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राजनीति और अपराध का गठजोड़

उमेश चतुर्वेदी

राजनीति और अपराध का गठजोड़
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पश्चिम बंगाल के संदेशखाली का आरोपी शाहजहां शेख अब गिरफ्तार हो चुका है। गिरफ्तारी के बाद इसे सिर्फ आपराधिक मामले की तरह देखे-सुने जाने की कोशिश होगी। लेकिन शाहजहां शेख का मामला सिर्फ आपराधिक नहीं है, बल्कि यह मामला राजनीति के अपराधीकरण, राजनीति में आपराधिक चरित्र के लोगों के ताकतवर हस्ती बनते जाने की समस्या की ओर भी ध्यान दिलाता है। शाहजहां शेख राजनीति के अपराधीकरण का उदाहरण है। विशेषकर छोटे दलों में किस तरह अपराधी लगातार आगे बढ़ते जाते हैं, फिर वे किस तरह राजनीति के जरिए संवैधानिक पद हासिल करके अपराधीकरण को सहज व्यवहार के रूप में स्थापित कर देते हैं, इसका भी उदाहरण है शाहजहां शेख का यह मामला।

समूचे देश के छोटे राजनीतिक दलों की ओर नजर दौड़ाइए, अपराध और राजनीति का गठजोड़ जितना वहां सहज तरीके से दिखेगा, वैसा नजारा भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े दलों में कम ही दिखता है। सवाल यह है कि छोटे दलों को आखिर अपराधियों पर इतना भरोसा क्यों होता है? छोटे दलों वाली राजनीति अपराधियों के स्थानीय रसूख के दम पर समर्थन हासिल करती है, इसी समर्थन के दम पर वह संवैधानिक ताकत हासिल करती है और फिर वह अपने क्षेत्र विशेष के रहनुमा, प्रतिनिधि और अपरिहार्य राजनीतिक ताकत के रूप में स्थापित हो जाती है। चूंकि इस पूरी प्रक्रिया में अपराधी सबसे बड़ा औजार बने राजनीतिक दल के साथ खड़ा रहता है, इसलिए वह बदले में ताकत, संवैधानिक पद आदि भी हासिल करने की कोशिश करता है। बिहार के शहाबुद्दीन रहे हों या सुनील तिवारी या उत्तर प्रदेश के मुख्तार अंसारी या फिर अतीक अहमद, उन्हें छोटे और स्थानीय राजनीतिक दल रास आते रहे। वे राजनीतिक दल को भी स्थानीय स्तर पर ही सही, जनसमर्थन देकर राजनीतिक को उपकृत करते रहे हैं।बदले में उन्हें राजनीतिक दलों और उनके अगुआ लोगों की छत्रछाया मिलती रही। राजनीतिक छतरी के कवच में उनका कारोबार फलता-फूलता रहा।

साठ-सत्तर के दशक तक अपराधी राजनीति को बूथ लूटने, वोटरों को धमकाने, उन्हें प्रकारांतर से समझाने के काम आते रहे। बदले में वे कुछ ठेके और आर्थिक फायदे ही हासिल करते रहे। बाद में जब अपराधियों को लगने लगा कि जब उनके दम पर राजनीति संवैधानिक पद हासिल कर सकती है, चुनाव जीत सकती है तो वे खुद सीधे क्यों नहीं राजनीति में आ सकते। इसके बाद बिहार में सूरजदेव सिंह, काली पांडे, सूरजभान, शहाबुद्दीन जैसे लोग उस राजनीति के चमकदार चेहरे बनकर उभरे, जिसके लिए मर्यादित और नैतिकता के दायरे में बंधे रहना पहली शर्त होती थी। इसी तरह बिहार में मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद, हरिशंकर तिवारी, वीरेंद्र प्रताप शाही, धनन्जय सिंह जैसी राजनीतिक ताकतें उभरीं। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, असम, आदि जगहों पर ऐसे अपराधियों की जैसे लंबी लिस्ट बन गई। राजनेता के तौर पर अपराधी स्थापित होते रहे।

