बिन्दु विलास (खण्डकाव्य)
Author: स्व. श्री महेश अनघ
Reviewer: अनिल अग्निहोत्री
बौद्धिक चेतना का समुच्चय है
स्व. श्री महेश 'अनघÓ समकालीन नवगीतकारों में एक ऐसा प्रतिष्ठित नाम है जिन्होंने अपने लेखन से साहित्य की लगभग सभी विधाओं में अपनी लेखकीय क्षमता के मानदण्ड स्थापित किये हैं। उनकी बौद्धिकता और काव्य ऊर्जा के प्रतिमान गजल, उपन्यास और कहानी संग्रह तो हैं ही-उन्होंने नवगीत पर भी पर्याप्त लेखन किया है। अपने जीवन में शासकीय सेवा में रहते हुये वे इतना कुछ लिख गये हैं कि उसमें से मुश्किल अभी पचास प्रतिशत ही प्रकाश में आया है। वे साहित्य में न तो किसी वाद के अलमबरदार रहे और न ही किसी खूंटे से बंधने में अपनी आसक्ति व्यक्त की। निर्विवाद रूप से वे साहित्य को ही समर्पित रहे। संस्कृत में स्नातकोत्तर उपाधि (स्वर्ण पदक के साथ) उनके पास थी सो काव्यशा ीय मानकों के इतर समझौता करने की वृत्ति उनकी कतई नहीं रही। वे एकनिष्ठ भाव से लेखन करते हुए इतना सब कुछ रच गये हैं कि अभी उनका बहुतेरा अप्रकाशित ही है।
स्व. 'अनघÓ जी की सारी कल्पनाओं के स्रोत और बिम्ब विधायिका की शक्ति ग्रामीण जीवन से आती है- वे उन लेखकों में से थे जो रहते तो शहर में थे पर उनकी आत्मा गावों में बसती थी। आजीवन गांव उनके अंदर बीज-रूप में रहा। गांव की संस्कृति, बिम्ब और उपमानों को बीन, पछोरकर उसे अपने साहित्य में परोसने का काम वे आजीवन करते रहे। ग्रामीण मुहावरे और शब्दावली से लैस उनका काव्य संसार परिनिष्ठित खड़ी बोली में है- उससे वे नवगीतकारों की उस जमात में पहुंच गये हैं जहां से उन्हें खारिज़ करना नामुमकिन सा लगता है। वे दिशा निर्धारक (टे्रण्ड सेटर) कवि भले ही न हों पर दिशा-बोध के कवि अवश्य हैं।
हालिया प्रकाशित स्व. महेश 'अनघÓ जी का खण्डकाव्य 'बिन्दु विलासÓ को पढऩे से कुछ ऐसी ही प्रतीति होती है। 'खण्डकाव्यÓ के लक्षणानुसार इसमें जीवन के किसी एक खण्ड को लक्षित किया जाता है-पर यह खण्डकाव्य सामाजिक या सांसारिक ऊहापोहों का दस्तावेज भर नहीं है। यह एक आध्यात्मिक और दार्शनिक दृष्टि लिये हुए जीवन के इतर मनोभावों का संश्लिष्टीकरण है।
भारतीय आध्यात्मिक परंपरा वेदों से शुरु होती है। उस समय जो साहित्य रचा गया उसमें मनुष्य के कर्मशील होने पर बल दिया गया है। 'बिन्दु विलासÓ का कथानक भी इसी तथ्य को रेखांकित करता है। सांसारिक उलझनें मानव मन को असीमानंद के उस निर्झर तक पहुंचने में कामयाब नहीं होने देती जहां प्यास भी है और तृप्ति भी है। जहां गहराईयों के दंश हैं और उससे उबर कर आने के ठोस और कारगर तौर-तरीके भी हैं। इस भावभूमि पर कवि महेश 'अनघÓ कम पानी में छपकइयां मारने वाले कवि कभी साबित नहीं हुये बल्कि वे इस बिन्दु विलास रूपी सागर के एक ऐसे गोताखोर हैं जो अतल में जाकर गहराइयों से मोती लाकर ही किनारे पर बैठते हैं। आनंद के उल्लास का जी भरकर जी लेना यही उनका हेतु है।
