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सैकड़ों प्रजातियां खत्म होने की कगार पर

जैव विविधता खतरे में

सैकड़ों प्रजातियां खत्म होने की कगार पर
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बीजिंग। एक नए शोध में दावा किया गया है कि जंगलों के खत्म होने, जलवायु परिवर्तन और जरूरत से ज्यादा मछली पकडऩे से सैकड़ों प्रजातियां खत्म होने की कगार पर हैं। इनमें हाथियों से लेकर मेढ़कों की कुछ प्रजातियां शामिल हैं। विशेषज्ञों का कहा है कि ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्र में इसका सबसे ज्यादा खतरा मंडरा रहा है। यह अध्ययन नेचर पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है। प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तनाव का स्तर बढऩे से और जमीन का इस्तेमाल बदलने से दुनिया की जैव विविधता पर खतरनाक असर हो रहा है। यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड समेत दुनिया के कई प्रमुख संस्थानों के विशेषज्ञ इस अध्ययन में शामिल हुए। उनका कहना है कि अगर हम अभी नहीं चेते तो हमारे ग्रह के सबसे विविधतापूर्ण हिस्से में जीव जन्तुओं की प्रजातियों का ऐसा नुकसान होगा, जिसका असर हम चाह कर भी कम नहीं कर पाएंगे।

अपनी तरह के पहली बार किए गए इस अध्ययन में विश्व के 4 सबसे विविधतापूर्ण ट्रॉपिकल ईकोसिस्टम्स पर शोध किया। इसमें ट्रॉपिकल वन, सवाना, झील, नदियां और कोरल की चट्टानें शामिल थीं। शोधकर्ताओं ने ट्रॉपिकल ईकोसिस्टम की संवेदनशीलता पर अध्ययन किया। उनका कहना है कि अफ्रीकी बुश हाथी या सवाना हाथी पर विलुप्त होने का सबसे बड़ा खतरा मंडरा रहा है। इनके संरक्षण के लिए किए जा रहे तमाम प्रयासों के बावजूद हाथी दांत के लिए इनकी हत्या करने वाले शिकारियों पर लगाम नहीं कस पा रही है। इसके अलावा ट्रीफ्रॉग्स भी विलुप्त होने के कगार पर हैं। मेंढ़कों की यह प्रजाति जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, नई बीमारियों और जंगलों की गैरकानूनी कटाई के कारण खतरे में है।

हालंकि धरती के केवल 40 फीसदी हिस्से पर ही ट्रॉपिक कवर है, मगर यहां दुनिया की तीन चौथाई से भी ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं। इसमें कम पानी में होने वाले कोरल और पक्षियों की 90 फीसदी प्रजातियां शामिल हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि इसके अलावा इन क्षेत्रों में अब भी न जाने कितनी प्रजातियां दुनिया की नजर से छुप कर रह रही हैं। शोध के सह लेखक और यूनिवर्सिटी ऑफ हांगकांग में असिस्टेंट प्रोफेसर बेनॉट गेनार्ड का कहना है कि अगर हम प्रजाति की खोज की बात करें तो हर साल तकरीबन 20 हजार नई प्रजातियां इस क्षेत्र में खोजी जा सकती हैं। इस हिसाब से चला जाए तो सारी प्रजातियों के बारे में 300 साल का समय लग जाएगा। कुछ प्रजातियों पर इनसान की बढ़ती जरूरतों और जलवायु परिवर्तन की दोहरी मार है।

Updated : 9 Aug 2018 12:32 PM GMT
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Swadesh Digital

स्वदेश वेब डेस्क www.swadeshnews.in


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