'स्वदेश' के पत्रकारिता गुरूकुल के पुराने विद्यार्थी होने के नाते आज ऐसे अनेक पत्रकारों की विकास यात्रा को निकट से देख कर गर्वित होने का सौभाग्य प्राप्त है, जो इन दिनों ग्वालियर या मध्यप्रदेश ही नहीं पूरे देश भर में नाम कमा रहे हैं। विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि इनमें से अनेक ऐसे हैं जिन्हें अभी और नई-नई ऊँचाइयाँ छूनी हैं। कल अचानक वज्राघात हुआ, यह जानकर कि ऐसी ही उम्मीदों के एक केन्द्र हम सबके प्रिय अमरनाथ गोस्वामी को यकायक ईश्वर ने अपने पास बुला लिया। सचमुच यह तो अन्याय ही हो गया।
नब्बे के दशक का वह प्रसंग चलचित्र की तरह दिमाग में घूम गया, जब चेतकपुरी क्षेत्र के युवा उत्साही अनुजवत कार्यकर्ता (स्व.) अनिल मिश्रा 'स्वदेश' में एक सुदर्शन युवक को लेकर आए और कहा ''भाई साहब अमरनाथ स्वदेश में काम सीखना चाहते हैं"। स्वदेश के गुरूकुल का वह आंगन तो ऐसे युवाओं के स्वागत के लिए बाहें पसारे ही रहता था। बस अमरनाथ 'स्वदेश' के युवा प्रशिक्षुओं में शामिल हो गए और अपनी गहरी ज्ञान पिपासा और शालीन व्यवहार के चलते देखते ही देखते अपनी विशिष्ट पहचान बना ली। बीते दो ढाई-दशकों की अपनी पत्रकारिता यात्रा में 'स्वदेश' ही नहीं वे जहाँ भी रहे तथ्यों और भाषा पर गहरी पकड़, विनम्रतायुक्त स्पष्टवादिता, अध्ययनशीलता, सतत संवाद सिद्धता जैसे गुणों के कारण सबके प्रिय होते चले गए। गर्व के साथ कहा जा सकता हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्कारों से अभिमंत्रित 'स्वदेश की शिक्षाओं को उन्होंने इस प्रकार आत्मसात किया कि आज की प्रश्नचिन्हांकित पत्रकारिता में भी वे कहीं फिसलते हुए देखे सुने नहीं गए। इसीलिए सबके दुलारे हो गये थे अमरनाथ।
'स्वदेश' उन्होंने कब छोड़ा यह मुझे ठीक से याद नहीं, शायद इसलिए भी नहीं कि वास्तव में उन्होंने 'स्वदेश' और उसके विचार को कभी छोड़ा ही नहीं था। मुझे याद है कि वे जिस किसी भी संस्थान में कार्यरत रहे हों सजग पारिवारिक सदस्य की भाँति 'स्वदेश' के प्रिय और अप्रिय विषयों की ओर साधिकार इंगित करते रहते थे। ऐसे ही संघ के विषय में किसी भी भ्रामक समाचार को सुनते, देखते ही पूरी चिंता के साथ उचित स्थान पर अवगत कराकर सत्य सामने लाने का उनका प्रयास मुझे उनके मूलत: एक अच्छे स्वयंसेवक होने का अनुभव हाल के वर्षों में अनेकों बार कराता रहा है।
वर्षो पूर्व का एक प्रसंग याद आता है, स्वयंसेवक पत्रकारों की एक बैठक में अपनी उसी स्पष्टवादी वृत्ति के चलते उन्होंने खड़े होकर कुछ ऐसी बातों की ओर इंगित किया जिससे वहाँ उपस्थित मुझ सहित कुछ लोगों की त्यौरियाँ चढ़ गईं थी। बात वहीं समाप्त हो गई क्योंकि हम सब अमरनाथ के स्वभाव को जानते थे। हाल ही में अभी शायद 15 दिन भी नहीं हुए होंगे, प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के बाद कुछ पत्रकारों की प्रगटत: बदली निष्ठाओं को लेकर चल रही चर्चाओं के बीच अमरनाथ ने फोन पर मुझे याद दिलाया था 'भाई साहब कुछ वर्ष पहले मेरे बैठक में बोलने को लेकर आप नाराज हो गए थे, पर मैं तब भी और आज भी यही कहना चाहता हूँ कि संघ को अपनों और परायों को पहचानना चाहिए। संगठन में आ रहे विकारों के प्रति कठोर होना चाहिए"।
सचमुच एक सच्चा हितैषी मित्र, एक खरा-खरा पत्रकार ही इतनी स्पष्टता से अपनी बात कह पाता है, यह खरापन ही उनकी सबसे बडी पूंजी थी। पर एक खरी-खरी हम सबकी भी, अमरनाथ यूं इस तरह अचानक छोड़ कर तो नहीं जाया जाता, हमें आपकी कमी बेहद खलेगी