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संकट कालीन बजट से अपेक्षाएं

प्रो. जी. एल. पुणताम्बेकर

Update: 2021-02-01 00:00 GMT

आज पेश होने वाले बजट की प्रकृति कोविड -19 के संकट के कारण पूर्व के बजटों से एकदम भिन्न है। इस वर्ष सामान्य समय में नकारात्मक दिखने वाले आंकड़े आज उनकी तीव्रता कम होने के सन्दर्भ में ही देखे जायेंगे। जैसे इस बजट में वर्ष 2020-21 में आर्थिक वृद्धि दर ऋणात्मक (-7.7 प्रतिशत ) होते हुए भी इसलिए उाम मानी जायेगी योंकि वह -23 प्रतिशत से अधिक के आंकड़े की तुलना में बड़ी उपलब्ध मानी जायेगी। इसी प्रकार, राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3 प्रतिशत के स्थान पर 6.8 प्रतिशत तक पहुँचने के बाद भी उसे नकारात्मक संकेत नहीं माना जाएगा योंकि कोविड महामारी में सरकार ने जिस तरह देश के सभी वर्गों को राहत पैकेज जारी किये, वह समय की मांग थी। सरकार ने रोजगार में होने वाली कमी को दूर करने के लिए भी आधारभूत संरचना में किये जाने वाले व्यय में बढ़ोारी हो या फिर स्वास्थ्य सेवाओं के विकास के लिए किये गए व्यय में वृद्धि हो, घाटे की विा व्यवस्था इस वत जायज ही है। बल्कि यदि यह कहा जाए कि घाटे की विा व्यवस्था की प्रासंगिकता का सबसे अच्छा उदाहरण विा वर्ष 2020-21 ही दिखाई दिया तो यह अतिशयोक्ति नही होगी। मुद्दा यह है कि इस वैश्विक महामारी की छाया इस बजट में भी रहेगी और विा मंत्री निर्मला सीतारमण कितने भी प्रयास करें, वे नाकाफी ही लगेंगे ।

आज पेश होने वाले बजट में कोविड महामारी को कोई कितना भी समझे उससे जनता की अपेक्षाओं और विपक्षियों के विरोध की प्रकृति बदलने वाली नहीं है। यदि अपेक्षाओं की बात की जाये तो आयकर में बड़ी राहत, सरकारी क्षेत्र में रोजगार, खैराती योजनाओं का विस्तार या उसकी राशि बढ़ाना, कर्ज माफी का विस्तार, कोविड के कारण विविध सेटर्स को हुए नुकसान की भरपाई जैसी अपेक्षाओं से विामंत्री निर्मला सीतारमण को इस बार भी दो- चार होना ही पड़ेगा और उनके प्रयासों को नाकाफी भी कहा जाएगा। इस धु्रव सत्य के बाद भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि परन्तु यह सरकार तमाम प्राकृतिक, चीन प्रेरित और विपक्ष प्रेरित अड़चनों के बाद भी लगातार बेहतर काम करती रही है और इस सत्य को कोई कितना भी नकारे, दुनिया मान रही है। जब न्यूयार्क टाइस मोदी को 'ग्रेट मोबिलाइजर' मानता है तो वह मोदी भक्ति के कारण नहीं, उनके सतत और नूतन प्रयासों और उत्कृष्ट प्रबंधन कौशल के कारण ही है। यह भी उतना ही बड़ा सच है कि मोदी सरकार की तारीफ में यह तथ्य भुलाया नहीं जा सकता कि यह सरकार कितनी भी सक्षम और एटिव यों न हो, चुनौतियां कम नहीं है और वे आज पेश होने वाले बजट में परिलक्षित भी होंगी।

उदाहरण के लिए विगत वर्ष केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारें पेट्रोल डीजल पर भारी भरकम टैस पर अधिक निर्भर रहीं। यदि केंद्र सरकार राजस्व के अन्य बेहतर विकल्प खोजकर कम से कम 20 रुपये प्रतिलीटर की राहत इन उत्पादों में दे तो यह अर्थ व्यवस्था के तमाम क्षेत्रों के साथ-साथ व्यक्तिगत आयकर दाताओं खासकर किसानों को बड़ी राहत होगी। इसी प्रकार सरकारी व्यय की गुणवाा एक ऐसा क्षेत्र है जिस पर किसी बजट में कोई बात नहीं होती जबकि इसमें सुधार लगभग 30 राजस्व की बचत कर सकता है। यद्यपि मोदी सरकार के अनेक अप्रत्यक्ष सुधार इस दिशा में अच्छे परिणाम दे रहे है पर दिल्ली अभी दूर है। यह भी सच है कि इस ओर आगे बढऩे पर किसान आन्दोलन से भी बड़ा विरोध होगा योकि इससे भष्टाचार के लाभार्थी प्रभावित होते हैं। परन्तु यही वह एकमात्र मार्ग है जो जनता को कर देने के लिए प्रेरित करेगा। वैसे तो एक प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में सरकारों के सामने जनता की अपेक्षाओं और राजकोषीय वास्तविकताओं के बीच सामजस्य बैठाने की कवायद सर्कस की रस्सी पर चलने से कम नही होती परन्तु मोदी सरकार के समक्ष यह कुछ अधिक ही है। कारण साफ है, इस बजट में कोविड-19 के सुदीर्घ संकट से राजकोष को होने वाली क्षति और उससे उबरने के लिए विगत माहों में दिए गए तीन राहत पैकजों के विाीय भार के साथ जनता की नई अपेक्षाओं को पूरा करने की चुनौती बड़ी है। वैसे तो प्रजातंत्र में विपक्ष की भूमिका सरकार के कामकाज की कमियाँ निकालकर उसे सही दिशा में मोडऩे की होनी चाहिये परन्तु सेवा से पेशा बनी राजनीति में ऐसी भूमिका निबाहना राजनीतिज्ञों को अपने ही पैरों पर कुल्हाडी मारने वाली लगने लगी है। इसका प्रमाण ही यह है कि जिन्हें जनता चुनाव में जिताकर सरकार में बैठती है, उनके हर काम का विरोध वे करते हैं जिन्हें जनता नकार रही है।

भारतीय राजनीति के इस संकट के बाद भी यह सत्य है कि आज पेश होने वाले बजट के पूर्व कोविड संकट के बाद व्ही-शेप रिकवरी के संकेत सरकार द्वारा लॉकडाउन और उसके बाद तेजी से लिए गए वे तमाम निर्णय है। यह सब सुखद तो है पर मंजिल अभी दूर है और बजट की समीक्षा इसी सन्दर्भ में होनी चाहिए। यह सुखद है कि इस वर्ष दिए गए तीन राहत पैकेजों का असर भी इस विा वर्ष में देखेगा। इन पैकेजों के सन्दर्भ में यद्यपि यह आलोचना हुई थी कि उसमें प्रत्यक्ष लाभ कम है और अप्रत्यक्ष अधिक। यह सच भी था और उचित भी योकि खैराती योजनाओं से राजकोष पर भी गंभीर असर होता है और जनता में मुतखोरी की आदत भी पड़ती है जो दीर्घ काल में हानि ही पहुंचाती है।आज का बजट इस बात का भी ध्यान रखेगा, ऐसी आशा है।

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