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सांसारिक उन्‍नति के बिना धर्म अधूरा है

सांसारिक उन्‍नति के बिना धर्म अधूरा है
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'धर्म' है क्‍या? यह हमेशा से विवाद का विषय रहा है। धर्म, संसार को समृद्धिशाली, नैतिक और सुखी बनाने के लिए था परंतु विडम्‍बना है कि उसका इस्‍तेमाल सदैव से चालाक लोगों के द्वारा अपने स्‍वार्थों की पूर्ति के लिए किया जाता रहा है। धर्म की मनमानी व्‍याख्‍याओं का परिणाम है कि इतिहास के अधिकतर झगड़े और युद्ध धर्म के कारण हुए हैं। धर्म शब्‍द कहते ही आम लोगों के जेहन में जो दृश्‍य पैदा होता है वह है यज्ञ, पूजा, नमाज, प्रार्थना या किसी धार्मिक ग्रंथ का पठन-पाठन। ऐसा लगता है कि धार्मिक क्रियाऍं भविष्‍य के किसी अज्ञात लाभ के लिए हैं। धर्म को यहीं तक सीमित करके जहॉं एक ओर धार्मिक झगड़ों की नींव डाल दी वहीं दूसरी ओर समाज को वैज्ञानिक सोच और सांसारिक समृद्धि से वंचित कर दिया गया।

भारतीय वाङ्मय में धर्म शब्द अत्यंत व्यापक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जहॉं एक ओर आत्मिक कल्‍याण के साधनों को धर्म कहा है वहीं कर्तव्‍य और दायित्‍व के लिए भी धर्म शब्‍द का इस्‍तेमाल हुआ है जैसे कार्य के आधार पर राजधर्म, सेवकधर्म, जीवन की अवस्‍थाओं के आधार पर गृहस्‍थधर्म, संन्‍यासधर्म, वंश के आधार पर आर्यधर्म, राक्षसधर्म, रिश्‍तों के आधार पर पत्‍नीधर्म, पुत्रधर्म, परिस्थिति के आधार पर आपद्धर्म आदि। सामान्‍य नैतिक नियमों को भी धर्म कहा गया है जो सभी लोगों के लिए पालन योग्‍य हैं। श्रीमद्भागवत् (11.17.21) में अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, काम, क्रोध व लोभ से बचे रहना, सदैव ऐसा प्रयास करते रहना जिससे सभी प्रणियों का हित हो आदि ऐसे ही धर्म हैं। इसी प्रकार के नैतिक नियमों को मनु ने भी धर्म कहा है (मनुस्‍मृति 6/92)। भगवान् ने जिस वस्‍तु को जिस प्रयोजन के लिए रचा है उसकी पूर्ति करना ही उस वस्‍तु का धर्म है। जैसे अग्नि का धर्म ताप देना है, चंद्रमा का धर्म है शीतलता देना आदि। गीता में जब कृष्‍ण कहते हैं कि - स्‍वधर्मे निधनं श्रेय: -अर्थात् अपने धर्म में मृत्‍यु भी श्रेष्‍ठ है तब धर्म का अर्थ है व्‍यक्ति का स्‍वभाव जो उसे प्रकृति ने स्‍वमेव दिया है न कि हिंदू, मुस्लिम, ईसाई आदि।

धर्म की कोई सर्वमान्य परिभाषा ज्ञात करना बहुत कठिन है क्योंकि विभिन्न मतों या विचारों को माननेवाले अपने-अपने सिद्धांतों के अनुसार विभिन्न कार्यों को धर्म कहते हैं। नास्तिक दर्शन, जैसे चार्वाक-दर्शन, आत्मा-परमात्मा को नहीं मानता। उसके लिए प्रत्यक्ष दिखनेवाला संसार ही सत्य है। इसलिए जिस कर्म से संसार में उन्नति हो उनके लिए वही धर्म है। बुद्ध दर्शन के अनुसार अहिंसा और निर्वाण प्राप्ति के उपाय धर्म हैं। सांख्यदर्शन के प्रणेता कपिल ने कहा है कि जिस कर्म से अन्तःकरण में वैराग्य, शान्ति और विवेक का उदय हो वही धर्म है। योगदर्शन के प्रणेता पातञ्जलि कहते हैं कि वह कर्म जो मनुष्य की वृत्ति को समाधि के उपयुक्त बनाकर आत्मस्वरूप में स्थित कराते हैं वही धर्म हैं। पूर्व मीमांसा के प्रणेता जैमिनी ने वेदों में वर्णित यज्ञ, याज्ञ आदि को ही धर्म बताया है। वेदान्त दर्शन के प्रणेता महर्षि वेदव्यास के अनुसार ऐसे कर्म जो अन्तःकरण की शुद्धि करते हैं, धर्म हैं।

