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सेवानिवृत्ति का अधिकार जीवन के अधिकार से नहीं है बड़ा

सर्वोच्च् न्यायालय का अहम फैसला

सेवानिवृत्ति का अधिकार जीवन के अधिकार से नहीं है बड़ा
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नई दिल्ली। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक अहम फैसले में कहा है कि स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का अधिकार जीवन के अधिकार से बड़ा नहीं है। सरकार जनहित को ध्यान में रखते हुए स्वैच्छिक सेवानिवृति की मांग ठुकरा सकती है। न्यायालय ने डाक्टरों की स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति की मांग खारिज करने के उत्तर प्रदेश सरकार के फैसले को सही ठहराते हुए कहा कि आम जनता को सुपर स्किल्ड विशेषज्ञ से इलाज कराने का अधिकार है न कि दोयम दर्जे से। न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा व एस.अब्दुल नजीर की पीठ ने प्रदेश सरकार की अपील स्वीकार करते हुए यह फैसला सुनाया है। उच्च न्यायालय ने डाक्टरों की स्वैच्छिक सेवानिवृति की अर्जी स्वीकार करते हुए सेवानिवृत्त घोषित कर दिया था। शीर्ष न्यायालय ने उत्तर प्रदेश के संशोधित फंडामेंटल रूल 56 की व्याख्या करते हुए कहा कि नियमों के तहत सरकार को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति की अर्जी ठुकराने का अधिकार है। सरकार ने मानव जीवन की आवश्यकताओं और जनहित के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए फैसला लिया है। डाक्टर मौलिक अधिकार के तहत सेवानिवृत्ति के हक का दावा कर रहे हैं लेकिन ये अधिकार जीवन के अधिकार से बड़ा नहीं हो सकता। सेवानिवृत्ति के अधिकार की व्याख्या सरकार द्वारा लोगों को स्वास्थ्य और पोषण उपलब्ध कराने के संवैधानिक दायित्व को साथ रख कर की जाएगी। रोजगार की आजादी, जनहित के अधीन है। नौकरी ज्वाइन करने के बाद इस अधिकार का दावा सिर्फ नियमों के मुताबिक ही किया जा सकता है। स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति पर नियमों के मुताबिक ग्रेच्युटी, पेंशन आदि मिलता है, ऐसे ही जब कर्मचारी की सेवा की आवश्यकता होगी तो नियुक्ति प्राधिकारी को स्वैच्छिक सेवानिवृति अर्जी अस्वीकार करने का अधिकार है।

कोर्ट ने कहा कि अगर इस तरह सभी डाक्टरों की सेवानिवृति की अनुमति दे दी जाएगी तो अव्यवस्था उत्पन्न हो जाएगी और सरकारी अस्पताल में कोई भी डाक्टर नहीं बचेगा।

कोर्ट ने कहा कि रूल 56 के तहत स्वैच्छिक सेवानिवृति के नोटिस को तीन महीने बीतने पर सेवानिवृति स्वत: प्रभावी नही होगी। नियुक्ति अथारिटी या तो नोटिस स्वीकार करेगी या फिर उसे अस्वीकार कर सकती है। कर्मचारी को स्वैच्छिक सेवानिवृति का संपूर्ण अधिकार नहीं है।

कोर्ट ने कहा कि पहले ही डॉक्टरों की कमी है। व्यवस्था को सक्षम वरिष्ठों के बगैर नहीं छोड़ा जा सकता। सरकारी अस्पताल में गरीब इलाज कराता है उन्हें खतरे में नहीं डाला सकता। भारत में सरकारी चिकित्सा सेवा गरीबों की जरूरतों को पूरा करती है अन्यथा इस धर्मार्थ कार्य का व्यवसायीकरण हो चुका है। इस स्थिति में लोगों को अच्छे डॉक्?टरों की सेवा से वंचित नहीं किया जा सकता।

डॉक्टरों की कमी और इस पेशे के व्यवसायीकरण का ध्यान रखते हुए सरकार ने राज्य चिकित्सा सेवा की क्षमता बनाए रखने के लिए जो फैसला किया है वह नियम सम्मत है। संविधान के तहत हर व्यक्ति का मौलिक कर्तव्य है कि वह जीवित प्राणियों के प्रति दयालुता और मानवता रखे ताकि राष्ट्र लगातार ऊंचाइयों पर पहुंचे। सरकारी चिकित्सा सेवा से बड़े पैमाने पर कूच नहीं हो सकता जैसा इस मामले में दिखाई दे रहा है।

क्या था मामला

उत्तर प्रदेश में प्रांतीय मेडकल सर्विस में वरिष्ठ पदों पर तैनात डॉक्टर अचल सिंह, डॉक्टर अजय कुमार तिवारी, डॉक्टर राजेन्द्र कुमार श्रीवास्तव, डॉक्टर राजीव चौधरी ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति की अर्जी दी थी। जब सरकार ने उस पर आदेश नहीं किया तो डॉक्टरों ने उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति मांगी जिसे उच्च न्यायालय ने स्वीकार कर लिया था। सरकार ने आदेश को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। सरकार का कहना था कि डॉक्टरों की कमी को देखते हुए स्वैच्छिक सेवानिवृति की अर्जी ठुकराई गई है।

Updated : 23 Aug 2018 11:47 AM GMT
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Swadesh Digital

स्वदेश वेब डेस्क www.swadeshnews.in


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