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मुनि तरुण सागर के प्रवचन कड़वी दवा की तरह होते थे

जो उन्होंने कहा, उसको तन-मन पर साधकर दिखाया

Update: 2018-09-01 13:42 GMT

नई दिल्ली। जाना तो सबको है। चाहे वह राजा हो, रंक हो या फकीर हो लेकिन इनमें जब कोई जग को, जनमानस को कुछ देने वाला, उस उम्र में चला जाता है जब वह बहुत कुछ देने की अवस्था में होता है तो सबको लगता है कि नहीं, यह नहीं होना चाहिए था। जल्दी चले गये। उनसे समाज को अभी बहुत कुछ मिलता।

51 वर्ष की उम्र में जैन मुनि तरुण सागर के चले जाने से भी यही भाव उस जन मन में भी आ रहा है, जो उनके ना तो अनुयायी थे, ना ही भक्त थे। ना जैन थे ना ही हिन्दू थे। ना कोई वादी थे । ऐसे बहुतों के मन को उनके कड़वे बोल वाला प्रवचन मनन व मंथन के लिए मजबूर कर देता था और उस मनन व मंथन में ही वह उनका हो जाता था। पता भी नहीं चलता था और यह पता नहीं चलना जीवन में कैसे उतरता चला गया, इसका आभास तब होता था जब वैसे किसी माहौल में व्यक्ति फंसता था। तब उसको जंगल की कड़वी नीम पर लगे मधुमक्खी के छत्ते से निकले शहद के सेवन से जिस तरह शरीर की बहुत सी गंभीर बीमारियाें का अंत हो जाता है, उसी के जैसा आभास होता था। जिसका वस्त्र दिगम्बर हो, जिसका जीवन समाज हो, उसी संत के कड़वे बोल तो इतने असरकारी हो सकते हैं। वह जैन मुनि तरुण सागर जी 51 वर्ष की उम्र में संथारा माध्यम से शरीर छोड़ गये।

संथारा /संलेखना यानि उपवास । इसमें कोई तपस्वी जब देह त्यागना चाहता है तो अन्न-फल लेना छोड़ देता है। यदि साधक स्वस्थ है तो कुछ माह में शरीर शांत होता है । यदि बुजुर्ग या बीमार है तो कुछ दिन में देह शांत हो जाती है। कई धर्मों में इसे मोक्ष पाने का मार्ग माना गया है और इसे कई विधियों से किया जाता है।

जहां तक उनके कड़वे प्रवचनों का सवाल है तो उनके बिना लाग लपेट कड़वे बोल के कारण लोग उनको प्रगतिशील जैन मुनि कहने लगे थे। इस बारे में उनके एक अनुयायी पवन जैन का कहना है कि वह अपने प्रवचनों में बिना डर–भय के, बिना लाग–लपेट के बोलते थे, किसी को छोड़ते नहीं थे, चाहे वह कितना भी बड़ा हुक्मरान हो। कुछ माह पहले उन्होंने तीन तलाक मुद्दे पर कहा था, "जो लोग मुस्लिम महिलाओं के कल्याण का दावा कर रहे हैं, वह बस अपनी राजनीति कर रहे हैं। वह महज दिखावा कर रहे हैं। ऐसे नेताओं या दलों को महिलाओं के हक से कोई लेना-देना नहीं है।"

संघ के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता हेमंत ने बताया कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के आमंत्रण पर मुनि तरुण सागर विजय दशमी के कार्यक्रम में गये थे। उन्होंने वहां कहा कि संघ के स्वयं सेवक चमड़े की बेल्ट और चमड़े का जूता पहनते हैं जो अहिंसा के विरुद्ध है। उनके यह कहने के बाद से संघ ने अपने स्वयं सेवकों को कैनवास का बेल्ट पहनने को कह दिया।

मुनि तरुण सागर नई दिल्ली के बंगाली मार्केट इलाके में भी अपने एक अनुयायी के यहां कई-कई माह तक रहते थे। वहां इनसे मिलने इस इलाके के बहुत से लोग जाते थे। उनसे वे ऐसे मिलते थे, जैसे बहुत समय से जानते हों। सीधे कहते थे, अरे किसी लंद-फंद में मत पड़ो। भगवान ने जो समय दिया है उसका सदुपयोग करो। रात-दिन हाय – हाय , पैसा-पैसा , पद - उससे बड़ा पद , इसके लिए इंसानियत खूंटी पर । केवल व केवल इसी के लिए यह जीवन नहीं मिला है। इससे उबरो, नहीं तो इसी में और धंसते जाओगे। फिर चाह कर भी नहीं निकल पाओगे। जीवन को जीने के लिए शरीर को साधना सीखो। जब तक जियो, सबके लिए जियो। जब शरीर जवाब देने लगे तो बिना मोह-माया के उससे कह दो कि ठीक है, हम भी तैयार हैं। अपने श्वास से कह दो कि यह यात्रा पूरी हुई और निर्लिप्त भाव से देह त्याग दो लेकिन यह निर्लिप्त होना ही तो बहुत कठिन है। इसके लिए बहुत साधना करनी पड़ती है। तन-मन को साधना पड़ता है।

अपने को सुनने – गुनने वालों से अक्सर यह कहने वाले जैन मुनि तरुण सागर इसका प्रमाण बन संथारा माध्यम से देह त्याग इस दुनिया से चले गये। यह दिखा गये कि तन-मन को साधोगे तो निर्लिप्त भाव से अंतिम यात्रा पर जा सकते हो। 

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