वामपंथी दलों का दावा रहा है कि वे नैतिकता की राजनीति कुछ ज्यादा ही गहराई से करते रहे हैं। भारतीय राजनीति के लोकवृत्त यानी पब्लिक स्फीयर में जो मूल्य स्थापित हुए हैं, उनमें से ज्यादातर की सूत्रधार वामपंथी राजनीति ही रही है। लेकिन इसी राजनीति का स्याह पक्ष पश्चिम बंगाल की राजनीति भी रही है। पश्चिम बंगाल की राजनीति में एक दौर में अपराधियों का बोलबाला था। जिन्हें वाममोर्चा की राजनीतिक और सत्ता की छांव मिलती रही। बदले में वामपंथी राजनीति स्थानीय स्तर से लेकर प्रदेश स्तर पर समृद्ध और ताकतवर बनी रही। जिसने भी वामपंथी राजनीति के इस संस्थानिक भ्रष्टाचार और अपराधीकरण पर सवाल उठाने की कोशिश की, उन्हें मुंह की खानी पड़ी। उनके साथ शारीरिक जोर-जबरदस्ती भी हुई। मारपीट तो बंगाल की राजनीति का स्थायी भाव रही। लेकिन सिंगूर आंदोलन के बाद ममता बनर्जी का उभार हुआ। ममता ने वामपंथी राजनीति के आर्थिक और आपराधिक भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने का वादा अपने लोगों से जरूर किया। लेकिन जब वादे को जमीनी हकीकत बनाने का वक्त आया तो ममता भी बदलने लगी। कमोबेश उनका भी रवैया पुराने वाम मोर्चे की राजनीति जैसा ही होने लगा। वह भी अपराधी और राजनीति के गठजोड़ के जरिए जमीनी स्तर पर अपना समर्थन बनाए और बचाए रखने की कोशिश को प्रश्रय देने लगीं। यही वजह है कि वहां शाहजहां शेख जैसे नेता स्थानीय स्तर पर उभरने लगे। राजनीतिक प्रश्रय ही वजह रही कि शाहजहां शेख जैसे लोग खुलेआम प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई जैसी केंद्रीय एजेंसियों पर हमला करने लगे। फिर भी गिरफ्तारी से बचते रहे। राशन घोटाला में छापा मारने गई प्रवर्तन निदेशालय की टीम पर हमला करने के बाद शाहजहां शेख की गिरफ्तारी हुई भी तो उसकी बड़ी वजह रहा कलकत्ता हाईकोर्ट। जिसने सरकार पर दबाव बनाया। तब जाकर पचपन दिनों बाद शाहजहां शेख की गिरफ्तार हुई। उसकी गिरफ्तारी जितनी आसानी से हुई है, वही साबित करने के लिए काफी है कि पहले से ही पश्चिम बंगाल सरकार और पुलिस की निगाह उस पर थी। लेकिन वे उसे गिरफ्तार करने की बजाय बचा रहे थे। क्योंकि वह स्थानीय स्तर पर पार्टी का समर्थन जुटाने का औजार और हथियार था।

राजनीति और अपराधियों के गठजोड़ पर पहली बार 1993 में तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव एनएन वोहरा समिति ने विचार किया था। इस समिति ने पांच अक्टूबर 1993 को अपनी रिपोर्ट तत्कालीन सरकार को सौंप दी। लेकिन उस पर किसी सरकार ने कार्रवाई नहीं की। सुप्रीम कोर्ट में उस रिपोर्ट को जांच एजेंसियों को देने की मांग को लेकर साल 2000 में सर्वोच्च न्यायालय में याचिका डाली गई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट इस मांग को पूरा नहीं कर पाया। इस रिपोर्ट को अब तक सार्वजनिक तक नहीं किया गया है। वह तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का, कि उसने चुनावों में उम्मीदवारों के लिए अपनी और अपने पति या पत्नी की संपत्ति की घोषणा करना और अपने खिलाफ चल रहे मुकदमों का हलफनामा जमा करना जरूरी बना दिया। बेशक जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत किसी सांसद की सांसदी और विधायक की विधायकी तभी खत्म होती है, जब जन प्रतिनिधि को तीन या उससे ज्यादा की सजा मिलती है। इसे कानून की खामी ही कहेंगे कि अपराधी कहे जाने लोग भी चुनाव लड़ जाते हैं और कई बार उसकी राबिन हुडी छवि तो कई बार समाज के लोग सम्मान में उसे अपना समर्थन दे डालते हैं। राजनीतिक समर्थन हासिल करने के बाद वह आपराधिक व्यक्ति जैसे गंगा में नहा उठता है। संवैधानिक दायित्व हासिल करते ही जैसे उसके आपराधिक कर्म सत्कर्म में तबदील हो जाते हैं। वह समाज का माननीय हो जाता है। हमारा समाज भी ऐसा हो गया है कि अतीत में रिश्वतखोरी, महिला उत्पीड़न, ठगी आदि में जिसे सजा हो चुकी होती है, यदि वह जोड़तोड़ से कोई राजनीतिक या दूसरे तरह का पद हासिल कर लेता है, उसे दुनिया अपनी नजरों पर उठा लेती है। इसके बाद वह अपराधी, जो कभी पुलिस से डाल-डाल और पांत-पांत की तरह कूदता-भागता रहा होता है, उसकी कदर समाज की नजरों में बढ़ जाती है। राजनीति चूंकि समर्थन का खेल है, राजनीति तो हमेशा समर्थन के लिए लालायित रहती है। इसीलिए वह अपराधियों को खुद से दूर नहीं करना चाहती। फिर वही अपराधी जब दुनिया की नजरों में अतीक अहमद बन जाता है। लेकिन जब उस आपराधिक व्यक्तित्व के चलते राजनीति की अपनी दुनिया प्रभावित होने लगती है, तो उससे पीछा छुड़ाने और उससे अपना रिश्ता तक दिखाने से राजनीति भाग खड़ी होती है। यह सब वह गंगा स्नान की तरह पापमुक्त होने के लिए करती है। शाहजहां शेख को तृणमूल कांग्रेस की सदस्यता से बर्खास्त किया जाना राजनीति की उसी रवायत का उदाहरण है। शाहजहां शेख के मामले ने राजनीतिक दलों के सामने एक चुनौती छोड़ी है कि क्या कोई राजनीतिक दल ऐसा नहीं हो सकता, जो 22 कैरट टंच नैतिकता की राजनीति करे, अपराधियों को किसी भी कीमत पर खुद से दूर रख सके और राजनीति को साफ-सुथरा रखने के लिए खुद और अपने कार्यकर्ताओं पर ज्यादा भरोसा रखे। फिलहाल तो ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है।

(लेखक प्रसार भारती के सलाहकार हैं)

Updated : 5 March 2024 8:36 PM GMT
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