अपनी सांसों की असंतुष्टि के स्वर के साथ जिस दार्शनिक और आध्यात्मिक चेतना से सम्पुष्ट होकर 'बिन्दु बिलासÓ सिरजा गया है उसमें जीवन की सबलता का आग्रह भी है तो अन्तर्मन के क्रंदन और विकृत स्वर की परिणिति भी है। भौतिकता का ज्ञान क्रिया स्वरूप है और भावुकता की भक्ति कला है। यहां निष्काम कर्म को जीवनासक्ति मानने वाले स्व. अनघ जी बाह्य और आंतरिक जीवन में संघर्ष की आदर्श व्यवस्था देते हुए दिखाई देते हैं और नूतन और पुरातन के संघर्ष को अपनी पैनी धार देते हुए वे नव्यता के आकर्षण के लिए सन्नद्ध भी रहते हैं। समीक्ष्य खण्ड काव्य में कला तत्व के जिस बीजक की वे बात करते हैं उसे वे प्रेमतत्व का स्वामी मानने से परहेज भी नहीं करते हैं। जीवन की क्षणभंगुरता और अनश्वरता के बरक्स भाव बोध से लबरेज यह कृति जीवन में अभिनय की निषिद्धता का उद्घोष भी करती है। मर्यादा की स्वीकारोक्ति के साथ पाप-पुण्य को संरक्षण देने पर निवृत्ति असंभव सी है। कर्तव्य विधा को क्षमता से सीमित कर स्वाभाविक प्रवृत्तियों को कर्तव्य का नाम देने से व्यवस्थानुशासन रहता है। कलुषित मन से घृणा अभिभूत होती है। इस प्रकार कवि का चिंतन यहां निश्चित ही सूत्र रूप में है।
स्वर्ग-नरक को मिथ्या मानते हुए वे मृत्यु को तन का परिवर्तनकामी स्वरूप कहकर उसे काल चक्र का नर्तन कहते हैं। अदृष्य अनागत को अतिथि मानते हुए वे संशय-संभ्रम की स्थिति में नीचे दब जाने की बात करते हैं इस प्रकार सूफियाना अंदाज में उनका कथानक वह सब कह जाता है जो आज के युग में विचारणीय है।
आनंद ब्रह्म का दर्शन/आनंद अनंत अमर है, अद्वैत सत्य शिव सुंदर/ आनंद शांति का घर है,
कहकर वे असंतुष्टि के स्वर से प्रारंभ हुई यात्रा के पथिकों को आनन्दोत्सव में सम्मिलित कर अपनी लेखनी को विश्राम दे देते हैं। इस प्रकार 'बिन्दु विलासÓ खण्ड काव्य हमें जीवन की सच्चाइयों से रू-ब-रू तो कराता ही है साथ ही विकृतियों के मकडज़ाल में फंसे हुए मानव मन को सत् चित आनंद की त्रयी में अवगाहन करा कर दिशा बोध के रूप में एक उत्प्रेरक का काम भी करता है।
खण्डकाव्य की भाषा बेहद सधी हुई है। छंदानुशासन ने भी कृति के साथ न्याय किया है। इस प्रकार उपरोक्त संग्रह पठनीय ही नहीं प्रत्युत साहित्यक अध्येताओं के लिये चिंतन के द्वार भी खोलता है। मेरी दृष्टि में यह कृति विश्व विद्यालयीन पाठ्यक्रम में सम्मिलित होने की संपूर्ण अहर्ता रखती है।
प्रकाशक- निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रब्यूटर्स शाहगंज, आगरा (उ.प्र.)