी ने भी इंदिरा गांधी के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की, उसे जेल में बंद कर दिया गया।
जनता पार्टी की सरकार ने आपातकाल में इंदिरा गांधी की भूमिका की जांच करने के लिए शाह आयोग का गठन किया था। शाह आयोग ने अपनी जो रिपोर्ट दी, उसके मुताबिक आपातकाल इंदिरा गांधी का एक सनक भरा फैसला था। 1978 में थेम्स टीवी को दिए साक्षात्कार में इंदिरा गांधी ने भी स्वीकार किया था कि उन्होंने जो भी फैसले लिए वे राजनीति से प्रेरित नहीं थे, बल्कि हालात ही ऐसे बन गए थे कि अप्रिय और कठोर निर्णय लेने पड़े। देर से ही सही, उन्हें अपने किए पर पश्चाताप तो हुआ लेकिन आज की कांग्रेस अतीत से सबक लेने को तैयार नहीं, मौजूदा सरकार के अनाप-शनाप विरोध को ही वह अपनी उपलब्धि मानती है।
उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व बिहार में आपात काल में जेल जाने वाले को लोकतंत्र सेनानियों की सुविधा मिलती है। कई राज्यों में 9,000 से 12,000 रुपये तक की पेंशन मिलती है। जेल जाने वाले व्यक्ति की मौत के बाद पेंशन की रकम उसकी पत्नी को मिलती है। इसके अलावा वे राज्य और क्या व किस तरह की सुविधा देते हैं, उस पर विस्तार से अध्ययन के लिए एक उपसमिति के गठन की मंजूरी देवेंद्र फड़नवीस मंत्रिमंडल ने दी है। समिति में संसदीय कार्य मंत्री बापट और कृषि मंत्री पांडुरंग फुंडकर के अलावा जिलाधिकारी, उपजिलाधिकारी, जेलर आदि को शामिल किया गया है। बापट और फुंडकर उन लोगों में शामिल हैं जो आपातकाल के दौरान जेल गए थे।
महाराष्ट्र सरकार का मानना है कि आपातकाल के दौरान जेल जाने वालों ने लोकतंत्र को बचाने में अहम भूमिका निभाई। उनकी बदौलत ही आज देश में लोकतंत्र कायम है। उनका सम्मान तो होना ही चाहिए। वैसे आपातकाल के समय जेल जाने वालों को पेंशन देने का प्रस्ताव कई महीने पहले बीजेपी नेता एकनाथ खडसे ने रखा था। आपातकाल का विरोध करने में आरएसएस के स्वयंसेवक, समाजवादी, वाम पा अलग-अलग मजदूर संगठनों के नेता, पदाधिकारी और कार्यकर्ता शामिल थे। इस लिहाज से अगर देखा जाए तो फड़नवीस सरकार के मौजूदा निर्णय से संघ के लोग भी लाभान्वित होंगे और वाम दल भी। समाजवादी भी लाभ पाएंगे और मजदूर संगठन भी। देखा जाए तो सरकार ने इस बहाने बहुत दूर की कौड़ी फेंकी है। इससे सरकार की अपनी विचारधारा से जुड़े लोगों का तो लाभ होगा ही, इसी बहाने महाराष्ट्र में महागठबंधन की जमीन तलाश रहे राहुल गांधी की मुहिम को भी झटका लगेगा। लोकतंत्र की दुहाई दे रही कांग्रेस का चेहरा बेनकाब होगा और महागठबंधन की संभावनाओं की दीवारें दरकेंगी। उत्तर प्रदेश में अखिलेश, मायावती और अजित सिंह वैसे भी राहुल गांधी की पार्टी को अपने गठबंधन का हिस्सा नहीं बनाना चाहते। सीताराम येचुरी ने भी कह दिया है कि महागठबंधन तो चुनाव बाद ही होना चाहिए। जो दल बड़ा होगा, उसका प्रधानमंत्री चुना जाएगा। राहुल गांधी का यह विश्वास भी टूटेगा कि बीजेपी के खिलाफ विपक्षी राजनीतिक दलों के महागठबंधन को जनता भी चाहती है। अपनी सुविधा का राजनीतिक संतुलन का सिद्धांत तो ध्वस्त होना ही चाहिए। बीजेपी ने एक तीर से कई निशाने लगाए हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है।
सरकार को यह भी ध्यान रखना होगा कि गलत मामलों में जेल में जाने वाले लोग इस योजना का लाभ न पा जाएं, जैसा कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की पेंशन मामले में हुआ था। लोकतंत्र सेनानियों की पेंशन पर खर्च की जाने वाली राशि जनता की है, इसके इस्तेमाल में पारदर्शिता और ईमानदारी तो बरती ही जानी चाहिए। कांग्रेस को आईना दिखाना तो ठीक है लेकिन पेंशन के इस तरह के नए मोर्चे खोलने के कुछ नुकसान भी हैं, उन खतरों पर भी मंथन समय पूर्व कर लिया जाना चाहिए, यही लोकहित का तकाजा भी है।
Updated : 15 Jun 2018 1:33 PM GMT
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