बरेली कोर्ट के फैसले से जगी मुस्लिम महिलाओं की उम्मीद

अभी तक मुस्लिम महिलाओं के हक में अदालत ने जो कुछ चर्चित फैसले दिए हैं, उनमें शाहबानो केस और सायरा बानो व अन्य के मामले काफी अहम हैं।

Update: 2018-07-21 10:07 GMT

- डॉ. कविता सारस्वत

बरेली की प्रतिष्ठित आला हजरत खानदान की बहू निदा खान के तलाक मामले में जिले की अदालत में बड़ा फैसला दिया है। अदालत ने निदा खान को दिए गए तीन तलाक के आधार को अमान्य करार दिया है और स्पष्ट किया है की वे आला हजरत खानदान की बहू बनी रहेंगी। इसके साथ ही उनके शौहर शीराम रजा खान के खिलाफ घरेलू हिंसा का मुकदमा भी जारी जारी रहेगा। निदा खान तीन तलाक और हलाला पीड़ित महिलाओं के लिए संघर्ष करने को लेकर काफी चर्चित रही हैं। इसी हफ्ते बरेली के प्रतिष्ठित आला हजरत दरगाह ने एक फतवा जारी कर उन्हें इस्लाम से बेदखल भी किया था। लेकिन, इस्लाम से बेदखल करने का फतवा आने के अगले ही दिन कोर्ट से आया फैसला निदा खान को काफी राहत पहुंचाने वाला है।

दरअसल, अभी तक मुस्लिम महिलाओं के हक में अदालत ने जो कुछ चर्चित फैसले दिए हैं, उनमें शाहबानो केस और सायरा बानो व अन्य के मामले काफी अहम हैं। शाहबानो केस पर फैसला राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में आया था, जबकि सायरा बानो व अन्य का केस पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला मौजूदा एनडीए सरकार के कार्यकाल में आया है। शाहबानो केस में मुस्लिम महिलाओं के हक में आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बाद में राजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम उलेमाओं के दबाव में अपनी तुष्टीकरण की नीति के तहत नया कानून लाकर पलट दिया था। लेकिन सायरा बानो केस का फैसला आने के बाद मौजूदा केंद्र सरकार ने तीन तलाक को लेकर लोकसभा में विधेयक पारित भी करा लिया। हालांकि कांग्रेस के विरोध की वजह से यह विधेयक राज्य सभा में पारित नहीं हो सका। अंततः सरकार को इसके लिए अध्यादेश लाना पड़ा।

निदा खान के मामले में बरेली की स्थानीय कोर्ट का फैसला आया है और उसने निदा खान के तलाक को अमान्य करार दिया है। निदा को आला हजरत खानदान की बहू होने के साथ-साथ मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाली महिला के रूप में जाना जाता है। यही कारण है कि वे कट्टरपंथी मुसलमानों की आंखों में सदैव खटकती रहती हैं। यही एक वजह है कि सोमवार को ही बरेली की जामा मस्जिद के इमाम मुफ्ती मोहम्मद खुर्शीद अलम आलम रजवी की ओर से पूछे गये एक सवाल के जवाब में आला हजरत दरगाह से जुड़े मुफ्ती अफजाल रिजवी ने एक फतवा जारी करके कहा कि 'कुरान में हलाला का जिक्र है और अगर निदा खान माफ़ी नहीं मांगती हैं, तो उनका बायकॉट होना चाहिए। किसी को भी उनसे बातचीत या मुलाकात नहीं करनी चाहिए। उनके साथ खाना भी बंद कर देना चाहिए। अगर वह बीमार होती हैं, तो कोई उसको देखने न जाये। यही नहीं अगर उसकी मौत हो जाती है, तो न तो अंतिम प्रार्थना की जाये और न ही उन्हें कब्र में दफनाया जाए।'