धर्म की सबसे क्रांतिकारी परिभाषा वैशेषिक दर्शन के प्रणेता महर्षि कणाद ने दी है। उन्होंने धर्म को आत्मा के साथ ही संसार से भी जोड़ दिया। उनके अनुसार 'यतोsभ्‍युदयनि:श्रेयससिद्धि: स धर्म:' अर्थात् जिस कर्म से मनुष्य का अभ्युदय अर्थात् इस जगत् में उन्नति होती है तथा अंत में निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष या मुक्ति की प्राप्ति होती है वही धर्म है। सनातन धर्म के अनुसार जीवन का परमलक्ष्य 'मोक्ष' है जिसके लिए आध्यात्मिक उन्नति आवश्‍यक है। आध्‍यात्मिक उन्‍नति के साधन जप, तप, पूजा, यज्ञ आदि तभी संभव हैं जब भोजन, वस्‍त्र, आवास उपलब्‍ध हों, शरीर स्‍वस्‍थ हो और समाज में कानून और न्‍याय का शासन हो। कहा जाता है कि 'भूखे भजन न होय गोपाला'। महाभारत में सर शैय्या पर पड़े भीष्‍म ने कहा था कि शारीरिक कष्‍ट के कारण उन्‍हें धर्मतत्‍तव का स्‍मरण नहीं हो रहा है। स्‍पष्‍ट है कि सांसारिक अनुकूलताऍं धर्म पालन में सहायक हैं।

इस प्रकार धर्म के दो भाग हैं - वाह्य जो सांसारिक प्रगति से और आंतरिक जो आत्मिक प्रगति से संबंधित है। धर्म रूपी रथ के यह दो पहिये हैं। यदि सांसारिक प्रगति और समृद्धि नहीं होगी तो रथ चल नहीं पाएगा। वैदिक भारत में धर्म का समन्वित रूप प्रचलन में था इसलिए संसार से संबंधित विज्ञान व कलाऍं जैसे गणित, आयुर्वेद, स्‍थापत्‍य, व्‍याकरण, नाट्य, खगोलविज्ञान, अस्‍त्र-शस्‍त्र, युद्धकला आदि का विकास हुआ। बाद में भारत में केवल आत्‍मतत्‍त्‍व पर जोर देने और जगत को मिथ्‍या मान लेने से हजारों वर्षों से सांसारिक समृद्धि व वैज्ञानिक प्रगति में देश पिछड़ता गया । जिसका परिणाम देश में बड़े स्‍तर पर दरिद्रता, अशिक्षा, भेदभाव और नैराश्‍य के रूप में सामने आया। इस बीमारी को स्‍वामी विवेकानन्‍द ने ठीक से पहचाना और कहा कि युवाओं को जरूरी है कि वे गीता पढ़ने से पहले फुटबाल खेलना सीखें। उन्‍होंने ही कहा था कि आज देश को केवल कर्मयोग, कर्मयोग और तीव्रतम कर्मयोग की आवश्‍यकता है।