मुफ्ती मोहम्मद खुर्शीद अलम रजवी का कहना है कि निदा शरिया में बदलाव चाहती है। इस्लामिक कानून को अल्लाह ने बनाया है। वो कुरान और हदीस के खिलाफ बयान देती है। लिहाजा उन्हें इस्लाम से बेदखल किया जाता है। अगर किसी महिला को तलाक या दूसरे मामलों में कोई शिकायत है तो उसे दारुल इफ्ता (मौलवियों की समिति) के पास जाना चाहिए और इस्लामिक कानूनों का पालन करना चाहिए। निश्चित रूप से मुस्लिम कट्टरपंथियों के दबाव में निदा खान को इस्लाम से बेदखल किया गया। इसका मतलब साफ है कि ये मौलाना धर्म का डर दिखाते हुए इस्लाम की कुरीतियों का विरोध करने वाली उन तमाम महिलाओं को चेतावनी देना चाहते हैं कि अगर उन्होंने इस्लामिक परंपराओं में शामिल किसी भी कुरीति का विरोध किया तो उन्हें भी इस्लाम से बेदखल कर दिया जाएगा और मौत के बाद उन्हें कब्र भी नसीब नहीं हो सकेगी।

निदा खान मजहबी कट्टरता और गलत परंपराओं के खिलाफ संघर्ष कर रही हैं। उनकी जैसी कई और महिलाएं भी देश के अलग-अलग हिस्सों में तीन तलाक, हलाला जैसी के खिलाफ मुहिम चला रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी सायरा बानो व अन्य के मामले में जो फैसला दिया है, वो मुस्लिम महिलाओं की स्थिति को सुधारने की दिशा में एक अहम कदम है। सच्चाई तो यह है कि किसी भी धर्म में जारी कुप्रथाओं के खिलाफ कभी न कभी आवाज उठती ही है। जैसे हिंदू धर्म में जारी सती प्रथा जैसी गलत परंपरा को समाप्त करने के लिए राजा राममोहन राय ने बीड़ा उठाया था। समाज के तमाम विरोधों के बावजूद वे अपनी मुहिम में डटे रहे और अंततः इस कुप्रथा को समाप्त कराने में सफल रहे। उसी तरह हलाला, तीन तलाक, मुता निकाह, मिस्यार निकाह मुस्लिम समाज की ऐसी कुप्रथाएं हैं, जिनके खिलाफ लंबे समय से मुस्लिम महिलाएं संघर्ष कर रही हैं।

निदा खान एक प्रतिष्ठित घराने की बहू होने की वजह से चर्चित जरूर हैं और इसी कारण उनका मामला मीडिया में सुर्खियों में भी बना छाया रहा, लेकिन सच तो ये है कि ऐसी निदा खान हर राज्य में हैं, जो तीन तलाक और हलाला जैसी कुप्रथाओं के खिलाफ संघर्ष कर रही हैं। भारत का संविधान महिलाओं के हक को लेकर काफी स्पष्ट है और उसमें धर्म के आधार पर कोई विभाजन नहीं किया गया है। बरेली की जिला अदालत ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले की नजीर देते हुए स्पष्ट किया है कि कानून में महिलाओं में हिंदू महिला और मुस्लिम महिलाओं के आधार पर फर्क नहीं किया जा सकता है।

उधर बरेली की अदालत के फैसले से उत्साहित निदा खान भी इस्लाम से खुद को बेदखल किए जाने के फतवे को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने जा रही हैं। उनका कहना है कि देश में लोकतंत्र है इसलिए कानून का शासन चलना चाहिए। उनकी बात सही है, लेकिन उनको यह भी याद रखना होगा कि उनका संघर्ष सिर्फ मुस्लिम महिलाओं के लिए किया जाने वाला ही संघर्ष नहीं है, बल्कि मुस्लिम समाज पर सबसे अधिक असर डालने वाले कट्टरपंथी मौलानाओं के खिलाफ संघर्ष भी है। उनको ये भी समझ लेना चाहिए कि कट्टरपंथियों के साथ की उनकी इस लड़ाई में सफलता हासिल करना उनके लिए बहुत आसान नहीं होगा।

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