सनातन धर्म में जीवन पाप का परिणाम नहीं है न ही निंदनीय है। वेद तो संसार के समस्‍त मानवों को अमृत के पुत्र कहते हैं – श्र्णवन्‍तु विश्‍वे अमृतस्‍य पुत्रा:। जीवन तो परमचेतना का साक्षात्‍कार करने के लिए है परंतु इस प्रक्रिया में संसार के सुख त्‍याज्‍य नहीं हैं। जीवन के चार पुरुषार्थ बताते हैं कि हमें धर्म से यात्रा प्रारंभ करके अर्थ और काम से होते हुए मोक्ष तक ले जाना है। सांसारिक सुखों का उपयोग धर्म की मर्यादाओं के बीच करना है। गीता में कृष्‍ण ने धर्म की मर्यादा के भीतर काम को भी अपना रूप कहा है – धर्माविरुद्धो कामेषु भूतेषु भरतर्षभ। रामचरित मानस में मनु शतरूपा को वरदान देते हुए कहा है कि संसार में ऐसे सुख भोगो जो देवताओं को भी दुर्लभ हैं और अंत में ईश्‍वर के धाम में जाओ – सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं। अंतकाल रघुबरपुर जाहीं। वेदों में निरंतर स्‍वस्‍थ, समृद्धिशाली, ऐश्‍वर्ययुक्‍त जीवन की कामना की गई है। भगवान् का तो अर्थ ही है जो ऐश्‍वर्य से युक्‍त हो।

कहा जाता है कि आज की पीढ़ी भौतिकवादी है। इसे एक बुराई के रूप में लिया जाता है परंतु जरा सोचें भौतिकता के अभाव में सैकड़ों वर्षों से दरिद्रता, भेदभाव, अशिक्षा और अंधविश्‍वास में जी रही पीढि़यॉं कौन सी आध्‍यात्मिक हो गई थीं? भौतिकवादी होना कोई बुराई नहीं है जब तक कि भौतिकवाद, धर्म (नैतिक सीमाओं) के भीतर है। वैज्ञानिक प्रगति, भौतिक विकास, समृद्धि भी धर्म का बाह्य भाग है जिसके अभाव में आंतरिक धर्म फलीभूत नहीं होता। धर्म को केवल आंतरिक जगत का हिस्‍सा मान लेना और बाहरी जगत से विमुख हो जाना हमारे पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण है। सड़कों पर अर्धशिक्षित, धार्मिक नारे लगाते, यात्राऍं निकालते, अर्धशिक्षित, बेरोजगार, धर्मांध युवक कहीं भी दिख सकते हैं। इन्‍हें समझाया जा रहा है कि यही धर्म है। धर्म की यह व्‍याख्‍या आज का सबसे बड़ा संकट है। इससे कुछ लोगों के लिए सत्‍ता का पथ भले ही प्रशस्‍त हो जाए परंतु यह युवा धर्म से उतनी ही दूर होते जा रहे हैं।

युवाओं को अच्‍छी शिक्षा देना, कौशल प्रदान करना, उन्‍हें उत्‍साही और कर्मयोगी बनाना, उनमें वैज्ञानिक सोच का विकास करना ताकि वे ऐश्‍वर्यपूर्ण और समृद्धिशाली जीवन जी सकें, भी धर्म का ही भाग है। जब ज्ञान होगा तभी विद्यादान कर पाऍंगे, जब धन कमाऍंगे तभी जरूरतमंदों को मदद कर पाऍंगे, जब शरीर स्‍वस्‍थ होगा तभी तप कर पाऍंगे। अर्धशिक्षित, संकीर्ण सोचवाले, कौशलविहीन, अंधविश्‍वास में डूबे लोगों के धर्मरथ का अभ्‍युदय (सांसारिक समृद्धि) रूपी पहिया तो टूटा ही है, तब रथ चलेगा कैसे ? धर्म की सही व्‍याख्‍या ही देश का भविष्‍य उज्‍जवल कर सकती है। देश के विचारकों, धर्माचार्यों, साधु-संतों के कंधों पर इस दिशा में कुछ करने की बड़ी जिम्‍मेदारी है।

- ओमप्रकाश श्रीवास्‍तव, आईएएस अधिकारी और धर्म, दर्शन और साहित्‍य के अध्‍येता

Updated : 9 March 2022 2:36 PM GMT
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